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एक यात्रा समानान्तर - 2

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होटल के काॅरीडोर के आखिर में छोर पर है उसका कमरा, जहाँ इस समय वह अकेली लेटी हुई है. रात आहिस्ता आहिस्ता सरकती आ रही है, पर ड्रिंक्स के बावजूद भी उसकी आँखों में नींद नहीं है. शाम को मनोज ने हमेशा की तरह ज्यादा पी ली थी. इससे पहले कि वह सारी पी हुई उलट देता, शिखा उसे अपने कमरे में ले गई थी. कुछ देर वह निखिल और अपर्णा के साथ बैठी रही थी. एक तनाव सा घिर आया था. उसे याद आया कि एक समय था, जब वे तीनों सहजता से बातें किया करते थे. निखिल के अपर्णा के साथ विवाह के निर्णय ने वह सहजता एक झटके में छीन ली थी. क्या यह अपराधबोध था ? पर किसका अपराधबोध ? उसने तो कोई अपराध किया नहीं था. तो क्या निखिल कहीं न कहीं यह मान रहा है कि उसने उसके प्रति अपराध किया है ?

”मैं भी चलती हूँ. मुझे नींद आ रही है.“ वह कहती है और उठ खड़ी होती है, ”तुम दोनों चाहो तो यहीं बैठे रह सकते हो.“

”अपना गिलास लेती जाओ. उसमें अभी काफी ड्रिंक बची हुई है.“ निखिल कहता है.

”नहीं, अब उसकी जरूरत नहीं है.“

अपने कमरे में पहुँचते ही वह जल्दी से कपड़े बदल कर बिस्तर पर गिर पड़ती है. खाना खाने के बाद उसे और नहीं पीनी चाहिए थी. कुछ लोग शराब बहुत कुछ भुलाने के लिए पीते हैं. पर उसके साथ इसका ठीक उल्टा होता है. उसे भूला हुआ और भी स्पष्ट होकर याद आने लगता है. वह कितनी भी पी ले, कभी भी अपने को भूल नहीं पाती है.

इस समय मनोज शिखा के साथ अपने कमरे में होगा और निखिल अपर्णा के साथ. अपनी व्यर्थ उपस्थिति का बोध उसे फिर सालने लगता है. वह यहाँ क्यों आ गई है ? उन दो जोड़ों के बीच उसका क्या काम ! यहाँ पहाड़ पर आने से पहले उसका मन उत्साह से भरा हुआ था. वे हमेशा प्लान बनाया करते थे, यहाँ घूमेंगे, वहाँ सैर करेंगे, बर्फ में खेलेंगे...... पर श्रीनगर पहुँचते पहुँचते कब वह उत्साह अपना दम तोड़ गया, उसे इस बात का जरा भी अहसास नहीं हो पाया. वह सारा उत्साह अब एक गहरी हताशा में बदल चुका है. उसे लगता है, जैसे वह किसी गहरी खाई में डूबती जा रही है, जिसके तल का कोई अता पता नहीं है.

वह किताब पढ़ने की कोशिश करती है - सीगल - जिसे वह यात्रा के दौरान पढ़ने के लिए लायी थी. पर शब्द काले धब्बे बन कर उसे घूरने लगते हैं. वह अपने बालों का क्लिप किताब के बीच दबा कर बन्द कर देती है.

पलंग के साइड में लगा स्विच दबा कर वह लाइट बन्द कर देती है. कमरे में घना अँधेरा पसर जाता है. पल भर कुछ भी सुझाई नहीं देता. पर आँखों की अपनी एक खास नज़र होती है, जो अँधेरे में भी देखने की कूवत रखती है. जल्दी ही एक हल्का पर उज्ज्वल आलोक दिखाई देने लगता है. उसे उसने पहले नहीं देखा था. खिड़की के रास्ते होते हुए चाँदनी कमरे की फर्श पर चुपचाप आकर लेट गई है.... जब हवा चलती है तो कमरे के बाहर लगे चिनार के पत्ते काँपने लगते हैं. पत्तों का काँपना फर्श पर नृत्य करने लगता है और उनका शोर देर तक गूँजता रहता है. वह सांस रोके उस शोर को सुनती रहती है.

उससे लेटा नहीं जाता. थोड़ी देर बाद वह उठ खड़ी होती है. शाॅल ओढ़ती है और खिड़की के पास आकर खड़ी हो जाती है. खिड़की खुलते ही सर्द हवा का तेज झौंका उसे कँपकँपा जाता है पर अपने सामने पसरे चाँदनी रात के अप्रतिम सौन्दर्य को देख कर वह सहसा चकित रह जाती है...... उसके साथ ऐसा पहली बार हुआ है जब उसे किसी प्राकृतिक दृश्य ने इस प्रकार सम्मोहित किया हो. इससे पहले वह कभी दृश्यांे से जुड़ नहीं पाई थी. लेकिन इस रात कुछ बात अलग है. चाँदनी में नहाई रात, देवदार और चिनार के पेड़ों से घिरा होटल का बड़ा सा लाॅन और चारों ओर पसरी हुई खामोशी. ग्राण्उड फ्लोर पर गार्डन सहसा कितना निरीह और अकेला पड़ गया है. सूनी बैंचों पर लेम्प पोस्ट्स की धुन्ध भरी रोशनी सारे वातावरण में एक अजीब सी उदासी घोल रही है. अचानक उसे लगता है कि यही वह क्षण है, जब वह कोई निर्णय ले सकती है...... पर कैसा निर्णय ? क्या उसे कोई निर्णय लेना है ? वह हतप्रभ रह जाती है.

ÛÛÛ

देर से कोई दरवाजा खटखटा रहा है. वह आवाज पहचानने की कोशिश करती है, पर पहचान नहीं पाती. बैरा होगा, वह सोचती है और उठ खड़ी होती है. किन्तु अगले ही क्षण चकरा कर फिर बैठ जाती है. सिर बेतरह भारी है. शायद रात ठीक तरह सो नहीं पाने के कारण ऐसा हो गया होगा. प्रयास कर मुश्किल से वह दरवाजा खोल पाती है.

दरवाजे पर बैरा खड़ा है, ”मे‘म, वे आपको बुला रहे हैं.“

”उनसे कहना, मेरी तबियत ठीक नहीं है. वे सब यहीं आ जायें.“ वह एक बार फिर बैड पर लेट जाती है. थोड़ी ही देर में सभी उसके कमरे में आ जाते हैं. अचानक सभी के केन्द्र में आ जाने कारण उसे शर्म आने लगती है. इससे तो अच्छा होता, वह खुद ही चल कर उनके पास चली जाती.

”अरे ! तुम्हें तो तेज बुखार है.“ निखिल उसे छूता है.

”ओ माई गाॅड ! 103 से कम नहीं होगा.“ मनोज भी उसे छूकर देखता है और डाॅक्टर बुलाने भागता है.

”रात को तुमने हमें क्यों नहीं उठाया ?“ अपर्णा कहती है.

”और हमारा कमरा तो तुम्हारे बिल्कुल पास वाला ही है.“ शिखा कहती है और उसके पास बिस्तर पर बैठ जाती है.

वह चुपचाप सुनती रहती है. उसे कब बुखार चढ़ आया था, इस बात का उसे पता ही नहीं चल सका था. उसकी आँख देर रात लगी थी, तब तक तो कुछ भी नहीं था, सिर्फ उनींदेपन को छोड़ कर. शायद रात को ठंडी हवा लग गई होगी.

......मेरे साथ हमेशा यही होता है. मुझे कुछ पता नहीं चलता और कुछ न कुछ खास घट जाता है. लगता है जैसे किसी घटना को घटने में मेरी कोई आवश्यकता नहीं होती. मेरी आवश्यकता घटना घट चुकने के बाद पड़ती है.......और तब लगता है कि कहीं कुछ गलत है, जब मुझे होना चाहिए, सदेह उपस्थिति होना चाहिए, मैं होती ही नहीं...... और बाद में घटना मुझे निभानी भर होती है......

पर कोई कहीं नहीं जाता. वह सबसे खूब आग्रह करती है कि वे अपना शंकराचार्य के मंदिर जाने का कार्यक्रम स्थिगित नहीं करें, लेकिन उसकी कोई नहीं सुनता. सबकी सहानुभूति उसके साथ है पर सहानुभूति में डूबे शब्द उसे अच्छे नहीं लगते हैं. उसकी इच्छा होती है कि वे लोग उसे अकेला छोड़ जाएं और वह चुपचाप बिस्तर पर पड़ी रहे.

पर कोई कहीं नहीं जाता. निखिल की आँखों में वह अपने लिए चिंता पढ़ सकती है. शिखा उसके हाथ सहला रही है और अपर्णा चुपचाप उसके पास बैठी हुई हैं. कुछ देर बाद डाॅक्टर इन्जेक्शन लगा जाता है और कुछ दवाईयाँ भी दे जाता है. दोपहर तक वह काफी सहज हाने लगती है. उसने कुछ फल लिए हैं सब के साथ दो एक बाजी ताश खेली, बस.

देर तक सोने के बाद अब आँख खुली है. शायद वह बहुत देर तक सोती रही थी. वह पलंग से उठ खड़ी होती है. उसे हल्की सी कमजोरी महसूस होती है.

”अरे ! जाग गई तुम ?“

वह सहसा चैंक जाती है. उसे पता नहीं था कि निखिल वहीं बैठा हुआ है, आर्मचेयर पर ऊँघता हुआ. निखिल के हाथों में वही किताब है, जिसे वह पिछली रात पढ़ रही थी.

”अब तबियत कैसी है ?“ निखिल पूछता है.

”मैं अब ठीक हूँ.“ वह कहती है, ”लगता है सब कहीं घूमने चले गए हैं.“

”हाँ, तब तुम गहरी नींद में थीं.“

”तुम नहीं गए ?“

”तुम्हें अकेला छोड़ कर ?“

उसकी इच्छा होती है कि वह जोर से हँस पड़े और निखिल से कहे कि वह तो उसे कभी का अकेला छोड़ कर जा चुका है, पर कहती कुछ नहीं. निखिल के साथ अकेले रह जाने पर उसे घबराहट सी महसूस होने लगती है, जिसे छुपाने के लिए वह चुपचाप उठ कर बाथरूम चली जाती है.

मुँह धोकर वह स्वयं को कुछ तरो ताजा महसूस करती है. वह हल्का सा मेकअप लगाती है और लौट आती है. इस बार वह बैड पर नहीं लेटती, बल्कि वहीं रखी एक कुर्सी पर बैठ जाती है. उसे स्वयं ही विश्वास करना कठिन हो जाता है कि सुबह ही उसे तेज बुखार था.

निखिल उसे ही देख रहा है.

”ऐसे क्या देख रहे हो ?“ वह पूछती है.

निखिल झेंप जाता है, पर कहता कुछ नहीं.

वह खिड़की से बाहर देखने लगती है. कल रात चाँदनी इसी खिड़की से होती हुई फर्श तक चली आई थी. सर्द हवा में चिनार के पत्ते डोल रहे थे और दूर तक एक भी परिन्दा नजर नहीं आ रहा था..... सिर्फ खामोशी बोल रही थी, जिसे सिर्फ वह सुन पा रही थी.......

सहसा वह चैंक जाती है. उसे अपने हाथ पर निखिल का चिर परिचित स्पर्श महसूस होता है.

”क्या बात है निखिल ?“ वह निखिल की ओर घमूती है, जो उसे अब भी लगातार देखे जा रहा है.

”कुछ कहोगे नहीं ?“ वह चाह कर भी अपना हाथ अलग नहीं कर पाती.

”सच अनु, मैंने तुम्हें बहुत दुःख पहुँचाया है.“ निखिल की गीली आवाज उस तक आती है.

”..........“

”तुम कहती कुछ नहीं, पर मैं तुम्हारे दुःख को पढ़ सकता हूँ.

इस बार वह अपना हाथ खींच लेती है.

”पता नहीं तब मुझे क्या हो गया था कि........“

अनु अपनी निगाहें चुरा लेती है, लेकिन उसका सारा शरीर कान बन चुका है.

”तुमसे अलग होकर ही जाना कि तुम मेरे लिए कितनी जरूरी थी.“

”जरूरी ?“ कठिनाई से वह इतना ही बोल पाती है.

”नहीं..... यह शायद बहुत ही घटिया शब्द है. तुम सिर्फ जरूरी नहीं थी, बल्कि मेरा ही एक हिस्सा थीं, जिसे मैंने महसूस करना बन्द कर दिया था...... जैसे साँसों का आना जाना महसूस नहीं होता, पर उनके बिना आप जी भी नहीं सकते........“

वह उड़ती सी निगाहें निखिल के चेहरे पर ठिठक जाती हंै, ”अब यह सब कहने का क्या फायदा निखिल !“

”शायद फिर यह सब कहने का मौका न मिले...... मैं अपना शहर छोड़ रहा हूँ अनु, हमेशा हमेशा के लिए. यहाँ से लौटते ही मैं कोलकाता चला जाऊँगा, वहाँ एक अच्छी आॅफर है.“

”मेरे कारण जा रहे हो ?“

”नहीं, अपने कारण से...... अपने शहर में रहूँगा तो बीता हुआ कल हमेशा परछाँई सा साथ लगा रहेगा..... दूसरे अनजान शहर में शायद ऐसा न हो !“ निखिल की आवाज का गीलापन अभी गया नहीं है.

”स्मृतियों के लिए समय और दूरियाँ अड़चन नहीं बना करतीं.“

”मैं जानता हूँ, पर फिर भी मेरा दूर चले जाना ही बेहतर होगा. मेरे लिए भी और शायद तुम्हारे लिए भी. आउट आॅफ साइट, आउट आॅफ माइंड.“

वह अवाक् निखिल को देखती रहती है. इतना निरीह तो वह इससे पहले कभी नहीं लगा ! क्या यह वही निखिल है, उसका निखिल ? उसके मन में कुछ किरिच किरिच बिखर जाता है.

उसकी इच्छा होती है कि निखिल इसी समय वहाँ से उठ कर चला जाए. वह अच्छी तरह जानती है कि निखिल झूठ बोल रहा है...... यह नहीं कि वह शहर छोड़ रहा है, बल्कि यह कि वह जिन कारणों से शहर छोड़ रहा है, उनमें वह भी शामिल है. शहर छोड़ने के निर्णय में उसकी पत्नी अपर्णा की अवश्य ही महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी. यदि वह कहता कि अपर्णा नहीं चाहती कि वे दोनों अब यहाँ रहें, तो क्या वह उन्हें जाने से रोक सकती थी ? निखिल को झूठ बोलने की आवश्यकता क्या थी ?

”तुम्हें मेरी चिन्ता कब से होने लगी ?“ उसके मन में खीज उभर आती है, जिसे छुपाने के लिए वह उठ कर खिड़की पर चली आती है. बाहर शाम का उजास अंधेरे में बदलने लगा है. पहाड़ों पर शाम वैसे भी छोटी हुआ करती हैं. कब रात का अंधेरा शाम को अपने आगोश में दबा लेगा, यह बता पाना मुश्किल हुआ करता है...... पर उसे लगता है कि आज यह रात का अंधेरा नहीं है, बल्कि दिन का उजाला ही काला पड़ता जा रहा है.

निखिल भी उसके पास आ खड़ा होता है, ”चिन्ता कब नहीं थी ! बस, बीच में कुछ दिन भटक गया था.“