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केशवदास की भाषा

केशव एक अनूठा भाषा संसार बनाते हैं
आचार्य केशव दास जी की भाषा पर बात करते समय अनेक अनेक पहलुओं पर गौर करना आवश्यक है। केशव केवल एक साधारण कवि नहीं थे वे तो परंपराओं के सेतु थे, एक युग के प्रतिनिधि थे और हिंदी के आरंभिक स्वरूप के सही निर्मित में से एक थे ।
राजाश्रयी कवियों की एक बहुत बड़ी कमजोरी यह होती थी कि वह उसे औपचारिक माहौल में घिरे होते थे, जहां जन भाषा का प्रवेश निषेध होता था। लेकिन केशव की कविता में व्यर्थ का दिखावा और मात्रा सीमित समाज संभ्रांत समाज में व्यवहार्थ भाषा नहीं मिलती। उनकी भाषा में लोक प्रचलित शब्द और मुहावरे अपनी पूरी खनक के साथ भी आते हैं ।
मध्यकालीन युग में ब्रजभाषा ही काव्य भाषा के रूप में स्वीकार थी यह तथ्य हम सब भली प्रकार जानते हैं ।इस कारण केशव की कविता में ब्रजभाषा का अच्छा खासा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वे वैसे घराने में से आए थे जहां की नौकर चाकर भी संस्कृत में संभाषण करते थे। केशव का एक दोहा है-
भाषा बोलने जानहिं जिनके कुल के दास!
तेहि भाषा कविता करी जड़मति केशव!!
तो केशव उसे महल दुमहले से नीचे उतरने वाले पहले व्यक्ति थे। वह भाषा के स्तर पर लोक के समय पहुंचने की लालसा अपने मन में बसाए थे । मनोवैज्ञानिकों और आलोचकों का इस बारे में अपना सुचिन्तित निष्कर्ष हो सकता है कि वह हिंदी की ओर अर्थात भाषा की ओर कैसे मुड़ गए ?वह कौन से तथ्य थे कौन से आकर्षण थे , जिनकी वजह से केशव ने संस्कृत की बजाय भाषा में कविता करना तय किया ?
क्योंकि आज यह विषय नहीं है चर्चा का, इस कारण बात हम सिर्फ भाषा की करेंगे !
तमाम विद्वान मौजूद है जिनके समक्ष मेरे जैसे अल्प ज्ञानी और नए लेखक की बातों में बड़बोला अपन दिख सकता है, पर बात आगे बढ़े इसके लिए जब मुझे दाएं दी गई है तो मैं अपनी दाईं संक्षेप में निभाऊंगा ही!
जैसी कि हम लोग चर्चा कर रहे थे, संस्कृत से भाषा में आने वाले आरंभिक कवियों में से एक होने के कारण केशव की भाषा न तो पूरी संस्कृत बची थी और न ही पूरी भाषा यानी हिंदी या ब्रज को ग्रहण कर पाए थे!
केशव की भाषा संस्कृत मिश्रित तत्सम बहुल भाषा थी, उनकी कुछ कविता तो ऐसे डर से लगते हैं जैसे संस्कृत को ज्यों का त्यों उतार दिया गया हो, इस तत्सम बहुलता को हम केशव के बाहरी संकोच का परिणाम भी कह सकते हैं और भाषा के स्तर पर सामने कोई परिमार्जित स्वरूप न होने के कारण अपनी एक अनूठी भाषा का रचना संसार भी कह सकते हैं ।
इस तरह केशव संस्कृति और भाषा कवियों के बीच एक सेतु का काम करते हैं यानी कि यहां से भाषा की कविताएं शुरू होती है और यहीं आकर संस्कृत की कविताएं खत्म होती है।
मैं कहानी का आदमी हूं और मैंने यह देखा है कि जब हम लोक भाषा को अंगीकार करते हैं तो संज्ञा और कुछ विशिष्ट क्रिया विशेषण ज्यों का त्यों स्वीकार क रते हैं!
केशव की भाषा में ब्रजभाषा की क्रिया विशेषण ज्यों का त्यों आते हैं-
केशव हैहय राज को मांस हलाहल कौरन खाई लियो रे
खीर खड़ानन को मद केशव सो पल में कर पान दियो रे!
उनकी भाषा लगातार एक सी नहीं रही है, जो उनके नए ग्रंथ या नई कविता सामने आई गई , वे एसएलआर से सरल होते गए!
उनके बाद के ग्रंथ उतने दुरूह नहीं लगते जितने शुरुआती ग्रंथ हैं ! केशव की भाषा की एक अनूठी छटा है, एक अलग आकर्षण है, एक अलग अलग प्रभाव है और एक अलग काव्यशास्त्र है, जिस पर विद्वान विस्तार से प्रकाश डालेंगे!