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मुन्नू मोहित हो गया


मुन्नू मोहित हो गया

नाटक

मुख्य पात्र

राधेश्याम : एक किसान
घनश्याम : एक किसान
मुन्नू उर्फ मोहित : राधेश्याम का पुत्र
लल्लू उर्फ आचार्य सुयोधन : घनश्याम का पुत्र
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राधेश्याम का घर
राधेश्याम की बैठक, जिसके बाएं ओर के कपाट से घर के बाहर का रास्ता है और दाएं कपाट से घर के भीतर का कमरे के बीच में एक पलंग पड़ा है और दो मूढ़े पलंग की दोनों ओर तथा एक हुक्का उनके बीच में रखा है जो पीने के लिए एकदम तैयार रखा है।
राधेश्याम का प्रवेश। एक लगभग पचास वर्ष का अधेड़ व्यक्ति जो धोती कुर्ता पहने हुए हैं और सिर पर पगड़ी बांधी हुई है। थका हारा सा आता है और आकर एक मूढ़े पर बैठ जाता है किसी गहरे सोच–विचार में। हुक्के में एक दम मारता है और रुक जाता है। ऐसा लगता है मानो कोई दुख उसे रह रहकर परेशान कर रहा हो। कुछ सोचकर मूढ़े से उठता है और पलंग के नीचे रखी एक टोकरी को निकलता है और उसको लेकर नीचे ही बैठ जाता है।
उस टोकरी से एक-एक करके घंटी, नाथ/नाद, जेबड़ा (पशु को बांधने वाली रस्सी) आदि निकलता है और गहरी सोच में डूब जाता है ऐसा लगता है आंखों से आंसू अब टपके के अब टपके अचानक एक ध्वनि सुनाई देती है।
घनश्याम : (बाहर से) राधेश्याम! अरे ओ राधेश्याम!

(घनश्याम राधेश्याम का हमउम्र और उसके बचपन का दोस्त है।)

राधेश्याम : (स्वयं को संभालते हुए) यहीं हूं। क्यों इतना चिल्ला रहे हो भाई आ जाओ।
(राधेश्याम अपने सारे दुखों को ऐसे समेट लेता है जैसे कोई कछुआ अपने शरीर को अपने कवच के अंदर समेट लेता है)
(घनश्याम का प्रवेश। वेशभूषा लगभग राधेश्याम जैसी ही है।)

घनश्याम : आएंगे क्यों नहीं भाई, सौ बार आएंगे।
(घनश्याम उत्साह में आता है।)
राधेश्याम : (हँसकर) अरे हां बिल्कुल तुम्हारा ही तो घर है भाई। चलो आओ बैठ तो लो।
घनश्याम : नहीं नहीं, हमें पहले अपने मुन्नू के दर्शन करने हैं। सुना है कोई फिंजीनियर–इंजीनियर बन गया है। कहां है? हमें दिखाओ तो (अन्दर की तरफ दौड़ने लगता है।)
राधेश्याम : (हँसकर) अरे हां भाई तुम्हारा मन्नू इंजीनियर बन गया है। परंतु गुरुदेव वह घर पर नहीं है, बाहर गया है।
घनश्याम : अच्छा! (हुक्के की तरफ दौड़ते हुए) तो कोई बात नहीं हम प्रतीक्षा कर लेंगे। तब तक हुक्का पिएंगे आराम से, आओ बैठो।
राधेश्याम : (बैठते हुए) घनश्याम तुम हमेशा से ही अति उत्साहित क्यों हो जाते हो?
घनश्याम : अरे! क्यों ना हो हम उत्साहित (गर्व के साथ) हमारा प्रिय बेटा जो आ रहा है आज पन्द्रह वर्ष हो गए हैं छोटा–सा था जब गया था। तुम्हें स्मरण है जब वह मुझे कहता था काका बड़ा हो जाऊंगा तो हवाई–जहाज में घुमाऊंगा आपका शेर बेटा हूं ना। अब तो वह बड़ा हो गया होगा ना राधे?
राधेश्याम : हां घनश्याम तुम्हारा मुन्नू अब बहुत बड़ा हो गया है......बहुत बड़ा (किसी गहरी सोच में डूब जाता है।)

(मुन्नू का प्रवेश हाथ जोड़कर अभिवादन करता है। मुन्नू जो बचपन से ही शहर के सबसे बढ़िया विद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से पंचकुला में रह रहा था तथा वहीं से कॉलेज समाप्त कर इंजीनियर हो गया है। जो कल शाम ही पन्द्रह वर्ष बाद लौटा है।)

मुन्नू : नमस्ते अंकल

घनश्याम : (विस्मयपूर्वक देखता है) राधे, यह लग तो हमारे मुन्नू जैसा ही रहा है पर भाई मुन्नू है नहीं यह। कोई भी हो पर मुन्नू तो नहीं है।
राधे : (हँसकर) यह तुम्हारा मुन्नू ही है।
घन : अच्छा! (प्रसन्न होकर) ओ मुन्नू तू तो एकदम अंग्रेज बाबू लग रहा है सच्ची।
मुन्नू : (चिढ़कर) अंकल मेरा नाम मोहित है, मुन्नू नहीं।
घन : (हँसी में) अच्छा बेटा मतलब अब तुम वह फिंजीनियर अरे नहीं वह...... हां इंजीनियर बन गए हो तो हम तुम्हें मुन्नू ना कहे। (अधिकार से) हम तो कहेंगे (चिढ़ाते हुए) अरे ओ मुन्नू, मुन्नू। (सभी हँसते है।)
मुन्नू : (कुछ देर रुककर) पापा! घर में कोई आया था क्या?
राधे : हां। मुंडासे वाले आए थे। मैंने वापस भेज दिए।
मुन्नू : (क्रोधित होकर) क्यों?
राधे : यही प्रश्न मैं तुमसे पूछता हूं कि क्यों?
घन : अरे क्या क्यों–क्यों कर रहे हो? मुझे भी तो बताओ। मुझे बात नहीं रहे हो, क्यों?
मुन्नू : अंकल आप चुपचाप बैठे रहो नहीं तो गेट खुला है, आप जा सकते हो।
राधे : नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे यहीं बैठे रहो।

(घनश्याम सहमा–सा बैठ गया। उसकी कुछ भी तो समझ नहीं आ रहा था परंतु वह फिर भी बैठा रहा, चुपचाप।)

राधे : तुम्हारा विवेक खो गया है बेटा। क्या सही है, क्या गलत है इसका भेद तुम नहीं कर पा रहे हो।
मुन्नू : (बेबसी में) क्या यार पापा दुनिया बदल रही है। दुनिया के साथ चलो।
राधे : क्यों चलूं? क्या तुम्हें पता है दुनिया जो कर रही है, जिस दिशा में जा रही है वह सही है या गलत। और अगर जैसा तुम चाह रहे हो ऐसा करके ही दुनिया के साथ चलना है तो नहीं चलना मुझे ऐसी दुनिया के साथ, नहीं चाहिए मुझे ऐसी दुनिया जिसका दया, प्रेम, स्नेह आदि से दूर-दूर तक का नाता न हो।
मुन्नू : इसमें दिक्कत ही क्या है? वह बैल बूढ़ा हो गया है उसे बेच देना ही सही है।
राधे : (किसी गहरे भाव के साथ उसके मुंह को देखता है।) बूढ़ा तो मैं भी हो जाऊंगा। क्या मुझे भी घर से निकाल दोगे? (लाचार–सा होकर)
मुन्नू : ऐसा नहीं है पापा। कब तक आप गौबर उठाते रहोगे? कब तक आप उस बैल के गौबर की बदबू में सड़ते रहोगे? फिर अब तो वह किसी काम भी नहीं रहा है।
राधे : (कटाक्ष की हँसी हँसता है) गौबर, तुम उसी गौबर की बात कर रहे हो जिस गौबर के उबलो से सिकी रोटी खाकर तेरा बचपन बीता है। तुम उसी गौबर की बात कर रहे हो जिस गौबर के उबलो से सिकी रोटी खाकर तेरा बाप पूरा-पूरा दिन खेत में मेहनत करने योग्य बना। तुम उसी गौबर की बात कर रहे हो जिसके उबलों की रख तेरी मां तेरी बाजुओं में बांध देती थी ताकि तुझे कोई बुरा साया ना पकड़ ले। बेटा मुझे दुख तो इस बात का है कि तुझे अच्छा मनुष्य बना सकूं मैंने अपने पूरे जीवन की पूंजी यह सोचकर तुझ पर लगा दी परंतु मैं असफल रहा, बिल्कुल असफल.....
मुन्नू : Hey man, you shut up. बंद करो इस रोने–धोने को कोई कितना ही समझा ले आपकी समझ में कुछ नहीं आएगा। तुम सड़ो इस गंदगी में ही।

(बाहर जाने को बढ़ता है तभी बाहर से शब्द सुनाई देते है।)

लल्लू : हू कि हू हम अपने पिताजी को ढूंढ रहे हैं। हू कि हू परन्तु हमारे पिताजी हमें कहीं नहीं मिल रहे हैं।

(बाहर से लल्लू नाचता–गाता प्रवेश करता है। राधेश्याम जी बैठ जाते है, मोहित खड़ा रहता है।)

लल्लू : अरे! यह तो यहां बैठे हैं हम पूरे गांव का चक्कर काट–काटकर थके जा रहे हैं। हम भी निरीह पागल है।

(लल्लू आकर अभिवादन करता है तथा राधेश्याम व घनश्याम के चरण स्पर्श करता है।)

लल्लू : (राधेश्याम से) हमें नहीं पहचाना ताऊजी? हम लल्लू है वैसे हमारा नाम आचार्य सुयोधन जी है। परन्तु आप हमें लल्लू ही पुकारे तो अच्छा लगेगा। (घनश्याम जी चुप रहने संकेत करते है परन्तु तब तक लल्लू मोहित की ओर मुड़ चुका था।)
लल्लू : अगर हमारी आंखें हमारे साथ विश्वासघात नहीं कर रही है तो आप मुन्नू भैया है। विश्वास घात कर ही नहीं सकती हमारी आंखें क्योंकि हमारी आंखें जो है। वैसे मुन्नू भैया आप बहुत सुंदर हो गए हैं हम तो कहते थे हमारे मुन्नू भैया से सुंदर कोई है ही नहीं। परंतु मुन्नू भैया आपने यह अंग्रेजी वस्त्र क्यों पहने हैं यह हमें बिल्कुल अच्छे नहीं लग रहे। इसमें आप हमें ऐसे लग रहे हैं जैसे कीचड़ से सोना लपेट दिया हो नहीं तो हमारी तरह.....
मुन्नू : (क्रोधित होकर) सबसे पहले तो हमारा नाम मुन्नू नहीं है मोहित है और फिर तुम होते कौन हो हमें यह बताने वाले की हम क्या पहने, क्या नहीं। हमारी इच्छा है हम यह पहने या यह पहने and now you shut up.....
लल्लू : you shut up! (क्रोध में) i can also speak in English very well but I am not an English man like you. (ठण्डा होकर) भैया आप अपने स्वभाव में परिवर्तन को क्या पहचान पा रहे हैं। आप कैसी बातें कर रहे हो क्या समझ पा रहे है। ताऊ जी ने तो यह संस्कार नहीं दिए तुम्हें फिर क्या शहर के सबसे बड़े अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में ताऊजी ने यही संस्कार सीखने के लिए भेजा था। मुख्य बात भैया धन अर्जित करना नहीं अपने संस्कारों को अर्जित कर उन्हें अपनाकर अपनी आने वाली पीढ़ी को सीख स्वरूप बांट देना है। हमारा मुख्य उद्देश्य केवल धन ही कमाना नहीं अपितु अपने संस्कारों को साथ लेकर भी आगे बढ़ना है। और मैं होता कौन हूं, मैं.. मैं वही हीरा हूं जिसकी पूरा गांव भर्त्सना करता था तो तुम कहते थे क्यों रोता है तू तो मेरा हीरा है, हीरा। तू देखना जो लोग तेरी भर्त्सना करते हैं ना एक दिन वही लोग तेरे सामने नतमस्तक होंगे।
और आप क्या समझते हैं मैं कुछ नहीं जानता मैं सब जानता हूं जो–जो बर्ताव आपने मेरे पिताजी और ताऊ जी के साथ किया। और किस बैल को बेचने की बात करते हो भैया, उस बैल को जिसने अपने हिस्से के अपनी मां के दूध को तुम्हारे लिए छोड़ दिया ताकि तुम्हारा पेट भर सके। किस बैल की बात कर रहे हो जिसने तुम्हें किसी भी दौड़ में हारने नहीं दिया हमेशा अव्वल आता था जब हम बालक थे और वह बछड़ा था। उस बैल की बात कर रहे हो जिसने अपनी पूरी जवानी ताऊजी के साथ न धूप देखी, न छांव, न सर्दी, न वर्षा पूरा-पूरा दिन खेतों में बिता दी ताकि तुम्हारी पढ़ाई के लिए धन एकत्रित हो सके और तुम अच्छे से पढ़ सको। वह अकेला बैल ही दो बैलों के बराबर कार्य करता था। और ताऊजी वह मनुष्य जिसने अपना पूरा जीवन केवल इसी आस में काट दिया कि मेरा बेटा बड़ा आदमी बन जाए ताकि मेरे बुढ़ापे में मेरी अच्छे से सेवा कर सके। मेरा बेटा अच्छा मनुष्य बन जाए ताकि मैं अपना बुढ़ापा गर्व के साथ जी सकूं। तो क्या इसी सेवा की आस की थी भैया ताऊजी ने। शट अप मैन बोलकर ताऊजी को तो आप चुप कर सकते हो पर मुझे नहीं भैया। धिक्कार है तुम पर और धिक्कार है ऐसी शिक्षा पर जो हमें हमारे संस्कारों से ही वंचित कर दे।

(मुन्नू चुपचाप वहां से अंदर की ओर जाता है और कुछ देर में ही बैग लेकर बाहर की ओर जाने लगता है)

लल्लू : कहां जाते हो भैया? क्या मुझे सुनने का साहस नहीं रहा या फिर इतना सामर्थ्य नहीं रहा?
मुन्नू : छोड़ो मुझे लल्लू (दु:ख और क्रोध के मिश्रण भाव से जैसे किसी अज्ञात दुविधा में हो)
‌ (लल्लू छोड़ देता है)

लल्लू : ठीक है भैया। परन्तु मेरी बातों पर विचार अवश्य करना।

( मुन्नू चला जाता है राधेश्याम और घनश्याम चुपचाप बैठे हैं दु:ख और दुःख से लिप्त विचारों का समुद्र जो उनके हृदय में उठ रहा है वह उनके चेहरे पर रह–रहकर अठखेलियां करता स्पष्ट दिख रहा है)

राधेश्याम : घनश्याम मैं हार गया, मैं हार गया। (अत्यंत दुःखी मन से)

(लल्लू उसके पास जाता है तथा राधेश्याम उसको बड़ी तत्परता से अपनी बाहों में भर लेता है।)

राधेश्याम : तुझे याद है घनश्याम जब मैंने कहा था कि अपने बच्चों को शिक्षित कर दो संस्कार तो स्वयं आ जाएंगे और तूने इस पर असहमति जताते हुए कहा था कि राधे आज की यह तथाकथित शिक्षा जो इन आधुनिक विद्यालयों में मिल रही है इस भौतिक शिक्षा से तो बच्चा केवल समाज में आर्थिक रूप से आगे बढ़ना सीखता है परन्तु जीवन का उद्देश्य केवल अर्थ/धन कमाना ही तो नहीं है। यह पढ़ाते–पढ़ाते कि धन अधिक–से–अधिक कैसे अर्जित किया जाए इन आधुनिक विद्यालयों में शिक्षक यह पढ़ाना भूल गए कि विद्या और संस्कारो को ग्रहण कर उन्हें अपने जीवन में धारण कैसे किया जाए। जितने भी इन विद्यालयों से निकलकर यह तथाकथित पढ़े–लिखे घूम रहे इनमें अधिकतर तो व्यवहारशुन्य है फिर क्या लाभ ऐसी शिक्षा का। बच्चों को संस्कारों की शिक्षा देना भी इतना ही आवश्यक है जितना यह भौतिक शिक्षा।
इसी सोच के चलते तूमने हमारे लल्लू को गुरुकुल में प्रवेश दिलाया था और मैंने शहर के सबसे बढ़िया अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में और इसका परिणाम यह निकला कि मेरा मुन्नू मोहित हो गया, घनश्याम हमारा मन्नू मोहित हो गया.....(रोने लगता है)

(अचानक कपाट पर किसी के आने की आहट होती है। तीनों देखते हैं तो रोहित खड़ा है। उसके मुख पर हल्का–सा प्रकाश पड़ रहा है जिसके कारण पश्चाताप के भाव मुख पर स्पष्ट दिख रहे हैं।)

मुन्नू : पिताजी ..... (आंखों से आंसुओं का झरना बह पड़ता है।)

(पर्दा गिरता है)
🖋️रोशा