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घर का ठूठ

घर का ठूठ -

घर का ठूठ कहानी कहानीकार के अंतर्मन से उठती संवेदनाओं का साक्षात है संबंधों का मिलना बिछड़ना उनके साथ बिताए जीवन के सुख दुःख के पल प्रहर कि वेदना कहती है घर का ठूंठ ।

कहानी धर्म, जाति, संप्रदाय से इतर मानवीय मूल्यों को ही जीवन का यथार्थ बताती है।

कहानी के मुख्य पात्र है चन्नी ,मलकिता, वन्तो ,इंदर के इर्द गिर्द घूमती है ।

कहानी चन्नी के वर्तमान में अतीत कि यादों के आईने में सिक्के के दो पहलुओं कि तरह समाज संबंधों कि दिशा दृष्टिकोण एवं परिणाम का जीता जागता दस्तावेज जो आज भी प्रासंगिक है।

कहानी का आरम्भ ही संबंधों कि संवेदनाओं से होता है जब चन्नी के गले में बांहे डाल कर किरन और शरन दादी चन्नी से चलो ना दादी अमेरिका इंग्लैंड तो हिंदुस्तान के गांव कि तरह है ।

पोतियों से इस बात को सुनते ही चन्नी को अपने घर के लान में खड़े ठूठ के पेड़ पर नज़र जाती है जो कभी हरा भरा रहा होगा अब ठूठ जब हरा भरा रहा होगा तब हर वसंत पतझड़ नए कोपल फूल सावन में हरा भरा और पवन के झोंको में उसकी डालियां इधर उधर मचलती होंगी जो कितनो को आश्रय और सुख शांति प्रदान करती होंगी अब वह ठूठ जिस पर पत्ते नहीं है जो लगभग सुख चुका है और सिर्फ इस इंतजार में खड़ा है कि जाने कब उसे अपने अस्तित्व के सुंदर इतिहास से उखड़ना होगा अस्तित्व विहीन अतीत बनाना होगा।
चन्नी को भी जीवन कि यात्रा अपने लान में लगे ठूठ पेड़ कि तरह लगती है जो कभी खुशियों से भरी बगिया थी जिसे अनेकों तूफ़ानों ,झांझावतो,परिवेश ,
परिस्थितियों के समक्ष अपनी तमाम खुशियों सम्बन्धों का त्याग विवशता में करना नियत तो कभी भटकना नियत।

लियालपुर जहा चन्नी का जन्म हुआ था और बचपन बिता था गांव के बरगद के पेड़ के नीचे गुट्टे खेलना छलांगे मारना गांव में आपसी प्रेम सौहार्द के कपट विहीन रिश्ते चिन्नी को बचपन से संस्कार में मिले थे ।

गांव के कुंए का मीठा पानी,गांव के रिश्तों फूफी ,मामू ,भाई ,ताऊ का निष्पाप प्रेम चन्नी को बचपन से गांव समाज मां बाप द्वारा मिली विरासत थी ।

लियालपुर पंजाब के सीमांत गांवों में था चन्नी इसी गांव के कुलविंदर सिंह कि इकलौती बेटी थी राजकुमारियों कि तरह बचपन बिता जवान हुई मलकीता से विवाह होता है जो स्वयं अच्छा खासा किसान रहता है।

भारत कि आजादी के समय धर्म के नाम पर देश का भी बंटवारा होता है और धार्मिक उन्माद में मनाव इस प्रकार पागल हैवान हो जाता है कि एक दूसरे के खून से मिट्टी लाल हो जाती है ।

सारे रिश्ते नाते भवो कि मर्यादा विखर जाती है और रिश्तों का समाज लाशों का व्यवसाई बन जाता है इसी बँटवारे कि हैवानियत कि भेंट लियावलपुर चढ़ जाता है ।

चन्नी के बचपन कि विरासत गांव कि संस्कृति समाज सब कुछ समाप्त हो जाता है चन्नी मलकिते और वन्तो इंदर दिल्ली शरणार्थी शिविर में आते है ।

लाखो शर्णार्थियो के बीच रोटी के लिए बेटे मलकिते को कतार में घंटों खड़ा होना वन्तो को बहुत नागवार गुजरता है क्योंकि गांव में अच्छा खासा रुतबा हाथ हमेशा वाहे गुरु के सामने दुआ में उठते थे या जरूरत मंद को कुछ देने के लिए ।

वन्तो बेटे मलकिते को इंग्लैंड चलने को कहती है यहां महत्पूर्ण यह है कि जिनकी गुलामी से मुल्क आजाद हुआ फिर उन्ही के मुल्क नई उम्मीद कि किरण दिखती है वन्तो को मुल्क के आजाद होने के बाद बंटवारे कि हैवानियत ने उसे एवं उसकी संवेदनाओं जर्जर कर दिया जिसके कारण वह गुलामी के दौर का अपना गांव लियालपुर खोजने कि मंशा ही वन्तो को प्रेरित करती है इंग्लैंड जाने के लिए जिसके लिए उसका अंतर्मन पुकारता है।

सरदार हुकुम सिंह जो अपने इलाके में शेरो सा रुतबा रखते और लड़ाई के मैदान में भी शेरो सा लड़ा गांव कि चौपालों में जिसकी बहादुरी के किस्से सुनाए जाते जिसकी शान में गीत गाए जाते उस चौधरी हुकुम सिंह कि बीबी अपने बेटे से उस मुल्क चलने के लिए कैसे कहे जिससे आजाद होने के लिए जाने कितनी कुर्बानी देनी पड़ी और जिसका नज़ीर वह एवं उसका परिवार शरणार्थी के रूप में स्वयं है।

अंतर्मन के द्वंद से बाहर निकलते हुए बहुत हिम्मत से वन्तो मालकिते को इंग्लैंड चलने कि बात कहती है मां की बात सुन मलकिता हतप्रद रह जाता है
यहां वंटो का संवाद - क्या फर्क पड़ता है सारे धरती आसमान उसी परमेश्वर के बनाए हुए है।
मां के आदेश से मलकिता इंग्लैंड के मैनचेस्टर शहर माँ वन्तो ,चन्नी ,इंदर के पहुंच जाता है ।
कहानी में मोड़ आता है चन्नी और मलकिता इंग्लैंड में अपनी दुनिया बसाने के लिए संघर्ष करते है।
इंदर चन्नी के देवर का बेटा चूंकि चन्नी को कोई बेटा नहीं होता है जिसकी भरपाई वह इंदर से करती है और मलकिते एवं चन्नी दोनों इंदर को अपनी औलाद जैसा ही मानते है चन्नी इंदर को बहुत प्यार विलकुल मां जैसी करती है इंदर भी चन्नी को मां ही समझता है बड़े होने पर वह औलाद से ज्यादा संवेदनशील और जिम्मेदार होता है चन्नी और मलकिते के लिए।

मलकीते का संघर्ष रंग लाता है और वह इंग्लैंड के संभ्रांत सम्पन्न लोगों में शुमार हो जाता है।
पुनः मलकिते कि मुलाकात खान से होती है को उसी के गांव

लियालपुर के रहने वाले है खान साहब से मलकीत में अच्छी खासी दोस्ती हो जाती है और दोनों मिलकर एक पुरानी कपड़े कि मिल खरीद लेते है और अपने मेहनत से उसमे जान डाल देते है मिल कपड़े के थानों कि शक्ल में पौंड उगलने लगती है पैसे रुतबे की कोई कमी नहीं रहती है चन्नी को सब सुख चाहत मील जाती है मगर बंटवारे के दंश से विछड़ी मातृ भूमि नहीं भूल पाती और सदैव उसकी यादों में को जीवंत रखती यही आलम मलकिते का भी है वह धर्मशाला ,अस्पताल ,अनाथालय अनेकों जन सेवा के कार्य करता जा रहा था पैसे कि कोई कमी थी नहीं और उसका हाथ रोकने वाला भी नहीं था।

चन्नी को अपनी जीवन की यात्रा लान में लगे ठूठ पेड़ कि तरह प्रतीत होती जो कभी एक छोटे से बीज से बौधा फिर वृक्ष बन मौसम समय कि मार सहता अपने जंवा हरे भरे दिनों में लोगों को अपनी छाया फल फूल से खुशियां बांटी होंगी मगर अब ठूठ जिस पर कोई ध्यान नहीं देता सिर्फ इस इंतजार में खड़ा है कि कब एक तूफ़ान उसके वजूद को इतिहास बना दे ।

कहानीकार आदरणीया शैल अग्रवाल जी ने इस कहानी जो सम्भव हो सत्य घटनाओं का चित्रण हो के माध्यम से मानवीय मूल्यों कि संवेदना को प्रत्यक्ष प्रवाहित करने का प्रयास किया है।

मातृ भूमि कि माटी से हर सांसों धड़कन का संबंध तो मातृभूमि से से बिछड़ने कि त्रदसी धर्म का दनवीय स्वरूप और पुनःजीवन कि दुश्वारियां उनमें संबंधों कि मार्यादा सहिष्णुता एक दूसरे के लिए जीने मरने के भाव चन्नी मलकिते वन्तो ,इंदर के चरित्रों ने आज के समय में समाज को सशक्त संदेश दिया है।

धार्मिक उन्माद और बँटवारे का दर्द दंश फिर खान का मिलना धार्मिक उन्माद के दंश पर मरहम है शिक्षित एवं सभ्य समाज में नए मानवीय मुल्यों के जन्म लेते समाज के विश्व कि कल्पना की परिकलपना है।

निश्चित रूप से कहानीकार कहानी के माध्यम से अपने वैचारिक उद्देश्यों के सकारत्मक प्रवाह करने में सक्षम हुई है।

यह कहानी निश्चित रूप से विश्ववन्धुत्व एक ब्रह्म ब्रह्माण्ड कि सकारात्मकता को निरूपित करने में सफल है।

कहानी कहीं ना कहीं कहानीकार कि स्वयं कि सोच संवेदनाओं का भी प्रतिनिधित्व करती है।

कहानी का एक पक्ष जिसे कमजोर कहा जा सकता है कि जिस गुलामी से मुक्ति के लिए जाने कितनी कुर्बानियां हुई सौ वर्षों का निरंतर संघर्ष आजादी के बाद बँटवारे का दंश जो देन भी गुलामी के सिद्धांतो कि थी और वन्तो जो एक जाबांज सैनिक की पत्नी थी अपने बेटे को सिर्फ रोटी के लिए कतार में खड़ा देख द्रवित होना और इंग्लैंड जाने का फैसला है ।

जो सिर्फ जीवन को सुख सुविधाओं को प्राथमिकता देता है क्योंकि वन्तो बँटवारे से पहले संपन्न चौधरी घराने कि है जिनके यहां फरियादी आते है अब बेटे का कतार में खाड़ा होना उसी मानसिकता पर प्रहार कर जागृत करता है जो मुक्त हुए गुलामी परम्परा में ही संघर्ष करता है।

नन्दलाल मणि त्रिपठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश