दरअसल हम आधुनिकता, धर्म, प्रगतिशीलता, धर्मनिरपेक्षता, मानवाधिकारों आदि हर बात पर घोर चयनात्मक हैं। जिस चीज से हमारी दूकान चलती है उस पर बलाघात करते हैं। परंतु जिस बात का उल्लेख मात्र करने से दूकान के बैठने
का खतरा है उसे नजरअंदाज करके आगे बढ़ जाते हैं।
जिस प्रकार की त्वरित एवं सुनियोजित हिंसक प्रतिक्रिया देखने को मिली वह भयावह और भविष्य के प्रति बहुत कुछ संदेश देने वाली है। यह बर्बर मध्ययुगीन असहिष्णु मानसिकता का प्रतीक है। मध्ययुग में हकीकत राय, गुरु अर्जुन देव, गुरु तेग बहादुर, दारा शिकोह, सरमद, आदि की हत्या एक लंबी परंपरा की कडि़यॉं हैं। यह स्पष्ट है कि चाहे छद्म धर्मनिरपेक्षता हो अथवा धार्मिक ध्रुवीकरण, इससे किसी भी समुदाय का भला नहीं होने वाला है। समय की मॉंग है कि देश के दोनों प्रमुख धार्मिक समुदायों के आपसी संबंधों का पुर्नमूल्यांकन हो और वे आपस में सद्भाव से रहे। देश की खातिर सद्भाव
परमावश्यक है अन्यथा यह दुश्मनी भावी पीढि़यों को भी अशांत और हिंसक बनाएगी। प्रश्न यह है कि आखिर यह सब कब तक चलेगा? बस भाई-भाई का नारा पर्याप्त नहीं है। संबंधों का निर्माण परिपक्वता की ठोस नींव पर हो। साफ
शब्दों में कहे तो हिन्दु-मुस्लिम संबंध राजनीतिक नेतृत्व, संकीर्ण मानसिकता वाले तत्वों और छद्म प्रगतिशीलों के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता है। क्योंकि वे बोधि वृक्ष नहीं बल्कि बोनसाई हैं। वे निहित स्वार्थ से प्रेरित भी हैं। राजनीतिक दल वोटबैंक के समीकरणों को साधने के लिए रस्साकशी करते हैं और छद्म बुद्धिजीवी सुकरातीय ख्याति के तलबगार हैं। दोनों समुदाय के आम लोग सच और वर्तमान यथार्थ को समझकर भविष्य की रूपरेखा तय करे तो देश के लिए हितकर होगा।