सपना लेकर उड़ा हुआ मैं
बादल जैसा घिरा हुआ हूँ,
झांक-झांक कर देखोगे तो
नन्हा नक्षत्र बना हुआ हूँ।
पगडण्डी पर दो पग मेरे
दृष्टि को दो नयन खुले हैं,
आसमान के खालीपन के
सारे द्वार खुले हुये हैं।
इस सन्नाटे में कुछ शेष बचा है
जो हमें घोल-घोल कर पीता है,
घूँट-घूँट कर स्नेह पिये हम
महासागर सा सब लगता है।
जीवन के कठिन तप में
कई बसंत तो आने हैं,
विधि चुरा लेगी हमको
यहाँ पतझड़ भी तो होने हैं।
* महेश रौतेला