अंतरिम मन की गहराइयों में
तुम पानी बन के रहते हो।
अंतरिम नैनों की तराइयों से
तुम पानी बन के बहते हो।
कैसे तुम सागर हो...?
मुझे भिगोये रहते हो
और खुद सूखे रह जाते हो!
तुम मुझ में हो...
पर खुद में ही नहीं आते हो।
#अंतरिम

Hindi Poem by मिन्नी शर्मा : 111435645

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