वो औरत है
अपना हर ग़म हंसते हंसते पी लेती है
परिवार को अहमियत दे कभी अहम नहीं करती है
आसमान में पंख लगा उड़ना चाहे पर
पिंजरे में सिकुड़ती है
किस्मत है कहकर सपनों को
छुपी का नाम देती है
"वो औरत है ना" कहकर
दबा दी जाती है..
वो समाज की तकलीफों से गुजरती है
प्रति पल एक अग्नि परीक्षा देती है
मर्द की मार भी सहन कर लेती है
कुछ करना चाहे तो चुप करा दी जाती है
सही है औरत है वो क्या कर पाती है
औरत को समझाना मुशकिल है
कहकर अपनी जान बचाते है
वो तो रोज सवालों मै पिस्ती है
अपना मत रखे तो टोक दी जाती है
सही है औरत है वो क्या समझती है
अब नहीं वो राम की सीता
वो झांसी की रानी है
वो नहीं सती सावित्री
वो चण्डी वो कली है
वो बरकत शोहरत लती है
क्या कहें वो देखो औरत आती है....
हर्षिता