मजदूर दिवस के अवसर पर दुनिया के मजदूरों की दशा का सिंहावलोकन होना चाहिए। श्रमिक वर्ग मानव सभ्यता की धुरी रहे हैं। चींटियों और मधुमक्खियों में भी वे निर्माता के रुप में जाने जाते हैं। मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार, अमेरिका में कोलोराडो नदी पर हूवर और नील नदी पर आस्वान बाँध से लेकर तमाम मानव निर्मित कृतियाँ मजदूरों के श्रम का परिणाम हैं। 'दुनिया के मजदूरों एक हो। तुम्हारे पास खोने के लिए अपनी जंजीरों के सिवा कुछ नहीं है' ऐसी गंभीर घोषणा और हर राजनीतिक दल के अतिशयोक्तिपूर्ण घोषणापत्रों के पश्चात भी कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान मजदूरों का असहाय अवस्था में पलायन दुर्भाग्यपूर्ण है। पूँजीवाद को मजदूरों का खून पीने वाला बताने वाले यह समझाने में असमर्थ है कि साम्यवादी व्यवस्था में लाखों-करोड़ों मजदूरों को उलजलूल सांस्कृतिक क्रांति इत्यादि के नाम पर क्यों मौत के घाट उतारा गया। क्यों साईबेरिया के ठंड़े बियाबान में उनका क्रूर नरसंहार हुआ? मजदूरों का कोई देश नहीं होता है कहने वाले यह नहीं बता पाते हैं कि भूतपूर्व सोवियत संघ और साम्यवादी चीन का सीमा विवाद के कारण सशस्त्र संघर्ष क्यों हुआ। वर्ण व्यवस्था में कामगार शूद्र थे। दोनों विश्व युद्धों में रूस और दुनिया के दूसरे देशों के भी सैनिक मजदूर ही थे। रणभूमि में मरने वाले भी वही थे। भारत में मजदूर संगठन तो हैं परंतु मजदूरों का कोई राजनीतिक दल नहीं है। न्यूनतम मजदूरी का प्रावधान है परंतु मजदूर दीन-हीन अवस्था में है। निराला की वह तोड़ती पत्थर वाली पंक्तियों का आज भी प्रासंगिक होना मजदूरों की दशा की वास्तविक दशा को दर्शाता है।
सामंतवाद और पूँजीवाद में अगर उनका शोषण हुआ तो साम्यवाद से भी उन्हें धोखा ही मिला है। मजदूरों का यदि कोई देश नहीं होता है तो वे किसी विचारधारा में बँधे रहने हेतु भी बाध्य नहीं है क्योंकि कोई एक विचारधारा उनके हक को दिलाने में समक्ष नहीं है। हमारे देश के पिछड़े राज्यों से अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों में काम के लिए जाने वाले मजदूरों के प्रति हमारी गलत धारणा काफी कुछ दर्शाती है। क्यों न विचारधारा और क्रांति का मोह त्यागकर गाँव और कस्बों का विकास कुछ इस प्रकार हो कि मजदूर भाईयों को शहरों की झुग्गियों में रहने की विवशता न सहनी पड़े। गरीबी उन्मूलन मजदूरों को हक दिलाने की दिशा में सर्वप्रमुख कदम होगा। इतिहास में कदाचित पहली बार कोरोना आपदा के कारण शहरों से गाँवों की ओर कामगारों का पलायन हुआ है। आज की अर्थव्यवस्था शायद मार्क्स के 'दास कैपिटल' के सिद्धांतों से पूर्णतया समझ में न आए। पूँजी और श्रम के आपसी संबंधों और लाभांश के वितरण पर पुर्नविचार आवश्यक है। साम्यवाद की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों का विकास मजदूरों के हित में अधिक है। शहरों की नागरिक अवसंरचना पर अनावश्यक बोझ भी समाप्त होगा।

Hindi News by Dr Jaya Shankar Shukla : 111803631

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