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मृगनयनी नारी – कलियुग की त्रासदी
मृगनयन सुन्दर,
रूप-छवि अति प्यारी।
देखते ही मन कहे —
यही है जीवन-सवारी।
पर भीतर बैठा अहंकारी,
रूप पर करे अभिमान भारी।
भूल गई वह बात पुरानी —
मनुष्य तो है सामाजिक प्राणी।
प्रेम भी बिकने लगा है,
पैसा हो तो ही टिकने लगा है।
मधुर संबंधों में कटुता आई,
भाई-भाई भी शत्रु बन जाए भाई।
पत्नी मन लगाए अपने भूतपूर्व प्रेमी से,
कैसे कहलाए वह पतिव्रता नारी से?
आजकल पुरुषों की भी प्रेयसी
फूल-सी कोमल, सुकुमारी।
तो कैसे भाए उन्हें
अपनी सुन्दर, सुशील, संस्कारी नारी?
जब से आया सोशल मीडिया का संचालन,
तब से अपराधों ने पार किया बंधन।
छिपे हुए भी पकड़े जाएं,
सूचना पल में बाहर आए।
सबसे बड़ी समस्या यह आई,
अफेयर ने मर्यादा की सीमा पाई।
पुरुष और स्त्री दोनों की चाहत भारी,
थोड़ी-सी कमी हुई
तो झगड़े की तैयारी।
पति-पत्नी में आई दूरी,
ढूंढ़ा प्रेमी, खोजी प्रिया-सी प्यारी।
यही है समय की सबसे बड़ी विडम्बना,
जहाँ विश्वास से अधिक है चाहत का गहना।
जहाँ रिश्ते टिके हैं स्क्रीन के सहारे,
दिल से दिल का मिलन हुआ है किनारे।
कलियुग की यही है त्रासदी —
सच्चा प्रेम बन गया है कहानी,
और चाहत बन गई है फैशन की निशानी।