"उसकी ख़ामोशी"
वो कुछ कहे बिना चला गया,
जैसे मेरा होना ही बेमानी था।
न शिकवा, न अलविदा,
बस एक सन्नाटा... और कहानी अधूरी रह गई।
मैं हर रोज़ खुद से लड़ती रही,
उसकी हर बात में खुद को ढूँढती रही।
पर उसने तो जैसे मुझे कभी चाहा ही नहीं,
या फिर... चाहा, मगर जताया नहीं।
उसकी आंखों में जो उदासी थी,
वो मेरी रूह में उतर गई।
और मेरी हँसी...
किसी पुराने कमरे में बंद होकर सिसकती रह गई।
अब न वो लम्हे हैं, न वो बातों का सिलसिला,
सिर्फ एक सवाल है—
क्या मैं वाक़ई कभी उसकी थी?
या बस किसी अधूरी शाम का अधूरा हिस्सा?