बस एक कदम.... ज़किया ज़ुबैरी (1) “नहीं मैं नहीं आऊंगी।” शैली को अपनी आवाज़ में भरे आत्मविश्वास पर स्वयं ही यक़ीन नहीं हो पा रहा था।... और वह ख़ामोश हो गई। टेलिफ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ छन छन कर बाहर आ रही थी, “हलो, हलो, फ़ोन बंद मत कीजिये... प्लीज़! ” “नहीं, मैं फ़ोन बन्द नहीं कर रही... मगर... मैं आऊंगी नहीं – इस दफ़ा आवाज़ में उतनी सख़्ती नहीं थी। “मगर आप तो... आपने तो वादा किया था... एक बार आने में कोई नुक़सान थोड़े ही हो जाएगा आपका।” .... शैली की सोच उसे परेशान करने लगी है।
Full Novel
बस एक कदम... - 1
बस एक कदम.... ज़किया ज़ुबैरी (1) “नहीं मैं नहीं आऊंगी।” शैली को अपनी आवाज़ में भरे आत्मविश्वास पर स्वयं यक़ीन नहीं हो पा रहा था।... और वह ख़ामोश हो गई। टेलिफ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ छन छन कर बाहर आ रही थी, “हलो, हलो, फ़ोन बंद मत कीजिये... प्लीज़! ” “नहीं, मैं फ़ोन बन्द नहीं कर रही... मगर... मैं आऊंगी नहीं – इस दफ़ा आवाज़ में उतनी सख़्ती नहीं थी। “मगर आप तो... आपने तो वादा किया था... एक बार आने में कोई नुक़सान थोड़े ही हो जाएगा आपका।” .... शैली की सोच उसे परेशान करने लगी है। ...Read More
बस एक कदम... - 2
बस एक कदम.... ज़किया ज़ुबैरी (2) साढ़े ग्यारह बजे वाली सफ़ेद रात में डर ज़रा अधिक ही समाया होता ऐसे में आहिस्ता आहिस्ता गाड़ी स्टेशन में दाख़िल हुई। गाड़ी की खिड़कियों में से रौशनी बाहर झांकती दिखाई देती और हर रौशनी के बीच से एक गोला सा नज़र आता क्योंकि यात्रियों के कंधे ट्रेन की दीवार की ओट में होते। हां ! कुछ लम्बे तड़ंगे इन्सानों के गोल सिर ऊपर को होते तो वे बेसर के भूत से बन जाते। शैली सड़क पर कार के भीतर से ही उन रौशनी के गोलों में से घनश्याम का सिर ढूंढने की ...Read More
बस एक कदम... - 3 - अंतिम भाग
बस एक कदम.... ज़किया ज़ुबैरी (3) फिर सोचती है, “शायद मैं आलसी हूं।... हां मैं हूं आलसी! ऐशो आराम आदी हो गई हूं। मां बाप ने जैसे एक मखमल के डिब्बे में संभाल कर रखा। यहां भी कालीनों पर चलने की आदत पड़ गई है। यहां इस देश में तो बाथरूम में भी कालीन बिछा रहता है। ... क्या सच में घनश्याम ने उसके लिये कुछ ऐसा किया है जिसके लिये वह उसकी जीवन भर अहसानमन्द रहे? यह सब तो ब्रिटेन में सभी के घरों में है। फिर भी इसे लेकर घनश्याम ताने मारता रहता है। पहले तो बंदिनी ...Read More