ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं

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ख़ुलूस ओ प्यार के सांचे में ढल के देखते हैं। जफ़ा की क़ैद से बाहर निकल के देखते हैं।। हम अपने आप को थोडा बदल के देखते हैं। चलो के हम भी हक़ीक़त पे चल के देखते हैं।। कई तो डरते हैं ये इश्क़ की अगन से मगर। तमाम उम्र कई इसमें जल के भी देखते हैं।। चुभेंगे पाओं में कांटे हमारे लाख मगर। वफ़ा की राह में कुछ दूर चल के देखते हैं।। बुझा न पाया ये दरिया जो प्यास को अपनी। चलो यहाँ से के सहरा में चल के देखते हैं।। जफ़ा का देते हैं इलज़ाम दूसरों को सदा। हम अपने आप को क्यूँ ना बदल के देखते हैं।। ए "राज़" हमभी पता तो करें ये शिद्दत का। फ़िराक़े यार में कुछ देर जल के देखते हैं। अलका " राज़ " अग्रवाल

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - प्रस्तावना

*****ग़ज़ल**** 1212 1122 1212 22/112 ख़ुलूस ओ प्यार के सांचे में ढल के देखते हैं। जफ़ा की क़ैद से निकल के देखते हैं।। हम अपने आप को थोडा बदल के देखते हैं। चलो के हम भी हक़ीक़त पे चल के देखते हैं।। कई तो डरते हैं ये इश्क़ की अगन से मगर। तमाम उम्र कई इसमें जल के भी देखते हैं।। चुभेंगे पाओं में कांटे हमारे लाख मगर। वफ़ा की राह में कुछ दूर चल के देखते हैं।। बुझा न पाया ये दरिया जो प्यास को अपनी। चलो यहाँ से के सहरा में चल के ...Read More

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 1

अलका "राज़ "अग्रवाल ️️ ****ग़ज़ल ****** क्या नया अपना लें सारा सब पुराना छोड़ दें। लोग कहते हैं गुज़रा ज़माना छोड़ दें।। कब कहा है मैंने ये सारा ज़माना छोड़ दें। मेरे ख़ातिर अपने दिल में इक ठिकाना छोड़ दें।। ये तो सब होता ही होगा वो सब होना है जो। ज़ल जलों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें।। सिर्फ़ मेरा दिल नहीं मुजरिम दयारे- इश्क़ का। आप अब इल्ज़ाम ये मुझ पर लगाना छोड़ दें।। अश्क बारी में गुज़र जाए न अपनी ज़िन्दगी। ऐ ! ख़ुदा हंसने का क्या इंसां बहाना ...Read More

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 2

ये जो नफ़रत है कम होने को जो तैयार हो जाए। महब्बत फिर ज़माने में गुले गुलज़ार हो जाए।। तिरी नज़रे इनायत का अगर इज़हार हो जाए। हमारे दिल का मौसम भी गुले - गुलज़ार हो जाए।। कहीं ऐसा न हो के ज़िन्दगी दुश्वार हो जाए। जिसे जीना हो मरने के लिए तैयार हो जाए।। कभी तेरी गली की ख़ाक छानी हमने भी लेकिन । यही हसरत थी दिल में बस तिरा दीदार हो जाए।। जो देखून्गी बयाँ वो ही करूँगी तुम से मैं खुलकर। ज़माने भर में ही फिर क्यूँ न हा हा कार हो ...Read More

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ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - 3

Alka agrwal ki gazalyat ******ग़ज़ल**** 2122 2122 2122 डूबा ऐसा की मुहब्बत का समुन्दर निकला । वो सफ़ीना था वास्ते तो बहकर निकला,।। दर्द,- ग़म अपना वो दर्द के केसे पैकर निकला । वो मुहब्बत से हरिक दर्द से बाहर निकला ।। ख़्वाब के मेरे अनोखे से वहम मन्ज़र थे । जो है ख्वाबों में तू गहरा सा वो समुंदर निकला ।। ढूंढ़ती हूँ में जिन्हें आजकल होके दर बदर । वो मिरा ही है वो हमराज भी रहबर निकला ।। रह उजालों में भी मैं तेरे जो क़ाबिल इसलिए । तीरगी से लड़ ख़ुद ...Read More