Gazal - Sahara me Chal ke Dekhte Hain in Hindi Poems by alka agrwal raj books and stories PDF | ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - प्रस्तावना

Featured Books
Categories
Share

ग़ज़ल - सहारा में चल के देखते हैं - प्रस्तावना

*****ग़ज़ल****

1212     1122     1212   22/112

ख़ुलूस ओ प्यार के सांचे में ढल के देखते हैं।

जफ़ा की क़ैद से बाहर निकल के देखते हैं।।

 

हम अपने आप को थोडा बदल के देखते हैं।

चलो के हम भी हक़ीक़त पे चल के देखते हैं।।

 

कई तो डरते हैं ये इश्क़ की अगन से मगर।

तमाम उम्र कई इसमें जल के  भी देखते हैं।।

 

चुभेंगे पाओं में कांटे हमारे लाख मगर।

वफ़ा की राह में कुछ दूर चल  के देखते हैं।।

 

बुझा न पाया ये दरिया जो प्यास को अपनी।

चलो यहाँ से के सहरा में चल के देखते हैं।।

 

जफ़ा का देते हैं इलज़ाम दूसरों को सदा।

हम अपने आप को क्यूँ ना बदल के देखते हैं।।

 

ए "राज़" हमभी पता तो करें ये शिद्दत का।

फ़िराक़े यार में कुछ देर जल के देखते हैं।

 

अलका " राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

*****ग़ज़ल****

 

छू कर निगाहे नाज़ से बेकल बना दिया ।

अच्छा भला था मैं मुझे पागल बना दिया।।

 

आंखें हुईं जज़ीरे तो, सहरा हुआ है दिल  ।

साक़ी ने मेरी आँखों को , छागल बना दिया ।।

     

तब से हमारे गांव में निकला न माहताब ।

जब से हया को आपने, आँचल बना दिया  ।।

 

है मुंतज़िर ये दिल मेरा , दीदारे चाँद को ।

ज़ुल्फ़ों को जब से आपने,बादल बना दिया ।।

  

गिनते थे धड़कने मेरी,छुप छुप के सारे लोग , ।

आपकी गुफ़्तगू ने दिल को पागल बना दिया ।।

 

हासिल न हो सका तो क्या ,हमको विसाले यार,।

दिल को निगाहे नाज़ का , काजल बना दिया ।।

 

अपने लहू से खाके वतन की बूझा के प्यास ।

ख़ाके  वतन को आप ने संदल बना दिया ।।

 

महकी हुई फ़ज़ायें हैं , तेरे जो नूर से  ।

क्यूँ राज़ इन फ़ज़ाओं ने , पागल बना दिया !।

 

अलका " राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

छागल /जंजीरें, सूखा टापू

****ग़ज़ल *****

हमें यक़ीन है पक्का ज़रूर निकले गा।

अँधेरा चीर के इक रोज़ नूर निकले गा।।

 

उसे ए दैरो हरम जाके ढूंढ ने वाले।

 तू चीर क़ल्ब को उसका ही नूर निकलेगा।।

 

तजल्ली दे खी जो उसकी तो जल के ख़ाक हुआ।

कहाँ पता था के दिल कोहे तूर निकलेगा।।

 

जिसे भी देखो वो मे पिए बग़ैर यहाँ।

तिरे ही जलवों के नश्शे में चूर निकलेगा।।

 

ये मुन्सिफ़ों की ख़ुशामद अदालतों का हुजूम।

हमें पता है हमारा क़ुसूर निकलेगा।।

 

ये तेरी मर्ज़ी के ऊपर ही सब मुनहस्सिर है।

अगर निकलेगा दिल से  फ़ितूर निकलेगा।।

 

ए "राज़" रास्ता सच्चाई का ही चुनना फ़क़त

ये रास्ते पे चलेगा तो दूर  निकलेगा।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल

******ग़ज़ल*****

 

फ़क़त हमीं ही नहीं कितने ही शिकार हुए।

नज़र के तीर कलेजे के  आरपार हुए।।

 

जो नर्म और थे नाज़ुक वो तेज़ धार हुए।

जो फूल बोए थे वो कैसे आज ख़ार हुए।।

 

ये आँख देखी नहीं तुमने आबशार हुए।

बस एक ग़म था यही जिससे सोगवार हुए।।

 

ज़माना गुज़रा है बतलाऊँ तुझको अब कैसे।

तेरी जुदाई में इस दिल को बेक़रार हुए।।

 

हम अपनी नाश को सदियों से ढोते फिरते हैं।

ज़माना बीत गया हमको भी मज़ार हुए।।

 

हिसाब इसका लगाना बहुत ही मुश्किल है।

ना जाने कितने हैं दामन जो तार तार हुए।।

 

जो एक होतो मैं बतलाऊँ नाम भी तो "राज़ "

तुम्हारे चाहने वाले तो बे शुमार हुए।।

क़ाफ़िया ,,--आम " की बंदिश

रदीफ़ ---- करूँ ,,,

1212     1122    1212    22/ 112

*****ग़ज़ल****

तेरा जो इश्क़ का जी भर के में एहतेराम करूँ।

ये ज़िन्दगी भी मिरी अब  मैं तेरे नाम करूँ।।

 

मैं सोचता के कुछ ऐसा अब तो काम करूँ।

ए ज़िन्दगी तिरा क़िस्सा ही तमाम करूँ।।

 

सता रहे है अँधेरे यहाँ बहुत सबको।

अगर कहो तो चरागों का इंतज़ाम करूँ।।

 

ये देख कर मिरा क़ातिल भी अब तो है हैरान।

मैं अपने क़त्ल का मैं ख़ुद ही एहतमाम करूँ।।

 

तुम्हें जो देखे तो बदली में चाँद छुप जाए।

तुम्हारे हुस्न को क्यों कर न मैं सलाम करूँ।।

 

मैं बिकने  आ गया बाज़ार में ख़रीद मुझे।

बता के और भी अब कितना सस्ता दाम करूँ।।

 

ग़म ए हयात से छुटकारा कैसे पाऊँ "राज़"

समझ में कुछ नहीं आता मैं कैसा काम करूँ।।

 

अलका "राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

👍

2122    1122     1122     22 / 112

मिसरा ;;--चौक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो ।

नफ़रतों का है यहाँ पर जो ज़खीरा ही न हो ।

सोच दिल आज भी  रोता  है गंवारा ही न हो

 

इस भरी  दुनिया में फिर कोई हमारा ही न हो ।

तेरी नज़रों का मिला कोई इशारा ही न हो ।।

 

दिल मिरे को यू सताती सदाएँ  वो तिरी ।

चौक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो ।।

 

हो के दीवाना में फिरता हूं नजारों में कहीं ।

इन अंधेरों में मिला मुझको सितारा ही न हो ।।

 

रात दिन तेरे हो वीरान सदा मेरी तरह ।

बिन सितमगर न मिरा कोई गुजारा ही न हो ।

 

धड़कनें अब ये धड़कना दे भुला सीने में ।

जब  ख़ुदा मौत भी आती तो इशारा ही न हो ।।

 

 राज़ उल्फ़त ने ज़माने में ठगा है बेशक ।

ऐसी मंझदार  में डूबा कि किनारा ही न हो ।।

 

अलका " राज़ " अग्रवाल ✍️✍️

****ग़ज़ल****

गुज़रे  है महीने गुज़र ये जो साल रहा है

हमको  मिली  सख़्त से भी सख़्त सजा है

 

ये दर्द ए दिल का जो बुरा हाल हुआ है

दिल पहरों मेरा कर्ब के दो जख़ में जला है

 

तक़दीर ने दिए ग़म जो में जल  राख़ हुआ हूँ

दुश्मन नया दें जख़्म मेरा वो  हरा है

 

आशिक़ न भुला पाए एक पल मुहब्बत

वो दर्द मुहब्बत का लगा मीठा बड़ा है

 

कतरा कहीं कुछ धुआं - धुआं सा है

इक आह उठी  दिल को जला के गया  है

 

गर राज़ जो जामे ए मुहब्बत पी रहा है

आँखों का है पैमाना जुदा उसका नशा है !

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

*****ग़ज़ल****

 

महज़ूज़ हो रहे थे जो इसियाँ  किये हुये ।

मुश्किल में आज ख़ुद की  हैं वो जाँ किए हुये ।।

 

या रब हो ख़ैर आज तो इसारे इश्क़ की ।

हर एक आरज़ू  हैं वो तूफ़ाँ किये हुये  ।।

 

नफ़रत थी जिनको गुल से वही आज देखिए ।

बैठे हुए हैं  ख़ुदको गुलिस्ताँ किये हुये ।।

 

वो हमको कूच करने का जब चाहे हुक्म दे ।

तैयार हम सफ़र का हैं सामाँ किये हुये ।।

 

गुलचीं भहारे नो प हमारा भी हक़ तो है ।

चाहत में हैं चमन की ख़िज़ाँ -जाँ किये हुये ।।

 

फिरता है सर उठाए बड़ी आन बान से ।

इन्सानियत को जो है परीशाँ  किये हुये ।।

 

जो थे हवा से तेज़ कभी आज वो भी "राज़" ।

हैं चाल देखो अपनी ख़रामाँ किए हुये ।।

 

अलका "राज़ "अग्रवाल ✍️✍️

 

इसियाँ / ख़ता , गुनाह

ख़राम , ख़रामाँ  / मद्धम धीमी चाल