फ़ासले भी ज़रूरी थे

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दिल्ली, शाम के 6:20। ऑफिस बस से उतरकर माया पैदल अपने घर की ओर चलने लगी। हाथ में भारी लैपटॉप बैग था और मन में राहुल की खामोशी। सड़क पर चाय की दुकान से उठती भाप और धीमी-धीमी बूंदों ने उसका मन और भारी कर दिया। माया 26 साल की थी — गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी भावुक आंखें, और हमेशा हल्की सी मुस्कान जो अब अक्सर गुम रहती थी। उसके लंबे बाल आज भी खुले थे, बारिश में थोड़े उलझे हुए, ठीक उसकी ज़िंदगी की तरह। वो एक एड एजेंसी में जॉब करती थी। क्रिएटिव काम उसे पसंद था, लेकिन इन दिनों किसी चीज़ में मन नहीं लग रहा था। हर काम mechanically हो रहा था। एक चुप्पी उसके भीतर घर कर गई थी। बस स्टॉप से चलते हुए उसने एक बार फिर राहुल का चैट खोला। आख़िरी मैसेज अब भी वही था: “आज क्लाइंट मीटिंग लेट है, बात नहीं कर पाऊंगा। टेक केयर।” तीन दिन हो गए थे।

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फ़ासले भी ज़रूरी थे - भाग 1

भाग 1: दूरियों की चुप्पीदिल्ली, शाम के 6:20।ऑफिस बस से उतरकर माया पैदल अपने घर की ओर चलने लगी। में भारी लैपटॉप बैग था और मन में राहुल की खामोशी। सड़क पर चाय की दुकान से उठती भाप और धीमी-धीमी बूंदों ने उसका मन और भारी कर दिया।माया 26 साल की थी — गेहुंआ रंग, बड़ी-बड़ी भावुक आंखें, और हमेशा हल्की सी मुस्कान जो अब अक्सर गुम रहती थी। उसके लंबे बाल आज भी खुले थे, बारिश में थोड़े उलझे हुए, ठीक उसकी ज़िंदगी की तरह।वो एक एड एजेंसी में जॉब करती थी। क्रिएटिव काम उसे पसंद था, लेकिन ...Read More