Manvata ke jharokhe in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | मानवता के झरोखे

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मानवता के झरोखे

वैद्य जी का दाहसंस्कार

रात के ग्यारह बजे थे । अचानक वैद्य जी के सीने में शूल उठा । असहनीय पीड़ा से सारा शरीर पसीने से भीग गया । वैद्य जी की पत्नी लक्ष्मी, जो सरकारी अस्पताल के आयुर्वेद विभाग में मुख्य चिकित्सा-अधिकारी के रुप में कार्यरत थी, ने अपने अनुभव के आधार पर हृदयाघात का अनुमान करके बेटियों के सहयोग से प्राथमिक उपचार किया और यथाशीघ्र निकट के अस्पताल में उन्हें ले गयी । अस्पताल जाते समय वैद्य जी के एक हाथ में लक्ष्मी का हाथ था, जो निरंतर यह आभास दे रहा था कि उनका जन्म जन्मांतर का साथ कभी नहीं छूटेगा । किंतु, उनकी आँखों से निरंतर क्षमा-प्रार्थना तथा पश्चाताप के भाव अभिव्यंजित होकर यह आभास दे रहे थे कि संभवतः आगे की जीवन-यात्रा लक्ष्मी को अकेले तय करनी पड़े ! वैद्य जी का दूसरा हाथ उनकी बड़ी बेटी नेहा और छोटी बेटी श्रेया के हाथों में था । यद्यपि वैद्य जी की स्थिति गंभीर थी, फिर भी दोनों बहने स्वयं धैर्य धारण करके अपनी माता को सांत्वना दे रही थी कि उनके पिता शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएँगे, चिंता न करें !

आयुर्वेदाचार्य के रूप में सेवा करते-करते पंडित धनंजय कुमार ने अपनी सहृदयता और मृदु व्यवहार से समाज में दूर-दूर तक प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी । दिन हो अथवा रात, हर समय यथासंभव सभी प्रकार से जरुरतमंद की सहायता करने के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे । अपने इन्हीं गुणों के फलस्वरुप धनंजय एक विशाल जनसमूह के हृदय की धड़कन बन गये थे । बालक से लेकर वृद्ध तक सभी स्त्री-पुरुष उनके प्रति श्रद्धा तथा आत्मीयता रखते थे । यही कारण था कि उनके गंभीर रुप से अस्वस्थ होने की सूचना अति शीघ्र उनके मित्रों में और परिचित समाज में जंगल की आग की भाँति फैल गयी थी । कुछ ही समय में उनके शुभचिंतकों की अस्पताल में भीड़ लग गयी | वैद्य जी के स्वास्थ-लाभ हेतु सारा मित्र-समाज रात भर प्रभु से प्रार्थना करता रहा और सभी मित्र उनका जीवन बचाने के लिए अंग-दान तथा रक्त-दान करने के लिए तत्पर थे | किंतु ईश्वर ने न उनकी प्रार्थना स्वीकार की और न ही उनका त्याग-भाव स्वीकार किया । बीस घंटे तक मृत्यु और जीवन के बीच झूलते रहने के पश्चात् अगले दिन सायं सात बजे वैद्य जी की प्राण-रज्जू टूट गयी और वे भूतपूर्व संज्ञा से अभिहित होने वाले महापुरुषों की पंक्ति में आ गये ।

जिस समय वैद्य जी का प्राणहीन शरीर अस्पताल से घर पर लाया गया, विशाल जनसमूह उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ पड़ा । सभी की आँखें नम थी ; सभी के ह्रदय में किसी अपने से बिछुड़ने की पीड़ा थी । कहीं परायापन नहीं था । लक्ष्मी तो पति के चिरवियोग में बार-बार पछाड़ खाकर गिर रही थी । स्त्रियों का एक समूह सान्त्वना देते हुए उसको संभालने का असफल प्रयास कर रहा था ।

धीरे-धीरे रात होने लगी और कुछ समय में संपूर्ण वातावरण को अंधकार की चादर ने ढक लिया था । जिस अनुपात से अंधेरा बढ़ रहा था, उसी अनुपात से भीड़ भी छँटने लगी थी । रात का अंधेरा घना होते-होते सारी भीड़ छँट चुकी थी । अब वहाँ पर वैद्य जी का परिवार और उनके कुछ घनिष्ठ मित्र ही शेष रह गये थे । हिंदू धर्म–संस्कृति का निर्वाह करते हुए अंतिम संस्कार रात में नहीं किया जा सकता था, इसलिए वैद्य जी का शव बर्फ से ढक दिया गया और वहाँ पर उपस्थित सभी लोग सवेरा होने की प्रतीक्षा करने लगे ।

प्रातः सूर्योदय होते ही वैद्य जी के अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगी । अब तक वैद्य जी के सभी नाते-रिश्तेदार भी पहुँच चुके थे । प्रभु के प्रसादस्वरुप वैद्य जी के घर में दो होनहार बेटियाँ जन्मी थी - नेहा और श्रेया । कोई बेटा नहीं होने के कारण वहाँ पर उपस्थित सभी लोगों के होठों पर दबी जुबान में आज एक ही प्रश्न था - "वैद्य जी की चिता को अग्नि कौन देगा ?"

वैद्य जी की बड़ी बेटी नेहा के कानों में यह प्रश्न पड़ा, तो उसने एक क्षण का भी विलंब नहीं करते हुए अपने कुछ निकटस्थ लोगों के बीच घोषणा कर दी -

"हम दोनों बहनों का जन्म होने के बाद पापा के मनःमस्तिष्क में पुत्र-प्राप्ति की इच्छा-आकांक्षा शेष नहीं रह गयी थी । उन्होंने हम दोनों बहनों को पुत्रवत् स्नेह देते हुए शारीरिक-मानसिक और आर्थिक रुप से सक्षम बनाया है ! हमारे पापा ने हमें हर उस कार्य को करने में समर्थ बनाया है, जिसकी अपेक्षा कोई पिता अपने पुत्र से करता है । इसलिए उनकी चिता को अग्नि कौन देगा ? यह प्रश्न विवाद का विषय ही नहीं है ! सारा समाज जानता है, हम दोनो बहने ही उनकी उत्तराधिकारी हैं !"

कुछ ही क्षणों में नेहा की घोषणा ने अपने मूल भाव,भाषा और शब्द-परिवर्तन के साथ चर्चा के ज्वलंत विषय का रूप धारण कर लिया । नेहा की घोषणा के फलस्वरुप वैद्य जी की शव यात्रा में सम्मिलित होने के लिए वहाँ पर उपस्थित लोग दो पक्षों में विभाजित होने लगे - एक परंपरानुरागी था, तथा दूसरा पक्ष तार्तिक दृष्टिकोण रखने वाला था ।

पुरोहित जी ने अर्थी उठाने का निर्देश दिया । नेहा और श्रेया आगे बढ़ी, तो परम्परानुगामी पुरुष समाज के कुछ लोगों ने यह कहकर उनका कड़ा विरोध किया - "बेटियाँ अर्थी को कंधा नहीं दे सकती ! न ही वे शवयात्रा में सम्मिलित हो सकती हैं, क्योंकि शमशान में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है !" नेहा ने उनकी दलील को नकारते हुए कहा-

"हम दोनों बहनों ने अपने पापा के जीवित रहते उनकी रुग्णावस्था में बच्चों की भाँति देखभाल की । उन्हें गोद में उठाकर अस्पताल से घर और घर से अस्पताल ले गये, आज उनकी मृत देह को हम कंधा क्यों नहीं दे सकती ? क्यों हम उनकी शवयात्रा में सम्मिलित होकर शवदाह-स्थल तक नहीं जा सकती ?"

नेहा के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था, बस एक दुराग्रह था--

"ठीक है ! तुम कंधा दे सकती हो, तो दो ! हम मूकदर्शक बनकर इस पाप-कर्म के भागीदार नहीं बन सकते !" दो लोगों का संयुक्त स्वरा उभरा और वे शव यात्रा से विमुख होकर वापस लौट जाने का उपक्रम करने लगे । उनका पलायन देखकर एक-एक करके अनेक लोग उनके साथ हो लिये । यह देखकर, स्थिति विकराल रूप धारण करे, इससे पहले ही एक सज्जन विनय गौड़, जोकि वैद्य जी के घनिष्ठ मित्र थे, विनम्र शैली में स्नेहपूर्वक बोले -

"नेहा,बेटी ! यह तुम्हारा कर्तव्य नहीं है, वैद्य जी के मित्रों-बन्धुओं का है ! मतलब, हम लोगों का है ! हमें करने दो, बेटी !" गौड़ जी के संकेत से स्थिति की विषमता को भाँपकर नेहा ने अपने कदम पीछे हटा लिये । गौड़ जी के विनम्र आग्रह पर वे सभी लोग भी वैद्य जी की शवयात्रा में सम्मिलित होने के लिए तैयार हो गये, जो कुछ क्षणपूर्व शवयात्रा में सम्मिलित नहीं होने की चेतावनी देते हुए वापिस लौटने लगे थे ।

गौड़ जी का संकेत पाकर पुरुष कांधियों ने अर्थी अपने कंधो पर उठा ली और शवयात्रा आरम्भ हो गयी । शवयात्रा के आरंभ-बिन्दु से लगभग दो सौ मीटर की दूरी तय करने के पश्चात् अर्थी कांधियों के कंधो से उतारकर स्वर्गयान (शवयात्रा के लिए निर्धारित छोटी बस) मैं प्रतिष्ठित कर दी गयी । नेहा भी अपने पिता की अर्थी के साथ स्वर्गयान में सवार हो गयी । जाते-जाते उसने श्रेया को आदेश दिया - "जो स्त्रियाँ यहाँ पर उपस्थित हैं, सबको गाड़ी में बिठाकर शवदाह-स्थल पर ले आओ !"

हिण्डन के तट पर स्थित शवदाह-स्थल पर जिस समय स्वर्गयान से वैद्य जी की अर्थी उतारी गयी, बड़ा जन-समूह उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र हो चुका था । सबकी आँखों में आँसू थे ; सभी के हृदय में उनकी पत्नी तथा पुत्रियों के प्रति संवेदना एवं सहानुभूति थी । किन्तु, नेहा को वहाँ पर देखकर कुछ लोगों को कष्ट हो रहा था ।

दाह संस्कार की तैयारियां पूरी होने पर पुरोहित जी ने मंत्रोच्चारण करना आरंभ कर दिया और अग्नि देने वाले व्यक्ति को पुकारा -

"जी, पंडित जी ! मैं इनकी बड़ी बेटी हूँ ! क्या और कैसे करना है ? कृपया मुझे बताइए !" नेहा ने विनम्रतापूर्वक पुरोहित से कहां ।

"बेटी ! यह मजाक करने का अवसर नहीं है ! ऐसे समय पर इस प्रकार की अनर्गल बातें करके मृत देह का अपमान मत करो !" पुरोहित जी ने क्रोधित होकर कहा ।

"पंडित जी, मैं अनर्गल बातें नहीं कर रही हूँ,यथातथ्य कह रही हूँ ! आप मेरी किसी भी बात को अन्यथा ना लें, और अंतिम संस्कार करने हेतु मुझे निर्देश देकर मंत्रोच्चारण जारी रखें !" नेहा का उत्तर सुनकर पुरोहित जी और अधिक भड़कते हुए खड़े हो गए -

"राम-राम-राम-राम ! घोर अनर्थ ! घोर कलयुग आ गया है ! प्रभु ! इस मृत देह की आत्मा को शांति प्रदान करें ! राम-राम राम-राम !

पुरोहित जी का कोप देखकर कुछ धर्मभीरू तथा कुछ धूर्त लोग उनके समर्थन में उठ खड़े हुए । कुछ संवेदनशील और सुसंस्कृत लोग पूर्णतःशांत थे । उसी समय गौड़ जी ने धीर-गंभीर शान्त स्वर में नेहा का समर्थन करते हुए कहा -

"पंडित जी ! वैद्य की दोनों पुत्रियों ने अपने पिता के जीते जी उनका सहारा बनकर उन्हें वह सुख-संतोष दिया था, जो आजकल बहुत से पुत्रों के पिता को भी प्राप्त नहीं हो पाता है ! अब नेहा बिटिया अपने पिता की चिता को अग्नि देना चाहती है, तो इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए !"

"श्रीमान ! शास्त्रानुसार पुत्र ही तर्पण का अधिकारी होता है ! पुत्र द्वारा दाह-संस्कार एवं पिंड-दान किए जाने पर ही मृतक की आत्मा को शांति प्राप्त होती है !" पंडित जी का कथन सुनकर भीड़ में से कुछ स्वर उभरे -

दिव्यांश वैद्य जी का धर्म-पुत्र है ! उसको वैद्य जी अपने बेटे के समान ही मानते थे !"

दिव्यांश वैद्य जी का प्रिय शिष्य था । वह दस वर्ष का था, जब उसके माता-पिता ने उसको वैद्यक सीखने के लिए वैद्य जी के आठ छोड़ा था । वैद्य जी ने अपने खर्च से उसको विद्यालयी शिक्षा दिलायी और अतिरिक्त समय में अपने साथ रखकर आयुर्वेद की व्यवहारिक शिक्षा दी । तब से अब तक वह वैद्य जी का दवाखाना संभालता रहा था । इस दृष्टि से समाज उसको वैद्य जी के दवाखाने का उत्तराधिकारी मानता था ।

"पंडित जी ! कोई पुत्र अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेले कष्ट भोगने के लिए छोड़कर विदेश में जा बसे, आपके शास्त्रानुसार तब भी वह तर्पण का अधिकारी है ? और पुत्री अपने कैरिअर को दाँव पर लगाकर माता-पिता की सेवा करने के लिए उनके साथ रहने का निर्णय लेती हैं, तब भी वे तर्पण की अधिकारी नहीं है ? क्यों ? इस विषय में आपके शास्त्र कोई तार्तिक उत्तर दे सकते हैं ?"

"मैं इस विषय पर बहस नहीं करना चाहता ! मैं बस इतना कह सकता हूँ, शास्त्रानुसार पुत्र द्वारा अग्नि देने पर ही मृतक की आत्मा को शांति प्राप्त होती है ! आप बहस मत कीजिए, केवल सुनिए ! नेहा को बोलते हुए देखकर पुरोहित जी मौन होकर निर्निमेष देख रहे थे । अपने चारों ओर की प्रतिक्रिया का आभास करके एक क्षणोपरांत नेहा ने पुन। बोलना आरंभ किया -

"मैं इंग्लैंड से वकालत पढ़कर आयी हूँ ! चाहती, तो मैं अपना भविष्य सँवारते हुए विवाह करके वहीं अपना घर बसा सकती थी । मेरी छोटी बहन श्रेया न्यूयॉर्क में पढ़ाई करके यहाँ अपने कैरिअर की ऊंचाइयां खोज रही है, ताकि हम दोनों अपने माता-पिता को समय देकर उन्हें सुख-शान्ति के कुछ क्षण दे सकें ! और आप कहते हैं, हम अपने पिता का तर्पण नहीं कर सकते, क्योंकि तर्पण का अधिकारी केवल पुत्र होता है !" क्यों ?" नेहा का संवाद सुनकर अपने भाव प्रकट करते हुए दिव्यांश आगे बढ़कर बोला -

"वैद्य जी मुझे अपने बेटे के समान मानते थे, बेटा नहीं ! जबकि नेहा-श्रेया को वह अपने दो बेटे ही मानते थे ! इन दोनों को देखकर उन्होंने कभी यह अनुभव नहीं किया कि उनका कोई बेटा नहीं है !" यह कहकर दिव्यांश ने अपनी जेब में हाथ डालते हुए पुरोहित जी को विशाल जनसमूह से बाहर निकलकर आने का संकेत किया । पुरोहित जी उसके पीछे-पीछे चल दिये । जनसमूह से कुछ मीटर की दूरी पर आकर दिव्यांश रुक गया और अपने बाएँ हाथ में पुरोहित जी का दाहिना हाथ पकड़कर अपने दाहिने हाथ की मुठ्ठी, जिसमें नीले-हरे-गुलाबी रंग-बिरंगे कागज थे, पुरोहित जी की हथेली पर रख कर उनकी मुट्ठी बंद कर दी । रंग-बिरंगे कागज मुट्ठी में बंद होते ही पुरोहित जी का क्रोध विलुप्त होकर उनके ह्रदय में उदार भावों का स्थानापन्न हो गया ; होंठों पर स्मिथ रेखा खिंच गयी । तत्पश्चात जन-समूह के बीच लौटकर चेहरे पर संतोष का भाव उकेरते हुए उन्होंने कहा-

"रूढ़ियों के कूप से बाहर निकलकर दिव्यांश ने आज मुझे एक नई दुनिया के दर्शन कराये हैं ! बहुत बुद्धिमान लड़का है ! दिव्यांश ने आज सिद्ध कर दिया है कि व्यक्ति की परिपक्वता उसकी आयु से नहीं, उसके ज्ञान और व्यवहार से निश्चित होती है । आज हमारी बेटियाँ जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी प्रतिभा की पताका लहरा रही है, तब बेटा-बेटी में भेद करना बेटियों के प्रति अन्याय हैं ! हम सभी को वैद्य जी के सिद्धांतो को व्यवहारिक रूप से स्वीकार करना चाहिए ! जिस प्रकार जीवन के अन्य क्रिया-कलाप महत्वपूर्ण है, उसी प्रकार मनुष्य का अंतिम क्रिया-कर्म भी है । समय के प्रवाह को देखते हुए हमें स्त्रियों को अंतिम-संस्कार में सम्मिलित करना चाहिए, ताकि वे मानसिक-भावात्मक रुप से और अधिक सशक्त बन सकें !" यह कहकर नेहा को निर्देश देते हुए दाह-संस्कार संपन्न करने के लिए मन्त्रोच्चारण आरंभ कर दिया । पुरोहित जी के सद्व्यवहार तथा भाव- परिवर्तन को देखकर शोक में डूबी नेहा और श्रेया के होठों पर स्मित-रेखा खिंच गयी । नेहा के चेहरे पर अभूतपूर्व-अद्वितीय गर्व झलक रहा था कि उसकी प्रेरणा और प्रयास से प्रथम बार उसकी कालोनी की स्त्रियों को किसी शवयात्रा में सम्मिलित होकर मनुष्य के स्थूल शरीर की अंतिम परिणति देखने-अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ है !

अग्नि की लपटों के बीच पिता की मृत देह को पंचतत्व में विलीन होता हुआ देखकर नेहा के मनःमस्तिष्क में संसार की निसारता भर गयी और अनायास ही उसके कानों में कबीर का दोहा गूँजने लगा -

'हाड़ जरै ज्यों लाकड़ी केस जरै ज्यों घास ।

सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ।।'

दाह-संस्कार संपन्न होने के पश्चात् अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करते हुए नेहा ने कहा था -

"जब तक स्त्रियाँ अपने परिजनों-स्वजनों के दाह-संस्कार में सम्मिलित होकर संसार की निसारता का स्वयं अनुभव नहीं करेंगी, तब तक उनकी जीवन-दृष्टि अपेक्षाकृत संकुचित रहेगी ; उनका वैचारिक-दृष्टिकोण और तत्त्व-चिंतन अस्वस्थ ही रहेगा!"