Pee Kahan - 2 in Hindi Fiction Stories by Ratan Nath Sarshar books and stories PDF | पी कहाँ? - 2

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पी कहाँ? - 2

पी कहाँ?

रतननाथ सरशार

अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह

दूसरी हूक

कसबे से डेढ़ कोस के फासले पर एक बड़ा लंबा-चौड़ा अहाता है, दीवारें चौतरफा बहुत ऊँची-ऊँची। अहाते के बड़े फाटक के अंदर पहुँचते ही, दूर तक हरी-हरी दूब का, हीरे-सा दमकता हुआ फर्श नजर आता था, और सबके पहले इसी पर नजर पड़ती थी। और इसके चार कोनों पर चार फव्वारे छूटते थे, जिनके पानी से दूब सींची जाती और आँखों को तरावट होती थी। इस दूब के बहुत बड़े तख्‍ते से हो कर एक और फाटक था। मशहूर था कि सोमनाथ के मंदिर के फाटक के बाद हिंदुस्‍तान में यह दूसरे नंबर का फाटक है। इस फाटक से दूर तक खुशबूदार फूलों की क्‍यारियाँ थीं। लाल-लाल फूलों की क्‍यारियों में गुले-लाला खिला था। मालूम होता था कि फूलों की लाल कुर्तेवाली पलटन किसी पर धावा करने को लैस है। पीले रंग के ताजे-ताजे फूलों को देख कर बसंत की रुत याद आती थी। सफेद फूलों के तख्‍ते बड़ी बहार दिखाते थे। क्‍यारियों के इर्द-गिर्द कुछ कुछ फासलेदार सरौ के दरख्‍त बहार के लुत्‍फ को दोबाला करते थे। इसके बाद एक छोटा फाटक था, जिसके दाहिने-बाएँ संगमर्मर के दो जवान सिपाही बने हुए थे। एक जवान की चढ़ी दाढ़ी और खड़ी मूँछें : कमर से तलवार और तमंचे की जोड़ी लगी हुई, तना हुआ, आँखें खूँखार, छेड़ कर लड़ाई मोल लेने पर तैयार। दूसरा डँड़ियल पहलवान, पीठ पर ढाल लिए, सूरत से जाहिर होता था कि बड़ा तीखा सिपाही है - मिजाज का कड़ुआ। एक सिपाही तिलंगों की वर्दी पहने, 'हेनरी मार्टीनी' रायफल काँधे पर रक्‍खे, किर्च लगी हुई, पहरा दे रहा था। फाटक के अंदर दाहिनी तरफ दो हाथी झूम रहे थे। एक कंजल हाथी, कजलीबन का राजा, पाँव में बड़ी भारी जंजीर पड़ी हुई, मस्‍त। जिस वक्‍त गरजता था आस-पास के बैल-गाय, भैंस, घोड़े, टट्टू, काँप उठते थे। जब चारे के लिए जाता था तब भी एक पाँव में बड़ी जंजीर पड़ी रहती थी। मस्‍तक पर फीलवान, आगे-आगे चरकटा, संडा-मुस्‍टंडा पहलवान। इस हाथी की आँखों से मालूम था कि खूनी है, चोट कर बैठेगा। दूसरी हाथी डील-डौल और जिस्‍म में इससे छोटा और उसके मुकाबले में लटा हुआ था। बाईं तरफ कई कटहरे बने हुए थे। एक में रीछ की जोड़ी, मियाँ-बीबी, जंगल के भालू। दूसरे में शेर। तीसरे में अरना-भैंसा, देव का बच्‍चा।

इसके आगे बढ़ कर एक तालाब था।

य‍ह बड़ा भागवान तालाब मशहूर था। एक हाथी का डुबाव। जिस जमाने में बाढ़ आती थी, उस जमाने में यह तालाब समुंदर का बच्‍चा बन जाता था। और जो रईसा इस कुल जमीन-जायदाद की मालिक थी, उसका खजाना हाथियों पर लद के जाता था। इस तालाब में एक पटेला नाव थी, और दो कीमती, सुंदर बजरे, जिन पर पर्दानशीन बेगमें कभी-कभी हवा खाती थीं, दो घड़ी दिल बहलाती थीं। सामने एक बहुत बड़ा चबूतरा था, पक्‍का बना हुआ, तीन तरफ जीने। और चबूतरे के बीचोबीच में एक छोटा-सा हौज, और उस पर शामियाना तना हुआ। हौज के चारो तरफ कुरान-शरीफ की एक 'आयत' खुदी हुई थी। चबूतरे की बाईं तरफ जनानी ड्योढ़ी थी। पहले सिपाही का पहरा - तलवार पास, उसके बाद एक हब्शिन का पहरा था - हाथ में कटार लिए हुए, उसके बाद पर्दा। पर्दे के बाद एक और डयोढ़ी थी। और इस डयोढ़ी के पास ही एक छोटी-सी मस्जिद बनी हुई थी।

बड़े महल के अंदर सब के पहले एक हौज पर नजर पड़ती थी। चमकता हुआ साफ पानी, जिसके अंदर लाल-लाल म‍छलियाँ मय अपने चेंगी-पोटों के झलकती हुई। कमरे और दालान और बैठकखाना सब सजे हुए। एक बड़े दालान से दीवानखाने का रास्‍ता अंदर की तरफ (यानी जनानखाने) से था, और बाहर की तरफ कई दरवाजे थे। यह भी सजा-सजाया था। मगर कुल चीजें, सारा सामान, झाड़-कँवल, दीवारगीरियाँ, कोच, मेज, मसनद, तकिया-सब गुलाबी। बीच में संगमर्मर की एक मेज पर गुलाबी मखमल का टेबुल-क्‍लाथ और उस पर गुलाबी फूलदान, मोम का बना हुआ, और वह भी गुलाबी। दीवारें भी गुलाबी रँगी हुईं। छतगीरी गुलाबी।

मसनद बिछी हुई थी, तकिया भी था, मगर मसनद, तकिया खाली। मसनद के पास एक बूढ़े दीवानजी बैठे थे। कोई सत्‍तर बरस का सिन। दुबले-पतले आदमी। ऐनक लगाए हुए। कान पर कलम रखी हुई - 'रखी हुई' हमने इस वजह से कहा कि दीवानजी साहब कलम को मोअन्‍नस (स्‍त्री-लिंग) ही बोलते थे, और गोश्‍त चाहे जिस किस्‍म का पका हो, ये 'कलिया' ही कहते थे, और बात में 'इल्म कसम' जरूर खाते थे। कागज चाहे कैसा ही बारीक हो, ये बगैर किताब या दफ्ती रखे लिखते थे।

इनके इर्द-गिर्द बहुत से आदमी। एक जिलेदार, एक वारिस बाकीनवीस, एक खजानची, एक सियाहानवीस, एक मुख्‍तार, दो मोहर्रिर और दस असामी लोग, चार चोबदार। दरवाजे के पास एक मशालची खड़ा था, छै सिपाही, दो खवास, एक फीलबान। ये तो अमले के लोग थे। बाहरवालों में, एक पेंशनयाफ्ता बूढ़े डिप्‍टी कलक्‍टर सब से इज्‍जत की जगह पर बैठे थे। और इन्‍हीं के पास, एक वकील, दो नवाब, दो शरीफजादे।

इस दीवानखाने के बाद जनानखाना था, और‍ जिस कमरे का हमने अभी जिक्र किया, उसके और दीवानखाने के दरमियान में कई दरवाजे थे। किसी में दोहरी-दोहरी चिकें पड़ी थीं और किसी में पर्दे, और कोई बंद। इन पर्दों में औरतें थीं, बेगमें। एक बेगम साहब जो इस इमलाक की मालिक थीं, सर से पाँव तक गुलाबी कपड़ें पहने थीं। गुलाबी अतलस का दोपट्टा, गुलाबी अतलस का पायजामा, गुलाबी ही अँगिया। हाथों-पाँवों में मेहँदी। जुल्‍फ के बाल तो अलबत्‍ता सियाह थे, बाकी और कुछ चीजें गुलाबी। रंगत भी सुर्ख, होंठ भी लाल। एक छोटा-सा हुक्‍का, नाजुक, खुशनुमा, चाँदी का बना हुआ। कालीन से ले कर रूमाल तक सब गुलाबी।

दीवान - इस अंधेर को तो मुलाहजा फर्माइए! मैं कहता हूँ, यह जमीन-आसमान कायम क्‍यों कर रहेगा?

क्‍यों न बरसें फलक से अंगारे,

बटी दे औ' दामाद को मारे!

शरीफजादा - वाह, दीवानजी साहब, खूब शेर पढ़ा। 'दामाद' का लफ्ज कितना खूब आया है, वाह, वा, वाह!

दीवान - मैं तो बंदानेवाज-मन कुछ जानता-वानता नहीं, मगर हाँ बुजुर्गों के तुफैल कुछ गाँठ लेता हूँ। लाला माधोराम इस नाचीज के दादों में होते थे। बड़े लाला ने उनको देखा था। धनंता और संता के नौकर थे।

वासिल बाकीनवीस - बड़े पहुँचे हुए आदमी हैं! लाला कांजीमल साहब कोई ऐसे-वैसे आदमी थोड़े ही हैं।

डिप्‍टी कलक्‍टर - पुराने लोग हैं।

दीवान - हजूर अब तो जुहलाओं(मूरख-अनपढ़ों) से भी गए-बीते हैं। अब तो मिडिल पास भी हमको जुहला गरदानता है। ले, कोई 'सिकंदर नामे' के मानी तो कह दे!

मुख्‍तार - 'सिकंदनामा' तो सुना मामकीमान ने लिखा था।

डिप्‍टी कलक्‍टर - 'मामकीमान' तो किताब का नाम है, जी।

दीवान - किताब का भी नाम नहीं हैं। नाम किताब का 'तरजीह-बंद' (दीवानजी खुद अपने अज्ञान का सबूत दे रहे हैं। 'तरजीअ-बंद तो छंद का नाम है - अनुवादक) है। 'मामकीमान' 'मामकीमान' इस वजह से कहने लगे कि पहले शेर का पहला लफ्ज यह है।

मामकीमान कोए दिलदारेम,

रुख ब-दुनियाए-दूँ नमी आरेम।

इधर तो दीवान कांजीमल साहब ('कांजी' तखल्‍लुस) जीट की ले रहे थे और लोग उनको बना रहे थे और उधर जनानखाने में औरतें उन पर बिगड़ रही थीं।

बेगम - (गुलाबी पोशाक में) ए, इस मुए बुड्ढे को यह क्‍या बुढ़भस है कि जटल उड़ा रहा है, और अस्‍ल मतलब से कोई मतलब ही नहीं।

दूसरी - मुआ, खबीस कहीं का। ए मुन्‍नी, जरी दरवाजे के पास तो बुलाओ।

मुन्‍नी - दीवानजी, जरी दरवाजे के पास आइए, पर्दे के पास। सरकार याद करती हैं।

दीवान - (पर्दे के पास आ कर) हुजूर, हाजिर हूँ, इरशाद।

बेगम - ए, मैं कहती हूँ : यह कोई मकतब है, लौंडों को पढ़ा रहे हो, या काम-काज का दिन है?

दूसरी - (हँस कर) दीवानजी हो, कि मियाँजी!

दीवान - हुजूर, मिर्जा तहौव्‍वर अली बेग, वकील, कुछ कागजातों की जाँच-पड़ताल कर रहे हैं। देख लें। तो अर्ज करूँ।

बेगम - ए हाँ, खाली-खुली बक-बक से क्‍या होता है?

इन बेगम साहब का मकान शहर में था। जिस इमलाक का हमने जिक्र किया, वह उनके इलाके में थी। ताल्‍लुकेदार को गुजरे हुए अर्सा हो चुका था।

बहुत उम्‍दा लिबास पहने हुए एक खूबसूरत साहेबजादा, सत्रह बरस का सिन, जनानखाने की डयोढ़ी से बाहर आने लगा। पर्दे के पास से महलदार ने इत्‍तला दी : 'होशियार!' दरबान और सिपाही उठ खड़े हुए। जब यह साहेबजादा महफिल में आया तो डिप्‍टी आया तो डिप्‍टी साहब और वकील के अलावा और सबने खड़े हो कर अदब के साथ सर झुकाया, और साहेबजादा, और साहेबजादा ने वकील के पास बैठ कर मिजाज पूछा। उसके बाद दीवानजी साहब यों बोले -

ये साहबजादे जो अभी तशरीफ हैं, खुदा इनकी उम्रों को दराज करे! इन्‍होंने इतना कहा था कि एक चोबदार, दो सिपाही और एक मोहर्रिर ने मिल कर 'आामीन!' कहा, और दीवानजी फिर चहकने लगे।

'इन रईसजादे साहब की सूरत में खूब पहचानता हूँ। मैंने आपको जरूर देखा है। आप साहबों में से अक्‍सरों ने दीद किया होगा।' ('दीद' का लफ्ज सुन कर दो-चार साहब यों ही सा मुस्‍कराए) इन रईसजादा बुलंद नामदार का यह कुल इलाका है, और सारी जायदादों के मालिक कुल्‍ली यही हैं। बेगालए रैब! (उर्दू बोलते-बोलते अब दीवानजी साहब तुर्की बोलने लगे : जब थोड़ी देर में पश्‍तों में भीख माँगेंगे!) - 'बात असल यह है - असल ताल्‍लुकेदार साहब, (इस इलाके के) ने जब इस दुनिया से आँख मूँद ली, तो उनके भाई ने इन साहबजादे साहब को पढ़ाने-लिखाने और कोर्ट-वार्ड में भर्ती कराने के बहाने से जिला-वतन कर दिया। इसको जिला-वतन ही कहना चाहिए। - और बाद उसके बेगम साहब के साथ निकाह पढ़ा लिया। और अपने आपको मलाजमीनों से 'राजा साहब' और बेगम साहबा को 'रानी साहब' कहलवाया और जो उनकी पहली बीवी थीं वह छोटी रानी साहब बाजने लगीं। आया आप सब साहबों की समझ के बीच में? - और कुछ इलाके और जायदाद पर कब्‍जाकरके उसके मालिक बैठे और हम सब पुराने और कदीम मुलाजमीनों को सख्‍ती के साथ खबरदार किया कि अगर जरा गर्दन उठाओगे और लड़के का खोज लगाओगे तो जिंदा चिनवा दूँगा, - और खबरदार बड़ी रानी के पास न जाना : पर्दा और एलनिया तौर पर जाइयो!

'वह बेदखल हो गईं। यहाँ तक कि रियासत के हम पुराने मुलाजमीनों की उन तक पहुँच भी बहुत कठिन हो गई। - और उन्‍होंने अपना चौकी-पहरा तायनात कर दिया, और कोठे के दरवाजों में जंगी कुलफ (दीवानजी गलत उच्‍चारण कर रहे हैं, शुद्ध है 'कुफुल'।) डाल दिया, और आने-जाने का रास्‍ता बंद करके उनको बेबस कर दिया। और वह उनकी बीवी तो थी हीं, मजबूर हो गई।'

डिप्‍टी साहब - लाहौल विला कूव्‍वत! लाहौल विला...!!

दीवाजी - बड़े-बड़े जुल्‍म किए हैं, जनाब डिप्‍टी साहब, किब्‍ला!

एक शरीफजादा - जुल्‍म सा जुल्‍म है? लड़का जिला-वतन, बेगम साहब कैद, अहलकारों की पहुँच उन तक बंद!

मुख्‍तार - हुजूर, ऐसा परेशान किया था कि बस तोबा ही भली! मैं इस रियासत का छत्‍तीस बरस से नमक खा रहा हूँ। पुराना मुख्‍तार। मगर जितने दिनों तक इन्‍होंने राज किया, वल्‍लाह, फाके होने लगे!

दीवानजी ने फिर बात शुरू की और कहा, हम लोगों को, बंदानेवाज-मन, हर तरह से मजबूर हो कर, गुलामी करनी पड़ी। रोजगार कोई है नहीं। नौकरी कहीं दस-पाँच की भी नहीं मिलती। करें तो क्‍या करें? लाचार, सर झुका कर गुलामी करनी पड़ी। अपने भाई के कुल मुलाजमीनों को कहर की निगाह से देखता था, और कितनों को तो अलग ही कर दिया। बेकसूर। भाई के कुल दोस्‍तों के दुश्‍मन।

'लड़के की जुदाई से बेगम साहब बहुत कुढ़ती थीं, मगर क्‍या करें! सरकार का बस ही क्‍या था! माँ की ममता मशहूर है। कभी-कभी किसी औरत की जबानी हम भी सुनते थे कि रोया करती हैं। बड़ा रंज होता था - कि अपने पाँव पर खुद कुल्‍हाड़ी मारी। फिर, बंदानेवाज-मन, खुद किए का क्‍या इलाज! हाँ, राजा साहब के मरने से बेगम साहब जी उठीं, और हमने साहबजादे साहब को भी खोज लगा के बुलाया। यह राज, यह ताल्‍लुका, यह कुल जायदाद इन्‍हीं की है, और हम इनके नौकर और मुलाजिम हैं।'

डिप्‍टी साहब - खुदा इनको मुबारक करे!

सिपाही और मशालची और मोहर्रिरों वगैरह ने 'आमीन!' की आवाज बुलंद की।

डिप्‍टी साहब - ऐसे जालिम का मरना ही बेहतर!

ये बातें हो ही रही थीं, कि डिप्‍टी साहब ने जो बेगम साहब के पहले शौहर के दोस्‍त और गहरे यार थे, कहा - मुन्‍नी महरी, जरी अपनी बेगम साहब से पूछो कि कुनबे में अब तो कोई भाई हमारे दोस्‍त का नहीं बचा है? एक नंबर और सही!

यह फिकरा सुनना था‍ कि जनानखाने से बड़े कहकहे की आवाज आई। और गुलाबी लिबासवाली बेगम साहब ने औरतों से कहा कि - इनसे-उनसे बड़ी गहरी छनती थी। यह बुड्ढा उनके वख्‍त में मुझे बहुत छेड़ता था। बड़ा हँसोड़ है! और उसके जवाब में यों बोलीं -

'डिप्‍टी साहब, अब तुम बुड्ढे हुए, ये बूढ़े गमजे छोड़ दो। समझे?'

डिप्‍टी साहब - बुड्ढे हुए? यह कैसे? अभी दो कम चालीस ही बरस का तो सिन है। बुड्ढे कहाँ से हो गए?

बेगम - ए, है! बड़े नन्‍हे!! अभी दो कम चालीस ही बरस का सिन है। और ये बाल कहाँ से सफेद किए? धूप में?

डिप्‍टी - बाल! इत्र बहुत लगाया था, सफेद हो गए!

बेगम - इत्र भी लगाते हैं आप। घर की टपकी और बासी साग! कभी धोई तिल्‍ली का तेल भी सर में डाला था?

डिप्‍टी - बजा! कन्‍टर के कन्‍टर लुंढा डाले!

बेगम - काला पानी पिया होगा! ए डिप्‍टी साहब, भला यह तो बताओ कि छोटे नवाब के गद्दी पर बैठने में झगड़ा तो न होगा?

डिप्‍टी - जी नहीं, झगड़ा काहे का? दो गाँव मेरे नाम पर लिख दो। मैं अपने समझ लूँगा। आप इसी वक्‍त गद्दी पर बिठाइए। सायत नेक है, दिन भी अच्‍छा है। - ये आए कब? मैंने पहले नहीं पहचाना था। जब गौर से देखा तो समझ गया। बचपन में देखा था। अब, माशेअल्‍ला, सयाने हुए!

बेगम - परसों आए थे। कोई पहचाने कहाँ से! न वह रूप, न वह रंगत। न वह आब-ताब। और हो कहाँ से? यह आराम यहाँ का-सा कहाँ मिलता।

डिप्‍टी - इनका हाल और इनकी आप-बीती हम इनकी जबानी ही सुन लेंगे। तुम, भैया, इधर मसनद पर आके बैठो।

बेगम - हाँ हाँ, भैया, मसनद पर बैठो। डिप्‍टी साहब और मिर्जा साहब को भी बिठाओ। जरा हम तुमको बाप की गद्दी पर बैठे तो देखें।

यह कहते-कहते बेगम की आँखें आप ही आप डबडबा आईं।

***