9 - कब सहर होगी
वह पूरे राज्य में नौकरी देने वाले भर्ती दफ्तर में लगा एक अदना-सा वर्कचार्ज कर्मचारी है । पहले तो वह वर्कचार्ज की हैसियत से ही लगा था । मगर पिछले पांच-छः वर्षों से कंगाल सरकार ने उसे ठेकेदारी प्रथा का एक बंधुआ मज़दूर-सा बना दिया है । उसे इस दफ्तर में करीब तेरह साल होने को आये ना जाने कितने आई.ए.एस. और आई.पी.एस. का सेवक बनकर रहा । उनके बंगलों पर झाडू़-पोंछे से लेकर बर्तन-कपड़े धोने तक का काम उसने किया, मगर उसकी हैसियत वर्कचार्ज कर्मचारी से अब ठेकेदार के मज़दूर में और तब्दील हो गई । सरकारी आदेषों ने कोर्ट-कचहरी के चक्करों से बचने के लिए उस पर मेहरबानी तो रखी मगर वह ठेकेदार का बंधुआ मज़दूर बनकर रह गया है । सुबह नौ बजे दफ्तर आना टेबल-कुर्सी, झूठे गिलास साफ करना और महीने में छब्बीस दिन की तनख्वाह पाना ही उसकी नियति बनकर रह गया है ।
आज ही उसे उसके अधिकारी ने आदेष दे दिया है-”कैलाष ! कल सुबह जल्दी आना नये चेयरमैन साहब आ रहे हैं । आकर उनका कमरा, बाथरूम, तौलिये सब रेडी कर देना । ठीक है ?“
उसने “हां“ में सिर हिला दिया है । मन ही मन वह नये चेयरमैन के बारे में सोचता बाहर जाकर कुर्सी पर बैठ गया है । वह सोचने लगा है -नया चेयरमैन आयेगा तो कौन-सा निहाल कर जायेगा उसे । सभी के आगे कितना गिड़गिड़ाया है । अपने बूढ़े असहाय बाप, सौतेली मां और विधवा बहिन की दुहाई देते देते थक गया मगर किसने उसकी सुनी है । सब अपनी-अपनी तनख्वाह और एषोआराम बढ़ाने में किस कदर पिले रहते हैं उसने पिछले तेरह वर्षो में अपनी आंखों से देखा है । नई कारों, बंगले के रंग-रोगन, मॉडरेषन, चपरासियों के लिए ये लोग सरकार को किस कदर चूना लगाते हैं ये भी उसे पता है । मगर उसे कौन पक्का करे.....। वह किसी का क्या लगता है । षायद वह उनकी सेवा-चाकरी के लिए ही बना है तभी तो आज तक उसकी सुध किसी ने ना ली ।
घर में एक असहाय बाप है । ना जाने उसकी टांगों को क्या हुआ है बीमारी का पता ही नहीं चलता । पैर अक्सर सूज जाते हे। । अब तो उनमें मवाद भरा हो ऐसी टीसन भी होने लगी है । पण्डित होने की वजह से और ज्योतिष के ज्ञान के कारण लोग कभी-कभी उससे जन्म-पत्री बनवाने आते हैं । वरना खाली बैठे बैठे मन्दिर में भजन के अलावा कोई काम नहीं है उसके बाप को ।
आज वह अपने ना पढ़ पाने पर भी इसीलिए नहीं पछताता है क्योंकि वह भर्ती दफ्तर में ना जाने कितने ही पढ़े-लिखों को मेरिट में नाम ढूंढते हुए और फेल हो जाने पर आंसू बहाते देखता रहा है । कई बार उसे उसके अनुभाग के बाबू ने कहा है-”कैलाष ! एक कॉपी ले आ । तुझे थोड़ी बहुत अंग्रेज़ी सिखा दूं जिससे तू कम से कम फाईल तो सही दे सके । कभी कोई ग़लती न हो ।“ मगर वह अक्सर कह देता है ”अजी छोड़ो । मुझे नहीं पढ़ना यह सब । देखते नहीं पढ़े-लिखे कैसे आंसू बहाते फिरते हैं । वेकेन्सी तो निकलती नहीं । तेरह साल हो गये अब पक्का हुआ....अब पक्का हुआ...। इतने टेम में पक्का चपरासी भी नहीं बन पाया तो पढ़कर क्या होगा ।“ष्षायद वह कहता भी सही है।
वह बैठे-बैठे ना जाने किन ख्यालों में खोया था कि एक चपरासी उसे नीचे बुलाकर ले गया । शायद प्रष्न-पत्रों का कोई ट्रक खाली करवाने के लिए उसे अधिकारी ने बुला लिया है । वह खुषी खुषी उठकर चल दिया है । आखिर उसे प्रति बण्डल पांच रूपये जो मिलते हैं इस काम के । मगर बण्डल ट्रक से उतारते-उतारते उसकी पींठ जवाब दे जाती है । फिर उससे रात को एक सेठ के निजी (जहां वह चौकीदारी की दूसरी नौकरी करता है) भी नहीं जाया जाता । भरी जवानी में ही कठोर परिश्रम से उसके गाल पिचक गये हैं, आंखें अन्दर धंस गई हैं । मगर करे भी तो क्या.....? धर पर दूसरी मां इतनी मेहनत के बावजूद भी उसे गरम खाना और पहनने को अच्छा कपड़ा नहीं देती । दफ्तर के बाबू लोग ही उसे वार-त्यौहार अपने पुराने कपड़े देते रहते हैं या मन्दिर का सेठ कभी-कभार कोई नया जोड़ा । उसने आज सबसे ज़्यादा बण्डल उतारे हैं शायद पच्चीस । ष्षरीर में भारीष्थकान के बावजूद एक सौ पच्चीस रूपये प्राप्त करने की स्फूर्ति बनी हुई है । मगर उसे इस बात का भरोसा कम ही है कि आज ही उसे ये पैसे मिल जायें । अक्सर अफ़सर कोई ना कोई बहाना कर भुगतान रोक लेता है । जी में आता है वह इसकी षिकायत चेयरमैन साहब से करे । मगर वह अपनी औकात जानता है । ऐसा करने पर उसे कभी भी वर्कचार्ज से हटाया जा सकता है । इतना पुराना होने के बाद भी उसे अभी तक बीच-बीच में एक माह के लिए बैठा दिया जाता है । सारे बण्डल उतारने के बाद वही हुआ जिसका उसे पहले से अनुमान था । मज़दूरी मांगने पर अधिकारी ने स्पष्ट कह दिया ”अकाउन्ट्स वाले चले गये हैं । पेमेंट कल मिलेगा ।“ उसके सीने पर घूंसा सा लगा है । वह मन मारकर साइकिल उठाकर चल दिया है । अब वह साइकिल से सीधा घर और घर से सीधा मन्दिर जाकर चैन से सो जाना चाहता है क्योंकि कल उसे नये चेयरमैन साहब की सेवा में जो लगना है । उसने घढ़ी पर नज़र दौड़ाई है । शाम के सात बज चुके हैं । सभी लोग जा चुके हैं उसके और अधिकारी के अलावा ।
वह साइकिल पर सवार हो पैडल मारने लगा है । मगर यह क्या, आज उससे जोर भी नहीं लगाया जा रहा । उसे ख्याल आया कि आज वह रिटायरमेंट की पार्टी के चक्कर में नौ बजे से भी पहले आ गया था । दोपहर में खाना खाने भी नहीं जाने दिया गया था उसे । पार्टी में मिला एक समोसा और कुछ वैफर्स ही खाये थे उसने और फिर कुर्सियां उठाने में लगा दिया गया था । मन पर एक उदासी सी और छा गई है मज़दूरी का भुगतान न मिलने से । अब पता नहीं कल भी मिले या ना मिले । तनख्वाह ही उसे महीना बीत जाने के दस-दस दिनों के बाद मिलती है । अगर उसे आज पैसे मिल जाते तो वह उन पैसों में से दूध में रबड़ी डलवाकर कुल्हड़ का दूध पीता, पचास रूपये अपनी विधवा बहन को देता और एक सिनेमा नये सिनेमाघर में देखता...।
उसे अच्छी तरह याद है जब वह बचपन में रोया करता था तो उसकी मां उसके बापू को कहती- ”जाओ जी इसे रबड़ी वाला दूध पिला लाओ ।“ तब उनके मन्दिर में चढ़ावा भी खूब आता था । कोई कमी ना थी तब । बापू भी फटाफट अपनी धेाती-कुर्ता पहन उसकी अंगुली पकड़े हलवाई के पहुंच जाते थे । मगर अचानक सब कुछ बदल गया । ष्षहर के सौन्दर्यीकरण के नाम पर सड़क चौड़ी करने के कारण उनका आधे से अधिक या यूं कहें तीन चौथाई मन्दिर तो प्रषासन ने तोड़ डाला था । कितना आन्दोलन हुआ था तब । षिव सैनिक, बजरंग दल के लोग आये थे । साम्प्रदायिक तनाव का माहौल पैदा किया गया । बस तब से आज तक मन्दिर की दुर्दषा होती चली गई । ना मन्दिर रहा, ना ही उसकी मां । बापू ने दूसरा ब्याह रचा लिया । तब नानी उसे पालने-पोसने को अपने पास ले गई । और ना जाने कब वो यूं ही नानी और सैातेली मां के बीच झूलता खाने-कमाने लायक हो गया । नानी स्वर्ग सिधार गई और उसे बापू की तबियत के कारण उनके साथ ही रहना पड़ा । जाता भी तो कहां । पहली मां से उसके अलावा एक बहन भी थी जिसकी जैसे-तैसे षादी की । मगर उसके षराबी ड्राईवर पति ने गृह-क्लेष से नषे में फांसी लगा ली । तब से आज तक वह भी उस पर ही आर्श्रित होकर रह गई है ।
वह घर पहुंचते पहुंचते पसीने से लथपथ हो गया । उसने बिना स्टैण्ड की अपनी साइकिल को दीवार से टिकाकर जैसे ही घर मे प्रवेष किया वैसे ही बापू के कराहने की आवाज़ उसके कानों में पड़ी- ”अरे राम...! आ गया बेटा ? आज तो दर्द ने जान ही निकाल दी है । जरा मेडीकल से दर्द की कोई अच्छी गोली तो ला दे । मेरी तो जान ही निकली जा रही है । “ उसने कराहते हुए अपने बाप के पैरों पर नज़र डाली, पैर सूजकर जैसे हाथी पांव हो गये हैं । वह उल्टे पैर मेडीकल स्टोर को दौड पड़ा । लौटते वक्त हाथ में दर्द निवारक उधार ली गई गोलियां और पेट मंे भूख की आग थी । उसने दवाई बापू को हाथ मंे थमा दी । जाकर रसोई में झांका, चूल्हा बुझा हुआ और कटोरदान खाली था । बहन से पूछने पर पला चला कि आज तो पड़ौैस ही में कहीं खाने पर जाना है इसलिए आज मां ने कुछ नहीं पकाने दिया । उसने कैलाष के लिए खाना बनाने को कहा भी तो यह कहते हुए कि मन्दिर पर ही खा लेगा मना कर दिया था उसकी मां ने । उसकी बहन कहते हुए उसका मुंह ताकने लगी । वह अन्दर ही अन्दर रोता अपनी साइकिल उठाकर निकल गया घर से । जेब मंे चार-पांच रूपये थे उससे उसने रास्ते में ही छोले और डबलरोटी लेकर जितना मिला पेट में डाल लिया ।
आज उसका बदन मेहनत से चूर-चूर हुआ जा रहा था मगर आंखेंा से नींद कोसों दूर थी । मन्दिर की ठण्डी जमीन पर चादर बिछाकर ऊंची छत को आंखें फाड़-फाड़कर घूरता रहा अंधेरे में । अन्दर से जोर जोर से रोने की हूक उठ रही थी मगर आंखें जैसे दुःख बर्दाष्त करते करते पथरा-सी गई थीं । उसे वह दिन बार बार याद आ रहा था जब पिछली बार वह चेयरमैन के पैरों में झुका आंसू बहा-बहाकर कह रहा था-”साब् ! दो पोस्ट खाली हुई है चपरासी की । मेहरबानी करके मुझे पक्का़़।“ मगर चेयरमैन ने हाथ झाड़ते हुए उसे कहा था-”क्या मूर्खांे जैसी बात करते हो ? दोनेां पोस्ट रिज़र्व कैटेगरी की है । मैं तुम्हें कैसे ले सकता हूं । बैकलॉग से भरी जायेंगी ?”
”पर सर मैं तो कई सालों से़....सर मैंने आपकी कितनी सेवा ...सर मेरे पिताजी असहाय हैं, विधवा जवान बहन और सौतेली मां.....।” रोते हुए उनके पैरों में गिर पड़ा था ।
”मैं कुछ नहीं कर सकता । फिर जब वेकेन्सी होगी तो तुम्हें प्रफ्रेन्स देंगे ।“ कहते हुये कमरे से निकल गया था चेयरमैन । वह सोचने लगा- क्या मुझे कभी पक्की नौकरी नहीं मिलेगी । क्या मेरा घर कभी नहीं बस पायेगा...। क्या मैं इसी तरह इन बड़े लोगों की चाकरी करते करते अधबूढ़ा हो जाऊंगा...। और फिर उसे महसूस हुआ जैसे वह एक गहरे समुद्र में समाता जा रहा है जिसमें बड़ी बड़ी मछलियां उसे निगलने को मुंह फेला कर उसकी ओर बढ़ी आ रहीं हैं । वह डरकर आंख्ेंा मूंदे ना जाने कब तक उस अंधेरे में पड़ा रहा और ना जाने कब उसे निद्रा देवी ने तरस खाकर अपनी दया का पात्र बना अपने आगोष में ले लिया ।
और दूसरे दिन नया चेयरमैन भी आ गया । उसके सामान का ट्रक खाली करवाने, बंगले की साफ-सफाई और सामान जमाने तक वह अन्य चपरासियों के साथ लगा रहा । उसे बड़ा क्रोध आता है कि केवल वर्कचार्जो को ही ऐसे कामों में क्यों लगाया जाता है । परमानेन्ट चपरासी तो दिन भर बैठे बैठे बीड़ियां फूंके और वे काम करें । यह कहां का न्याय है ? एक ज़माना था जब सरकार जनता के कल्याण के लिए नौकरियों में अधिकाधिक भर्ती करती थी । मगर वैष्वीकरण और निजीकरण के मोहजाल में फंसकर अब तो सरकारें भी खून चूसनूे वाली साहूकार सी हो गई हैं । जनता के कल्याण के बजाय अपना फायदा देखने लगीं हैं । कहां गये बापू के सपने ...। आत्मनिर्भरता का नारा पष्चिमी देषों की चकाचौंध में ना जाने कहां खो गया है । वह अनपढ़ होते हुए भी ये सारी बातें मन ही मन सोचता रहता है । आखिर बाबुओं में हो रही बहसें जो दिन भर सुनता है वह । दफ्तर और चेयरमैन का बंगला...। सैातेली मां के अत्याचारों से भरा घर और सेठ का मन्दिर...। यही क्रम है उसकी जिन्दगी का । किसी क्रिकेट मैच के री प्ले जैसा । उसकी कई बार तमन्ना होती है कि वह मन्दिर नहीं जाये । षाम को अपने दोस्त-यारों के साथ घूमे । सिनेमा देखे । मगर बहन की शादी में सेठ जी से लिया पच्चीस हज़ार एडवांस जो उसे चुकाना है, इसलिए बंधुआ मज़दूर की तरह वहां तो उसे जाना ही पड़ता है ।
आज वह बहुत उदास है । आज उसने अपनी जवान विधवा बहन को चुपचाप एक कोने में रोते जो देखा है । वह उसके दुःख को अच्छी तरह समझता है । उसके लिए उसकी मां ने एक बूढ़े से आदमी से रिष्ते की बात जो चलाई है । सुबह ही उसकी बहन को वो लोग देखकर गए हैं । मगर दान-दहेज को लेकर षायद सौदा नहीं पटा है । क्या उसकी जवान बहन उस अधबूढ़े के लायक है ? अभी उम्र ही क्या है उसकी ......। ज़िन्दगी नरक नहीं बन जायेगी उस बूढे़ के साथ ...। क्या वह उसे कभी सुख दे पायेगा । वह क्या करे । अपनी बहन के भविष्य को कैसे बचाये...। सौतेली मां तो जैसे तैसे उसे घर से विदा करने पर आमादा है । यही सब सोच-सोचकर उसका मन आज कहीं नहीं लग रहा । चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठा वह इन्हीं बातों में खोया है ।
उसे किसी ने आकर कहा -”कैलाष तुझे अटलानी जी बुला रहे हैं ।“ वह चौंक पड़ा । ये अटलानी अच्छी मुसीबत है उसकी जान को । कोई भी काम हो उसी को फंसाता है । अभी-अभी तो वह चेयरमैन साहब के चैम्बर से निकला था तब तो उसने कुछ नहीं कहा अब अपनी सीट पर बैठकर हुक्म सुनाएगा ...। सोचता हुआ चल दिया है अटलानी, जो उसका वर्कचार्ज का इंचार्ज है ।
”क्या साब ! मुझे बुलाया ?“
”हां सुन ! कैलाष आज चेयरमैन साहब के कोई काम है । बंगले पर मेहमान वगैरह आयेंगे तो तुम बंगले पर चले जाओ ।“
”मगर अब तो लंच होने वाला है । लंच के बाद चला जाऊंगा ।“
”नहीं ! साब् ने कहा है तुरन्त बंगले पहुंचो ।“ अटलानी ने उसे हिदायत दी है । वह भिनभिनाता उठ बैठा है । उसे मालूम पड़ा है कि आज चेयरमैन साहब कोई पार्टी दे रहे हैं । शायद उनके बहु-बेटे आये हेैं विदेष से । उसे किसी चपरासी ने बताया है कि उनके बेटे ने वहीं विदेष में गोरी मेम से शादी रचाई है । उनके आने पर उसी की पार्टी है । शहर के बड़े-बड़े अफ़सर भी आयेंगे शायद । वह चल दिया है बंगले पर अपनी साइकिल लेकर । पेट में चूहे दौड़ रहे हैं मगर कहीं लेट हो गया तो ...।
बंगले पर पहुंचते ही उसे झाड़ू-पोंछे, बर्तनों और अन्य कामों में लगा दिया गया है । वह पिल पड़ा है काम में । मगर काम है कि खत्म होने में ही नहीं आ रहा । यह कुर्सी उधर लगाओ, यह दरी इधर बिछाओ । टेबलों पर फूलदान सजाओ...बर्तन-डोंगे पोंछ दो...। उसे मेमसाहब के हुक्म तो मानने ही हैं । ऑफिस से मेटाडोर आकर ज़रूरी सामान छोड़कर कभी की चली गई है। गोरी बहु हिन्दुस्तानी लिबास में सजी-संवरी एक ओर बैठी टी.वी. देखने में व्यस्त है । साहब का लड़का भी उसी के पास मेहमानों की तरह बैठा है । वह मेम को देखने की गरज से बार-बार ठण्डा लेकर उसके पास पहुंच जाता है और वह हर बार एक कोका कोला उठाकर व्हिस्की की तरह चुस्की लगाने लगती है । सारा खाना शायद आर.टी.डी.सी. को आर्डर देकर बुक किया गया है । साहब भी आ गये हैं । ड्राइंगरूम, डाइनिंग हॉल का निरीक्षण कर संतुष्ट हो गये हैं । उसकी नज़र घड़ी पर पड़ी है तो वह चौंक गया है । शाम के छः बज चुके हैं ं यह तो उसके मन्दिर जाने का समय है । अगर वह जरा भी लेट हुआ तो मन्दिर का दूसरा चपरासी सेठ जी को उसकी षिकायत कर देगा और उसकी चौकीदारी जाती रहेगी । वह चिंतित सा हो उठा है मगर अभी वहां से निकलना उसके बस के बाहर है । मेहमान भी आना शुरू हो गये हैं । डी.आई.जी., एस.पी., कमिष्नर, उसके दफ्तर के मेम्बर साहब और कुछ साहब के मुंह लगे चमचे भी चमचागीरी में पहुंच चुके हैं । साहब अपने बेटे-बहु का परिचय सभी से करवाने में लगे हैं । उनका बेटा और बहु अमेरिका में किसी कम्पनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं । वहीं उनकी मुलाकात हुई और दोनों ने शादी रचा डाली ।
एक वैन में आर.टी.डी.सी. से भरकर खाना पहुंचते ही उसे खाना लगवाने की तैयारी करवाने का आदेष हो गया है । वह तो बस बर्तन सजा रहा है खाना तो साहब के चमचे और आर.टी.डी.सी. के कर्मचारी ही लगायेंगे । खाना खुलते ही उसकी नाक खुष्बू से तर हो गई है । पेट में भूख की भट्टी सुलग गई है । मलाई-कोफ्ता, पालक-पनीर, पुलाब, रायता, आइसक्रीम और गाजर के हलुए के अलावा खीर भी है । उसके सब्र का बांध टूटा जा रहा है । ऐसा खाना तो उसे साल में कभी कभार ही नसीब हो पाता है । ब्राह्मण होने के नाते लोग उसे श्राद्धों में अपने घर बुलाते हैं बस तभी । खीर देखकर उसके मुंह में पानी भर आया है । कैसी रबड़ी सी गाड़ी गाड़ी केसरिया खीर है......।
लोग खाने की टेबल पर बैठ गये हैं । मगर अभी खाना लगाया नहीं गया है बल्कि बंगले की किचिन में ले जाकर रख दिया गया है । एक चमचे ने व्हिस्की भी सर्व कर दी है । अटलानी एक ट्रे में सिगरेट के पैकेट लिए यहां-वहां साहब की नज़रों में आने के लिए घूमता फिर रहा है । व्हीस्की के दौर ”चीयर्स“ के साथ शुरू हो गये हैं । अटलानी इस बार सिगरेट की ट्रे छोड़ अन्दर कहीं से तले हुए काजू, चीज़, नमकीन और अण्डे ले आया है । उसने चमचागीरी में साहब को सर्व करने की कोषिष की है मगर साहब ने उसे टेबल पर रखने को कहकर मुंह एक ओर फेर लिया है । वह हाथ बांधे अगले किसी आदेष की प्रतीक्षा में कुछ दूरी पर खड़ा हो गया है । वह भी निरीह प्राणी सा भूखे पेट कभी मन्दिर, कभी सेठ और कभी अपने बूढ़े बाप के ख्यालों में खोया आदेषों की प्रतीक्षा में हाथ बांधे खड़ा है ।
सभी की आंखों में व्हीस्की का सरूर उतरने लगा है । लड़खड़ाती जु़बानों से अंग्रेजी़ के वाक्य भी लड़खड़ाने लगे हैं । पूरा माहौल अमेरिकी हो गया है । सभी विदेषी बहू पर अपना प्रभाव किसी ना किसी रूप में छोड़ना चाहते हे । वह भी हाथ मं व्हिस्की का गिलास लिए थोड़ी-थोड़ी देर में सिप कर रही है । उसे अटलानी ने कुछ ही देर बाद एक लिस्ट थमा दी है मेहमानों के पसंदीदा पानों की और उसे आदेष दिया गया है कि वह जाकर जब तक पान लगवा कर ले आये । वह पान लेने चल दिया है । और जब तक वापस लौटा उसने देखा कि आर.टी.डी.सी. के कर्मचारियों के साथ उसके दफ्तर के चमचे भी खाना लगवाने में लगे हुए हैं । उसकी नज़र फिर से अनायास ही घड़ी पर पड़ गई है । रात के दस बज चुके हैं । मन्दिर का चपरासी और घर में उसके बूढ़े बाप और बहन ने कितनी चिन्ता और इन्तज़ार किया होगा उसका ...। वह अन्दर ही अन्दर अपनी ज़िन्दगी पर रो दिया है । सुबह नौ बजे से उसे दस बज गये हैं एक दाना पेट में नहीं गया है उसके । इस अटलानी के बच्चे ने उसे लंच में भी नहीं जाने दिया था .....। वह मन ही मन कुढ़ने लगा है ।
खाना षायद खत्म हो गया है । वह तो पानी वगैरह रखकर बाहर बंगले की सीढ़ियों पर आकर बैठ गया था । अचानक गाड़ियां स्टार्ट होने की आवाज़ से वह चौंक पड़ा है । उसने देखा है कि दफ्तर के चमचे भी जा चुके हैं । उसे विष्वास ही नहीं हो रहा कि साहब के बंगले पर बैठे बैठे उसे झपकी भी आ सकती है । उसे आषा बंधी है कि षायद अब उसे भी खाने के लिए पूछा जायेगा । चेयरमैन साहब और मेमसाहब खाना खिलाकर उसे बड़े प्यार से कहेंगे- ”कैलाष ! आज तुमने बहुत काम किया है । देर भी बहुत हो गई है । लो ये बख्शीष बेटे की षादी की खुषी में । हो सकता है साब खुष होकर उसे परमानेन्ट ही कर दें । मगर उसके विचारों को एकदम झटका लगा है । मेमसाहब ने उसके हाथों में एक पॉलिथीन में कुछ खाना लाकर पकड़ा दिया है ”कैलाष ! बहुत रात हो चुुकी है । ये लो खाना, घर पर खा लेना । अब हम लोग भी सोंयेगें । और हां, कल सुबह जरा जल्दी आ जाना । ये सारा सामान बिखरा पड़ा है ...। बर्तन भी बहुत हो गये हैं ।“
वह यह सब सुनकर सुन्न सा हो गया है । ना चाहते हुए भी उसने हाथ बढ़ाकर प्लास्टिक की थैली का खाना ले लिया है । बंगले से बाहर आकर सड़क पर बोझिल कदमेां से बढ़ने लगा है । रात अंधेरी काली है । हवा भी गर्म...लू की तरह । मगर रात के अंधेरे से कहीं अधिक अंधेरा उसके मन में समाने लगा है । वह मन ही मन सोचने लगा है-”दलित और ब्राह्मण में क्या फ़र्क रह गया है । उसे आरक्षण क्यों नहीं दिया जाता ....? उस जैसे ग़रीब, असहाय लोगों का बैकलॉग सरकार कब पूरा करेगी....। कब उसे वर्कचार्ज से परमानेन्ट चपरासी का दर्जा मिलेगा....। आखिर वह दिन कब आयेगा जब उसके जैसे ग़रीब मज़दूरों को भी उनका हक़ और सम्मान मिलेगा .....।
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