Mukhbir - 9 in Hindi Fiction Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 9

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मुख़बिर - 9

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(9)

यार

कृपाराम का इशारा मिला तो हम लोग झटपट चल पड़े ।

पोजीशन वही थी-आगे कृपाराम और बीच में डरे-सहमे, मन ही मन जान की ख्ैार मनाते हम सब । इसके बाद भी हालत वही कि जिसका ऊंचा-नीचा पांव पड़ा या किसी गलती से कोई आवाज हुई कि पीछे से किसी न किसी बागी की निर्मम ठोकर खाना पड़ता हमे । हमारा वो दुबला-पतला साथी शायद भारी वज़न की वज़ह से अपना संतुलन नहीं संभाल पाया और जमीन पर गिरा ही था कि सारे बागी उसके सिर पर सवार हो उठे थे-बेचारे को ऐसी मार पड़ी थी कि वह पांव पड़ता हा-हा खाता बिलख उठा था ।

इस विपदा से कोन बचायेगा हमे ? दूर तक इस सवाल का जवाब नही मिल रहा था । बदन पर जगह-जगह खरोंच और नग-नग में पड़ी चोटों की पीड़ा लगातार कंपा रही थी हमे । बागियों के इशारे मात्र से चल-फिर रहे थे हम ।

जरा कहीं खड़का होता, वे लोग दबे स्वर में हमे हुकुम देते-‘‘ लेट जाओ सब !‘‘

और हम पोटलियों को लद्द-पद्द गिराते जमीन पर पसर जाते ।

बागियों में से ही कोई उठकर टोह लेता और हमे इशारा करता तो हम चल पड़ते । ऐसा कई बार हुआ ।

रास्ते में एक बरगद के पेड़ के नीचे हमे खड़ा करके कृपाराम कुछ देर के लिए कहीं चला गया था और लौट कर आया तो बड़ा खुश दिख रहा था। अपने साथियों से बोला था-‘‘ अब तक ससुरी पुलिस तो बसि तकि न पहुंच पाई, हमे कहा पकड़ेगी ?‘‘

प्रसन्न होते बागियों ने दुबारा सरपट चाल पकड़ ली थी, और उनके पीछे चलते, ऊंची-नीची पगडंडी, कंटीली-झाड़ियां छोटी-मोटी सूखी नदियां, लांघते हमारे पांव भी अनवरत उठते-गिरते रहे । कितने ताज़्ज़ुब की बात थी, कि हमे यह पूरा रास्ता सूना और सन्नाटे से भरा मिला था । न कोई आदमज़ात दिखा, न कोई जिनावर । चलते-चलते हम सब थक गये थे ।

लल्ला पंडित कुछ ज्यादा ही पस्त हो चला था, उसने हिम्मत बांधी और धीमे स्वर में रिरयाता सा कृपाराम से बोला -‘‘ मुखिया तनिक रूक के सांस ले लेवें का ? चलो नहीं जाय रहो अब ।‘‘

उसका इतना कहना मानों ततैयों के छत्ते में हाथ डाल देना था । कृपाराम बिजली की तरह पलटा और उल्टे हाथ का एक जोरदार थप्पड़ उसने लल्ला के गाल पर रसीद कर दिया था-‘‘ मादरचो तू बड़ो लफटेंट को जनो बन रहो है। सारे भिखमंगा बामन, भीख मांगवे के काजे पचास कोस चलो जायेगो, इते नखरे बता रहो है। ‘‘

उधर लल्ला डकरा उठा था और इधर बाकी डाकुओं ने दूसरे लोगों से पूछना शुरू किया-‘‘ को को हार गयो ? तुम ! तुम्म ? का तुम्म हारे !‘‘

जिससे पूछा जाता वह डर के मारे पीछे खिसक जाता और इन्कार में सिर हिला देता, पांच मिनट के इस भयानक एपीसोड के बाद हमे फिर से कूच करने का हुकुम मिला ।

पूरे दस घंटे का सफर रहा हमारा । इस बीच हम लोगों को पहले पांवों में छाले पड़े फिर अपने आप फूटे, और उनमें असह्य पीड़ा हुयी । पिड़लियां दुखीं, जांघें भर आयीं ।

रास्ता चलते ही कृपाराम ने रोटी वाली पोटली खोली और उसमें से चार-चार पूड़ी निकाल कर सबको पकड़ा दीं थी। भय और थकान के कारण, हम सबके मुंह का थूक तक सूख गया था और उस वक्त सूखे मुंह में आसानी से पूड़ी का कौर भी निगला नहीं जा रहा था, पर शायद भय के ही कारण चलते-चलते हम सबने किसी तरह रूखी पूड़ीयां निगली और रास्तें में मिली एक नदी में बागियों के ही तरीके से ढोर की तरह मुंह लगा के पानी पिया था, फिर नाक की सीध में चलती धर दी थी । दर्द के मारे सबका बड़ा बुरा हाल था । लेकिन हम छहों लोग भीतर ही भीतर इतने भयभीत थे कि दर्द की सिसकारी दूर रही, डकार, खांसी और अपान वायु तक नहीं छोड़ रहे थे । बस लल्ला पंडित की धीमी सी सीताराम-सीताराम की ध्वनि गूंज रही थी ।

आसमान में सांझ का भुकभुका सा उतर आया था । पांव के नीचे की मिटटी खरखराने लगी थी और इसी से मैंने गुनताड़ा लगाया कि हम इस वक्त राजस्थान की सीमा में घुस आये होंगे । शायद, उधर पुलिस मध्यप्रदेश में ही हमे खोज रही होगी ।

दूर पेड़ों का एक झुरमट दीख रहा था, उसी झुरमुट की तरफ चलने का इशारा पाकर हम अपहृतों ने अपने डग लम्बे कर दिये । मन में आशा बंधी कि शायद अब बैठने की मुहलत मिल जाये ।

वह झुरमुट तब पचासेक कदम दूर रह गया था, कि कृपाराम का इशारा पाकर हम सब रूक गये । कृपाराम के संकेत पर उसका एक साथी मोर की सी आवाज में कोंक उठा- ‘‘ मेयो मेयो मेयो ।‘‘

उस झुरमुट में से भी मोर कोंक उठी थी ।

थोड़ा आगे वढे़ तो पता लगा कि झुरमुट की तरह दीख रहा पेड़ों का वह झुंड एक खिरक में छाये छतनार वृक्षों का समूह है । मुझे पता था कि राजस्थान में इन्हे खिरकारी कहते हैं-इधर ऐेसी जगहों का प्रचलन है । ये खिरकारी बस्ती से दूर बनायी जाती है और इनमें रहके मारवाड़ी चरवाहे अपने जानवर चराते और उनकी देखभाल करते हैं ।

खिड़क में से दो छायायें प्रकट हुयी जिनमें से एक के हाथ में लालटेन थी । शायद उनने कृपाराम गिरोह को पहचान लिया था सो आवाज गूंजी-‘‘ जै कारसदेव !‘‘

-‘‘ जै कारसदेव !‘‘

कृपाराम का जवाब पाके निश्चिंत हुए खिरकवासी की आवाज दुबारा गूंजी-‘‘ चले आओ मुखिया ! सब ठीक है ।‘‘

कृपाराम के इशारे पर उसका एक साथी आगे वढ़ा और खिरक में पहुंच कर वह भीतर की टोह लेने खिरकारी में चला गया । पल भर बाद जब उस बागी ने कृपाराम को चले आने का इशारा किया तो सब लोग आगे वढ़ गये ।

चार फुट ऊची कंटीली झाड़ियों की बागड़ से घिरे उस अहाते में आगे की तरफ दो झोंपड़िया बनी थीं। पीछे के लगभग सौ फुट चौड़े और दोसौ फुट लम्बे अहाते में असंख्य भेढ़ें बैठी हुई दिखीं हमे ।

वहां मौजूद दोनों लोग दिखने में मारवाड़ी चरवाहे दीख रहे थे । उन दोनों में से एक पचपन-साठ साल का अधेड़ उम्र का व्यक्ति था, जबकि दूसरा आदमी पच्चीस-तीस बरस का जवान पट्ठा था । लगता था कि वे लोग मुखिया के गिरोह के ख़ास आदमी थे, क्योंकि जब कृपाराम भीतर पहुंचा, वे लोग कृपाराम से गले लग के मिले । अधेड़ मारवाड़ी बोला -‘‘ बड़े दिन में हमारी सुध लयी मुखिया ! कछू वारदात कर आये का ?‘‘

‘‘हम तो चुपि बैठे बरसात काढ़ रहे थे, पै मोड़ी चो पुलस वालों को थेाड़ी चैन मिलतु है । हरामियों ने उंगरिया कर राखी थी । हमे हाजिर कराइवे के काजें सिगरे रिश्तेदारों को डरा धमका रहे थे, सो हमने एलानिया एक बस लूटि लई और छै आदमी पकरि लाये । अब मारवाड़ी ने पहली बार पकड़ के लोगों को गहरी नज़र से देखा । मैंने भी अपने साथियों पर नजर डाली । सभी साथियों के बदन पर इस वक्त धूल में सने चीथड़े से लटक रहे थे -खुद मेरे बदन पर भी यही हाल था ।

कृपाराम ने हम सबको डांटते हुए आदेश सा दिया -‘‘ क्या अब तक चोंपे से ठाड़े हो? धूर से लदे-लदे घिनाय नहीं रहे ! धूर झारि के बेैठि जाओ सिग ।‘‘

आज्ञाकारी बच्चों की तरह हम सब ने अपने बदन की धूल झाड़ी और एक-एक कर जमीन में बैठने लगे ।

‘‘ कछू रोटी-पानी को इंतजाम है ?‘‘कृपाराम ने यकायक बूढ़े मारवाड़ी से पूछा तो उसने दांत काड़ दिये -‘‘ नहींे मुखिया, अबई हाल पुरी बनावेंगे ।‘‘

-‘‘ तुम सारे रहे ‘नौ खावे तेरह की भूख ।‘ निकारो श्याम बाबू खाना बनावे के बर्तन भाड़े।‘‘ कृपाराम ने अपने एक साथी का नाम लिया ।

अपने हष्ट-पुष्ट बदन के कारण देखने में ही हिंसक लगता एक बागी जमीन पर बैठा और पोटलियां खोलने लगा ।

-‘‘ तुममें से खाना कौन बना लेतु है ?‘‘ कृपाराम ने पकड़ के लोगों की तरफ मुंह कर जरा जोर से पूछा तो सबकी घिग्घी बंध गयी ।

मैंने हिम्मत बांधी-‘‘मुखिया मैं बना लेतु हों ।‘‘

फिर तो लल्ला पंडित भी बोल उठा-‘‘ हम भी मदद कर सकतु हैं मुखिया !‘‘

-‘‘ तो ठीक हैं ! एक भगोनी में पूरी बनाय लो, दूसरी में आलू-फालू बना लेलो ।‘‘

मैं पोटली से निकाले गये आलू और मसाले वगैरह संभाल कर खाना बनाने की मिसल लगाने लगा था । लल्ला पंडित आगे बढ़ा और मेरा हाथ बंटाने लगा ।

युवक मारवाड़ी उठा और भीतर से घी का कनस्तर ले आया था । श्यामबाबू ने कनस्तर में हाथ डालकर अंगुली में घी लिया और हाथ पर घिसने के बाद सूंघकर घी की परख करने लगा । शायद घी उम्दा और अच्छी क्वालिटी का था क्योंकि उसने अपने हाथ की अंजलि में घी का एक बड़ा सा लांदा ले लिया था, और जीभ निकाल कर थोड़ा-थोड़ा चाटने लगा था ।

-‘‘श्यामबाबू और अजै, तुम दोऊ आजि की कमाई गिन लेऊ । तनिक पतो तो लगै कि आजि वा बस से का मिल पायो ?‘‘ कृपाराम ने अपने दो साथियों को हुकुम दिया और स्वयं नंगी जमीन में ही पांव फैला के चित्त लेट गया । पोटलियां खोल के श्यामबाबू और अजय ने सारा सामान फैला लिया । नोट एकतरफ कर लिये और दूसरी तरफ जेवर का ढेर लगा लिया ।

मैं खाना बनाने के बीच उधर भी नज़र मार लेता था, मैंने अनुभव किया कि श्याम बाबू और अजय ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं है, वे बीस से ज्यादा गिनती नहीं जानते थे । हर चीज एक बिसी-दो बिसी करके गिनते थे । इस कारण ठीक से गिनती नहीं कर पा रहे थे । उनने कई बार प्रयत्न कर देखा, लेकिन रूपये नहीं गिन पाये, तो उनने सारे रूपये ज्यों के त्यों पटक दिये और दूसरा सामान देखने लगे

‘‘मुखिया, रूपया तो पकड़ में से कोऊ गिनि लेवेगो, जे देख लेउ-पांच कम एक बिसी सोने की अंगूठी और दस चैनं है, और जे आठि हाथघड़ी है ।‘‘

सहसा कृपाराम को जाने क्या सूझा, वह दूर उकड़ू बैठे पकड़ के दूसरे चार लोगों की ओर मुखातिब हो पूछ बैठा-‘‘ तुम में से ठाकुर कौन है ?‘‘

‘‘हम है मुखिया ‘‘ बड़ी-बड़ी मूंछों वाले दो लोग डरते-डरते हाथ जोड़कर उठ खड़े हुये ।

‘‘ चलो तुमि दोउ बनाओ सारे पूड़ी साग ! और जे दोई मिलिके रूपिया गिनेंगे ‘‘ कृपाराम ने फतवा जारी कर दिया ।

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