Sparsh in Hindi Moral Stories by Bharti Kumari books and stories PDF | स्पर्श

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स्पर्श

कहानी

स्पर्श

विक्रम की नींद छोटे बच्चे के रोने की आवाज से खुली। आश्चर्य हुआ कि इतनी सुबह कौन आ गया? कमरे से बाहर निकला तो हॉल में एक-डेढ़ साल की बच्ची रो रही थी। गोरी चिट्टी सी बच्ची थी और साथ में एक औरत भी जो शक्ल सूरत से मेड सी लग रही थी और शायद उस बच्ची की मॉ॑।
"मैडमजी ! इतने बड़े घर का 3500/- रेट चल रहा है।"
"अच्छा ठीक है पर क्या बेटी को लेकर..?" पत्नी श्रेया पूछताछ कर रही थी।
"ठीक, कल से आ जाना।" कहते हुए श्रेया आठ वर्षीय बेटे मोहित को आवाज देने लगी जगाने के लिए।
विक्रम अकबक सा उस औरत को देख रहा था। वही चेहरा, गोरा रंग, हल्के भूरे बाल, आँखें थोड़ी बड़ी है इसकी। हँसती तो बिल्कुल वैसे ही है। फिर उसे खुद पर हँसी आ गई, वो तो किसी गांव में...। वो, यानी सुगनी।
मेड जूही सुबह विक्रम के आॅफिस जाने के बाद काम करने आती तो दोनों का आमना-सामना रविवार को ही होता, वो भी ज्यादातर समय सोया ही रहता। लेकिन जब भी वो जगा होता दुविधा में होता। जूही को देखना चाहता भी था नहीं भी देखना चाहता था। जूही का चेहरा उससे आखिर इतना क्यूं मिलता था? कहीं ये भी..? नहीं..और अगर है भी तो अब इन सब बातों की कोई जगह नहीं वो भी इस महानगर में। फिर भी एक बेचैनी और कभी कभी ग्लानि सी भी होती। जिस बात की यादें धुंधली सी हो चली थी , जूही के चेहरे ने उसे हवा दे दी। मन बार बार अतीत की ओर जाता।
वो हरा - भरा शांत सा विक्रम का गांव और ...सुगनी। हां यही नाम था इसका। पहली बार कितना हँसा था वो ये नाम सुनकर..सुगनी..माने तोता.. नहीं .. नहीं..तोती..हे हे हे..वो ताली बजा बजा कर उछलने लगता। वो सिर झुकाकर चुपचाप चली जाती।
कभी भी आती थी वो,जब कुत्ता आंगन में गंदगी फैला देता या रात का खाना बच जाता।
एक बार लंबे अरसे तक गांव नहीं जा पाया, गया भी तो कम समय के लिए। जब इस बार दीवाली से छठ तक की लंबी छुट्टी पर दो साल बाद गांव आया तो सुबह सोकर उठते ही पहली नजर उसी पर पड़ी जो नीले रंग का घुटने तक का फ्रॉक पहने पंद्रह-सोलह साल की लड़की हाथ में सूप - दऊरा लिए डेढ़िया पर खड़ी थी।अधनींदी सी आंखें मींचकर उसको देख रहा था। तब तक माँ हंसते हुए बोली- बबुआ, ई सुगनी हई। देख तो कित्ती बड़ी हो गई। विक्रम के लगातार घूरने से सुगनी असहज सी हो गई। इतना गोरा रंग, भूरे बाल , सुंदर शरीर सौष्ठव और साफ - सुथरी भी, कौन कहता कि ये डोम ...छि: , क्या सोच रहा है वो। जिसके स्पर्श मात्र से किसी भी मौसम के किसी भी वक्त नहाना पड़ता था, उसे देखकर...!
विक्रम के मन से वो छवि जा ही नहीं रही थी । ये बीसवें साल के उम्र का असर था या सुगनी की सुंदरता का ..ये तब उसे नहीं पता था।वो शुद्ध ब्राह्मण और आर्थिक रूप से भी अत्यंत सुदृढ़ परिवार का बेटा था। तीस बीघे का खेत और छह बीघे का बगीचा वो भी घर के ठीक पीछे। आम, लीची, जामुन, कटहल, अमरूद, अनार, शरीफा, केला जैसे फलों के पेड़- पौधों से बगीचे का ज्यादातर हिस्सा भरा था , कुछ हिस्से हरी सब्जियों और खलिहान के लिए रखे गए थे और उसी बगीचे के एक कोने पर सुगनी का घर।
दुक्खा - सुगनी का बाप। अब तक छ: बच्चे पैदा कर चुका था। छठ पर्व और शादी - ब्याह, जनेऊ जैसे अवसरों पर इनकी मांग बढ़ जाती। इनके हाथों से बने बांस के पतले कमचे से बने सूप, डाला, दऊरा और पंखे के बिना पर्व और उत्सव संपन्न नहीं होते। इनकी आय का मुख्य स्रोत यही था साथ में सूअर भी पालते थे और खुशी के अवसर पर उसका मांस भी खाते। विक्रम का बचपन गांव में बीता था सो उसने कटते सूअर की चीखें सुनी थी फिर दारू पीकर शोर मचाना और सूअर की खाल से बने वाद्य यंत्र खेंजड़ी बजाकर गीत गाना।ये उनके मनोरंजन के साधन थे।
जाने उस दिन के बाद से विक्रम को क्या हुआ कि दीवाली- छठ की उन छुट्टियों में जब न किसी फल का मौसम था न ही खलिहान तैयार हुआ था, वो दिन में कई बार बगीचे के चक्कर लगा आता। कोर - कोर पर चलता कि वो दिख जाए। दिख भी जाती थी पर बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।
"ए सुगनी..!"
वो रुक गई। उसे रोक तो लिया पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे?
"तू तो बहुत बड़ी हो गई।"
उसकी आँखें और गर्दन झुक गई।
"काम सीख लिया?"
"हाँ.."
"सूप - दऊरा बना लेती हो?"
"हां"
"बाबू वैसे ही दारू पीता है?" जानता है , फिर भी पूछ रहा है। क्या करे बात करनी है और बात करने को कुछ है नहीं। थोड़ा सशंकित भी है कि किसी ने ज्यादा देर बात करते देख लिया तो...। उम्र की ये दहलीज भी अजीब होती है, मन को क्या भा जाए पता नहीं और मनोभाव अशुद्ध नहीं तो पूरी तरह शुद्ध भी नहीं होता। मन पर तन का प्रभाव भी होता है बस संस्कारों की मर्यादा तय करती है कि तन-मन में किसका पलड़ा भारी होता है?
"हाँ" उसने लापरवाही से जवाब दिया मानो ये भी कोई पूछने की बात है।
"तुम भी तो अब बड़ी हो गई हो, उन्हें रोकती क्यूं नहीं?"
"काहे रोकेंगे?"
"दारू पीना अच्छा बात नै है, इसीलिए।"
"ऐं! दारू पीना गलत बात है?" आश्चर्य से उसकी आंखें फैल गई। उसकी मासूमियत ने विक्रम को और भी मोह लिया। वो अनायास ही मुस्कुरा दिया।
"और का ! इससे तबीयत खराब हो सकती है।"
"अच्छा! अब कहूंगी।" लापरवाही से कहते हुए वो चली गई।
विक्रम दिन में बगीचे के तीन- चार चक्कर लगा ही लेता। सुगनी से बात करते हुए कई बार मन करता कि हाथ बढ़ा कर तू ले, फिर...छि: नहाना पड़ेगा।।
आज छठ पूजा के सांझ का अर्घ्य है, सब घाट पर जुटे हैं। विक्रम की नजरें चोरी से सुगनी को ही ढूंढ रही थी उसे थोड़ी सजी संवरी देखने के लिए पर किसी से पूछ भी नहीं सकता था। अचानक पानी में खड़ी छठ व्रतियों के झुंड से अलग एक व्रती दिखाई दी, वो सुगनी थी। साड़ी पहन रखी थी उसने। अर्घ्य के बाद सब व्रती अपने कपड़े बदल रही थी। सांझ के धुंधलके में उसकी नजर सुगनी पर ही थी। शरीर पर सिर्फ एक भींगी साड़ी और ठंड से सिहरती पानी से निकलती सुगनी।
भींगी हुई सुगनी विक्रम के करीब आती जा रही थी ,वो मानो किसी और दुनिया में जा रहा था। वो पास आ गई.. और पास..और..विक्रम ने हाथ बढ़ाया..छि:..नहाना पड़ेगा। उसकी आंखें खुल गई। वो बिस्तर पर उठ बैठा एक पल को सच में लगा मानो उसी अवस्था में सुगनी सामने खड़ी होकर कह रही हो - सपने में भी छूने से घबड़ाते हो , और...! खिलखिलाती सुगनी गायब।
मन लज्जा और ग्लानि से भर गया। गांव में इतनी सारी ब्राह्मण, राजपूतों की खूबसूरत लड़कियों के होते हुए उसे सुगनी ही क्यूं? और ये कैसा नियम है कि छूने से नहाना पड़ेगा। दोनों ही इंसान हैं। उनके बनाए सामान के बिना कोई भी शुभ कार्य संपन्न नहीं हो सकता लेकिन उसको छूना..।
तन-मन अजीब सा आंदोलित हो रहा था। बार- बार भींगी साड़ी में सुगनी खड़ी हो जाती है और वही सवाल दुहराती है। सोने की कोशिश की पर नींद नहीं आई, सुबह जल्दी उठना ही था।
सुबह भी छठ घाट पर अपराध बोध भरी नजरें सुगनी पर ही लगी रही। घर आकर मन को बांधने की कोशिश करता रहा। दूसरे दिन शहर के लिए निकलना था इच्छा हो रही थी कि सुगनी को देखता जाए पर मन अजीब सा हो रहा था। फिर भी निकलने से पहले बहाने से बगीचे की तरफ गया, सुगनी दिख गई।
"ए सुगनी! तूने व्रत क्यूं रखा था?"
"बस मनौती थी.."कहते हुए शरमाते हुए नजरें झुक गई।
"आज मैं जा रहा हूं।"
"अच्छा.." बेपरवाही से कहते हुए वो चली गई।
रास्ते भर अजीब सी कसक लिए वो शहर पहुंच गया। कॉलेज और किताबों में सुगनी नजर आती। दो हफ्ते बीत गए पढ़ाई बिलकुल नहीं हो पा रही थी। धीरे-धीरे मन को समेटा और पढ़ाई में झोंक दिया। घर जाने की इच्छा नहीं रही। होली आने वाली थी , मां से जब भी बात होती घर आने का आग्रह करती। एक दिन फोन पर माँ ने बताया कि होली के बाद ही सुगनी का ब्याह हो गया। उसे खुद पता नहीं चल पा रहा था कि उसका मन खुश है या दुखी? पर कुछ दिनों में अध्ययन पर एकाग्रता से सुगनी का स्मरण थोड़ा कम सा होता गया।
आज उम्र के चालीसवें साल में जब भी जूही को देखता वो याद आती। उम्र के इस पड़ाव में वो सोचता कि क्या सुगनी के प्रति उसका आकर्षण महज दैहिक था या प्रेम भी था? फिर उत्तर भी खुद ही देता कि सुगनी से दैहिक आकर्षण कैसे भला..ये जानते हुए भी कि उसे छूने के बाद नहाना...। प्रेम भी था..नहीं.. नहीं..प्रेम ही था शायद। पुरुषत्व और जाति का अहंकार भी या समाज के नियमों को न तोड़ पाने की विवशता और खीज भी ।
आज सुबह जूही कमरे में झाड़ू लगा रही थी तो डोरबेल बजी, दरवाजा विक्रम ने ही खोला। देखा एक औरत गोद में उसी रोती हुई बच्ची को लेकर खड़ी थी जिसे उसने पहले दिन जूही के साथ देखा था।
" साब.. जूही इहां काम करती है ?"
"हां.. तुम?"
"हम उसकी माँ हैं, ई बिटिया उसी की है। आज तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है तो बार-बार मां के लिए रो रही है।" विक्रम एकदम से अकबक हो गया। ये...!
"हां..हां.. जूही! इधर आना।"
जूही अपनी बेटी को लाड़ करने लगी। विक्रम ने अपने मन को निश्चित करने के लिए जूही की माँ से पूछा ही लिया - तुम्हारा नाम ?
"सुगनी।"
सुन्न सा वो सोफे में धंस गया। जूही उसके घर में बर्तन धोती है, कभी - कभी पानी का गिलास भी देती है। शायद बीस सालों के लंबे अंतराल के कारण सुगनी ने उसे बिल्कुल नहीं पहचाना। दूसरे ही पल विक्रम के चेहरे पर आत्मसंतुष्टि भरी मुस्कराहट फैल गई।

भारती कुमारी