Mukhbir - 16 in Hindi Moral Stories by राज बोहरे books and stories PDF | मुख़बिर - 16

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मुख़बिर - 16

मुख़बिर

राजनारायण बोहरे

(16)

बारात

गांव और कुटुम के हर ब्याह में वह नमक और पानी परोसता है, लेकिन आज काका ने उसे अपने खुद के ब्याह में परोसाई ते दूर रही, घर से बाहर निकलने पर भी रोक लगा दी है । सारे बदन में थोपी हुई हल्दी से हर पल एक अजीब सी गंध निकलती है, ऊपर से वक्त-वेवक्त कम्बल लपेटना पड़ता है तो पसीना के फौबारे छूट जाते है। कांधे से कमर तक लटकी कटार और उसकी पट्टी अलग कंघे से लेकर कमर तक चुभती है ।

देर रात उसे एक पत्तल में खाना मिला तो उसने बड़े स्वाद से लड्डू और रायता खाये, दूध-दही की चीजें बचपन से ही अच्छी लगती है उसे । बचपन से उसके घर में करियल ( भैंस ) पली रहीं, और जब कोई करियल छुटा जाती थी तो गड़रिया के घर में बकरिया तो बनी बनाई है । बकरिया का दूध तो भैंस से भी ज्यादा गाड़ा होता है । दूध में मीड़ के रोटी खाना कृपाराम का प्रिय षगल है ।

अगले दिन कृपाराम का कायापलट हो गया । सुबह-सुबह नाई दादा ने उसे तीन दिन बाद मलमल के नहलाया, तो उसे अपना सारा बदन रूई सा हल्का होता महसूस हुआ ।

अम्मां ने अब उसे नये कमीज पैंट पहनाये । नये कपड़ां से निकलती माड़ की गंध कृपाराम को एक नषा सा पैदा कर देती है । उस वक्त भी उसे नषे का अहसास हुआ । उसके सारे के सारे दोस्त उसे नये कपड़ा पहनते हुए देख रहे थे और उनकी नजरों से कृपाराम साफ महसूस कर रहा था कि दोस्तों को इस वक्त उसकी किस्मत से रष्क हो रहा है ।

उधर बारात के लिए सजी गाड़ियों के पास बैठे बाजे वाले घर के लोगों और दूल्हा को आते देख कर अपनी इतनी देर तक की ऊब और थकान को भूलकर उत्साह से बाजे बजाने लगे थे । पीतल के चमकदार तूतू का बाजे वाला एक फिल्मी धुन बजा रहा था- लेके पहला पहला प्यार, भरके आंखों में खुमार, जादू नगरी से आया है कोई जादूगर !

पहली बैलगाड़ी में कुछ बूढ़े पुरानों को बैठा कर गंगाराम ने हंकैया को बैलगाड़ी बढ़ाने का इषारा किया, तो हांकने वाले ने अपनी चामटी फटकारी-चल रे गबर-गनेस मोड़ा त्याह लायें । उसका इषारा पाकर बैलों ने सिर मटकाया और तेजी से आगे बढ़ लिये । फिर तो होड़ लग गई, सारे मेहमान एक एक करके वहां खड़ी बैल गाड़ियों में बैठने लगे थे । सब ने अपने-अपने दोस्त चुन लिये और दोस्तों के झुण्ड अलग अलग बैलगाड़ियों में बैठने लगे ।

तब सूर्य डुब चुका था और अंधेरा होने को था कि कृपाराम से किसी ने कहा, देख लला वो दीख रहो तिहारी ससुराल को गांव !

उत्साह और उमंग से कृपाराम ने गांव की तरफ देखा ।

गांव के बाहर गेंवड़े पर लाल-पीले पग्गड़वाले आठ दस बुजरग आदमी बैठे थे उनने एक साथ कई बैलगाड़ियां आती देखीं तो वे एक-एक कर उठ कर अपनी धूल झाड़ने लगे । पहली बैल गाड़ी वाले से उनने पूछा-कौन की बरात है भैया?

बैलगाड़ी हांकने वाला अकड़ कर बोला-गंगाराम घोसी के लरिका की बरात है !

उन सब की आंखों मे चमक आ गई, वे इसी बारात की अगवानी के लिए जाने कब से आकर बैठे थे । वे आगे बढ़े और दूल्हा के बाप को ढूूढ़ने लगे । किसी ने पहचान कराई तो उन सबने गंगा राम के घुटने छूकर भेंट क्वांरे की और बोले-चलो जनवासे में तुम सबकी बाट चाहि रहे हैं सब के सब ।

एक बगीचा में खुले मैदान में बीचों-बीच एक खूब ऊंची बल्ली गाड़कर पच्चीस-तीस हाथ चौड़े गोल कपड़े की चांदनी का गोल चंदोवा तान दिया गया था, जिसके नीचे बरात के रूकने का बंदोबस्त था । यहां से वहां तक दर्जनों तिरपाल और फर्स बिछा दिये गये थे । वहां भी लड़की वाल्रे घर के कुछ लोग बैठे बरात का इंतजार कर रहे थे ।

कुछ देर में ही यहां से वहां तक बराती पसर गये थे ।

लोग सुस्ता ही नहीं पाये थे कि लड़की वाले का नाई आकर खड़ा होगया- अब दरवाजे पै टीका के लाने चलिवो होय बघेला जी !

बराती दरवाजे पर जाने के लिए सजने लगे ।

कृपाराम ने कपड़ा पहन लिए तो मामा ने आगे बढ़के उसे टीका लगाया

सब एक दूसरे से पूछ रहे थे- क्या दूल्हा घोड़े पर बैठेगा ! उनके गांव में तो ठाकुर-बामन ऐसा नहीं होने देते! मजाल क्या है कि कोई छोटे वर्ग का आदमी घोड़े पर बैठा कर अपने बेटे की बरात निकाल ले । ऐसा लगता है कि इस गांव के लड़की वाले ने बड़े लोगों से अनुमति ले ली होगी, तभी घोड़ा भेज दिया; नहीं तो उनके गांव में दूल्हा या तो फूफा की गोदी में चढ़ कर टीका करवाता है, या फिर साइकल पर बैठ कर टीका करवा लेता है ।

दूल्हा को बैठने के लिए घोड़ा क्या आया, बराती लोग जहां थे वहीं नीचे बैठ कर आपसी बहसबाजी में उलझ गये-ऐसा कैसे संभव है कि एक गड़रिया को घोड़े पर बरात निकालने की अनुमति दे दी गई । सबको आषंका थी कि हो न हो लड़की के बाप ने जबरन ऐंठ में घोड़ा मंगा लिया है और हो सकता है कि जब गांव से बरात निकले तो इस गांव के ठाकुर-बामन दूल्हा की बेइज्जती कर डालें ।

घोड़े के बहाने जाने कितनी तरह की बहस चल पड़ी थीं । एक जगह चर्चा थी कि अपने यहां रिवाज के मुताबिक दूल्हा को घोड़े पर नहीं बैठाया जाता, बल्कि घोड़ी मंगाई जाती है । तो वहां प्रष्नकर्ता पूछ रहे थे कि घोड़ा-घोड़ी में क्या फर्क हौ भला ? और बताने वाला अपनी बु़िद्ध से इस रिवाज का मतलब समझा रहा था ।

एक जगह इस बहाने गड़रियों समेत सारे पषुपालकों के षोषण पर बातचीत चल पड़ी थी । एक बुजर्ग बता रहे थे-इन ऊंची जात वालों ने अपनी जात को तो बरबादी चाहने वाला मान रखा है । आपस में कहावत कहतु है-अहीर गड़रिया गुजर, तीनों चाहें ऊसर ! अब जे बेटी-चो बतावें, कि हम काहे ऊजर चाहेंगे, हम तो अपनी गाड़र-बकइया के लाने हरो-हरो चारो चाहेंगे ।

यह कहावत सुनकर दूसरा बूढ़ा बोल उठा था-अरे हमे तो सीधो सत्यानासी कहतु है ये लोग । अप सबने कहावत सुनी हंुइये- अहीर गड़रिया गूजर पासी, ये चारों सत्यानासी । अब इन सबते कौन पूछे कि भैया हम सबही तो तुम्ह सबिके पेट भरि रहे, तुम्हारे लाने घी दूध मिले, जाके लाने हम गोबर-पेषाब की बदबू सूंघतु, ढोर की गंदगी साफ करतु और तुम हमते सत्यानासी कहि रहे ।

तीसरा व्यक्ति थोड़ा कम उत्तेजित था-अरे बाकी बातें तो हमारे धंधे से और हमारे ढोरन से जुड़ी हैं, अकेले हमे मूरख कहिवे को इनके पास का तरक है। एक कहावत बनाई है-सुबह को निकरो संजा के घर आव, गड़रिया कमा जाने गेंहुंअन को भाव ।

इस झुण्ड में ज्यादा लोग थे इसलिये बाकी झुण्ड के लोग भी इधर आकर इकट्ठे होने लगे थे । भीड़ बढ़ती देख एक नेता नुमा व्यक्ति उठ खड़ा हुआ, और बोलने लगा-गड़रिया विरादरी के सम्मानीय सदस्य गण, एक विदेषी विद्वान ने कहा है कि सारे आर्य लोग मूल रूप से गड़रिया थे । सब जानते हैं कि इतिहास के ग्रंथों में साफ लिखा है कि आर्य लोग अपने पषुओं के लिए उम्दा चरागाह ढूढ़ते हुए इस देष में चले आये । इस तरह इस देष के वे सब लोग जो अपने को ऊंची जाति का मानते हैं वे सब या तो गड़रिया हैं या गड़रियों की संतानें हैं, और क्या बतावें, ये ब्राहमण लोग वेद-ग्रथों को सबसे ऊंचा मानते है, लेकिन कोई उनसे पूछे कि उन्ही विदेषी विद्वान का लिखा हुआ पढ़ें जिसमें वे कहते हैं कि वेद कोई धर्म ग्रंथ या ईष्वर के बनाये ग्रंथ नहीं है, ये तो गड़रियों के गीत है, तभी तो उनमे जगह-जगह अपने ढोरों के लिए समृद्ध चरागाह, अथाह पानी और अच्छे मौसम के लिए प्रार्थना की गई ।

एक पल को रूककर वह बोला-भाईयों, ढोर पालने से हम छोटे नहीे होजाते ! इतिहास पलट कर देखोंगे तो पता चलेगा कि संसार में बड़े-बड़े लोगों ने पषु पाले है। भगवान किसन को भले ही लोग यादव कहें, पर असल मंे वे पहले पषुपालक थे । महादेवके अवतारी कारसदेव भी पषुपालक थे भले ही उन्हे गुर्जर लोग अपनी विरादरी के मान कर उनकी पूजन करते रहें । ईसामसीह का जन्म एक पषुषाला में हुआ था और वे अपने उपदेषो में खुद को गड़रिया और अपने अनुगामियो को गाड़रें कहा करते थे । राज चंद्रगुप्त मौर्य गड़रिया बालक था । सारे गड़रिया राजा अजयपाल के वंषज है, यह बात आप और हम भली प्रकार जानते है। हमारे यहां पाल राजाओं का एक प्रतापी वंष हुआ है, वे सब राजा लोग पाल यानि गड़रिया थे । राजा और योद्धा ही नही, बड़े-बड़े कलाकार भी हमारी विरादरी में हुये-जिनमंे तानसेन ओर बैजू बावरा का नाम प्रथम गिनती में आता है ।

उसकी बात सुनकर लोगो ने जोर से जयकारा लगाया और देर तक तालियां बजाते रहे ।

कमीज-पजामा धारी एक सज्जन गला खंखार कर उठे और बोले- कुंजे बाबा की बात के बिना यह चर्चा अधूरी रहेगी । आप सब जानते हो कि कुंजे बाबा गड़रियों के कोकोलोरिया गोत्र के थे और उनके सिगरे बदन में कोड़ हो गया था, उनने तपस्या करी ओर सोने सा बदन फिर पा लिया । उनकी तपस्या का असर आज तक है कि उनकी पूजा हम सब गड़रियों में होती है, किसी गांव मंें हमारी जाति का केवल एक घर काहे न हो कुंजे देवता की मढ़िया जरूर बनी होगी। हमारे लिये ढोर सबसे बड़ी दौलत है, और हमारे ढोरों की हारी बीमारी ठीक करने वाले होने से कुंजे देवता हमारे सबसे बड़े भगवान है । वे हमारे सब गोत्रों मे पंुजते है। चाहे हम सागर, पटोरिया, रठोरिया, हिरनवार, हिन्नवार, कोकोलोरिया, रछारिया, पड़ेरिया, चंदेल, मौर्य, लखोमिया रेनबार, रेकवार बानिया, पुरा, धनोरिया, पेंदवार में से कोई काहे न हों ।

वहां तो सभा का माहौल बन गया था । सब लोग जाने आने की सुरत भूल कर बैठ गये थे और हर बोलने वाले की बातें ध्यान से सुनने लगते थे । एक नवयुवक जो कहीं बाहर कस्बे में पढ़ रह था, वह उठ कर खड़ा हुआ और उस नेता नुमा आदमी से पूछने लगा-चाचा आप बताओ कि अपने यहां ब्याह पढ़ने के वास्ते पहले बामन काहे नही आता था ?

वे सज्जन उठे-देखो बेटा सच्ची बात पता नही, कै क्या बात रही होगी? कोई तो ये कहता है कि एक बार किसी गड़रिया ने बामन के लिए अपने घर में किसी मंगल उत्सव में पूजन कराने बुलाया तो बामन नही आया । कारण पूछने पर कहने लगा कि तुम्हारे यहां हजारन भेड़-बकरी है, रोज कोई न कोई ब्या जाती है, और इस वजह से तुम्हारे यहां सदा ही सोर-सूतक बना रहता है, सो तुम्हारे यहां हम कभी पजन कराने या ब्याह पढ़ने नहीं आयेंगे ।

एक कथा यह भी सुनाई जाती है कि एक गड़रिया के लड़का की बरात जा रही थी कि रास्ते में एक बामन मिल गया, उसकी मोटी चुटइया, मोटा जनेऊ और बड़े तिलक मुद्ररा देखके सबने समझा कि बड़ा जानकार पंडित है, सो सबने उससे निवेदन किया कि पंडित देवता हमारे यहां ब्याह पढ़ने चलो । वह बोला कि मैं तो बिना पढ़ा लिखा आदमी हूं, मंतर-तंत्तर नहीं आते ! बरातियों ने समझा यह बहाना बना रहा है, भला बामन आदमी बिना पढ़ा लिखा कैसे हो सकताहै ? सो वे उसे जबरन उठा के अपने साथ ले आये । फिर जब भांवरन के बखत पंडित ने मण्डप के नीचे भी वही बात कही कै मै निरक्षर हूं तो बरातियों ने हंसी-ठेला में उसके साथ झूमा-झटकी कर दी, यानि कि उसे इतना पीटा कि वह मर ही गया, फिर उस पंडित की लाष को पटा के नीचे दाब के बोले-पंडित मार पटा तर दाबो, हो जा मोड़ा-मोड़ी चांईं मांई !

......उस दिनसे बामनों ने गड़रिायों के यहां आना जाना बंद कर दिया ।

......बरसों बाद झांसी मे सेठ दीनानाथ पाल ने 1911 में ब्राहमणों की एक बड़ी सभा बुलाई और सबसे प्रष्न पूछा कि क्या गड़रिया षूद्र होते है, तो सब बामनों ने आपस में शास्त्रार्थ करके निर्णय किया कि गड़रिया षूद्र नही होते है।

कस्बे में पढ़ रहे युवक ने दुबारा उठकर प्रष्न किया-जब बामन नही आता था तो हमारे यहां ब्याह कैसे होते थे ?

एक बूढ़े दादा उठ खड़े हुए और बोले-अरे पगले इतनो नाने जान्तु तैं ! पंचन से बड़िके काहे के बामन और काहे के को ? उन दिनों में देा सरई (दिया) में सुपारी, चावल, दक्षिणा, हल्दी कीगांठ रखके दोनों दियों के मुंह आपस में जोड़ देते थे और ऊपर से कलावा ( आंटी-लाल रंग का धागा) लपेट देते थे । फिर समाज के बुजु्रर्ग और पूज्य व्यक्ति आसपास बैठ जाते थे । उन दियं को अपने दोनो हाथों में लेकर बजाते भऐ सब लोग एक दूसरे को देत जात हते ओर मण्डप के नीचे खंभ के चारई तरफ ओर दूल्हा-दुलहिन सात भांवर के लिये चांई-मांईं घूम जाते हते । उस समय कहो जाउत हतो-

सब जने मिल के सरैया बजाओ, दूल्हा दुलेनि सात बार घूम आओ

जा से बढ़के कौन सो न्याओ, कहो भइ्र पंचो हो गओ ब्याओ

खाली घोड़ा

कृपाराम के दादा बीच में खड़े हो कर बोले...अब सब पंचों से विनती है कि टीका के लाने दरवाजे पै चलिवो होय, कल के बखत दुबारा हम लोग बैठ के बातचीत करेंगे ।

बरात चली तो सतर्कता के नाते गंगाराम ने अपने बेटे को घोड़े पर नही चढ़ने दिया । आगे-आगे बाजे बजते चले, उनके पीछे बरात बीच में दूल्हा और अंत में खाली घोड़ा चलता रहा ।

लड़की वाले के दरवाजे पर बरात पहुंच गई तब एन दरवाजे के सामने घेाड़ा खड़ा करके कृपाराम को बिठाया गया । दुलहिन का बाप हाथ में पूजा की थाली लेकर खड़ा हो गया, उनका पंडित बगल में खड़ा था और उसने मंत्र बोलना आरंभ कर दिया था-गणानामत्वा गण्पति गुमम हवामहे

प्रिया नाम त्वा प्रियपति गुम्म हवामहे

निधिनाम त्वा निधिपति गंुम्म हवामहे

बसो मम आहम जानि गर्भ्भ धम्मः त्वम जासि गर्भघ्वम:

सुबह देर तक सारे बराती अलमस्त और बेचिंत होकर सोते रहे ।

दुलहिन के बाप ने एक धोबी भेज दिया था जो कुंआ की जगत पर बैठ कर सबके कपड़े धो रहा था । बगल में छुरा-उस्तरा धरे एक नाई आकर बैठ गया था जो लोगों की दाड़ी और हजामत बना रहा था । बरातियों के नखरे जग गये, लोग नाई के सामने बैठ कर अपनी हप्तों की बड़ी दाड़ी और बाल नाई से छिलवाने लगे । उधर घोबी के सामने कपड़ों का बड़ा ढेर लग गया था ।

कुंआ के ठण्डे पानी से लोगों ने जी भर के नहाया और एक तरफ रखा सरसों का तेल बालों और हाथ पांव में चुपड़ने लगे ।

दोपहर के एक बजे लडकी बाले की तरफ से भोजन का बुलौआ आया तो लोग कपड़े पहर-पहर कर तैयार होने लगे ।

भोजनों के वक्त औरतों को ष्संभवतः मस्ती चढ़ आई थी, सो वे अब सीधे सीधे गारी गाने लगीं थीं-

सजन तुम बातन के बड़िया

गंगाराम अक्कल के गड़िया, मेरी भंवर कली

कहत हते मेरी महल अटारी, और बनी छजिया, मेरी भंवर कली

छजिया मजिया कछुई नई है द्वार खड़ी टटिया..... मेरी भंवर कली

क्हत हते मेरे मोड़ा मोड़ी एक से इक बड़िया.... मेरी भंवर कली

मोड़ा मोड़ी कछूई नई है, जनम कै है रडुआ, ........ मेरी भंवर कली

कहत हते मेरे भैंसे गइये और बंधी बछिया

गइयें भैंसे कछुई नही है द्वार बंधी कंुतिया, ......मेरी भंवर कली

कृपाराम को लग रहा था कि गारियां सुन कर काका वगैरह नाराज हो उठेंगे, लेकिन उसे ताज्जब हुआ कि वे सब मुसकराते हुए गारियां सुन रहे थे । इस तरह मुसकाने से गाने वाली महिलाहओं का हौसला वढ़ा और वे दूसरी गारी गाने लगीं-

मेरी नौकर हो सारे, तुझे मजूरी दे दउंगी

दे दउंगी रे दिलाय दउंगी, तुझे मजूरी दे दउंगी

सुन लो रे गंगाराम, जमनाप्रसाद, रेवतीप्रसाद, दूल्हा के फूफा-मामा हो

मेरी सेवा में नौकर हो सारे ...........तुझे मजूरी दे दउंगी

अन्नो दर, मेरो दन्नो दर, मेरी नौ मन भूसी फटक सारे, तुझे मजूरी ....

आखर झार, मेरी बाखर झार, मेरे चूल्हे में चौका लगा सारे.... तुझे मजूरी

खटिया बिछा, बिछोना बिछा मेरी सेजों में तकिया लगा साारे.... तुझे मजूरी

साड़ी धो मेरो साया धो मेरी चोली मेंसाबुन लगा सारे...... तुझे मजूरी

दूल्हा और उसके घर के लोगों का भोजन समाप्त हो गया लेकिन गारियां पूरी नहीं हुईं । सब लोग कुल्हड़ के पानी से चुरू लेकर हाथ धोने लगे, और साफी से मुंह पोंछते हुए भीतर झांकने लगे कि आखिर वे कौन दबंग औरतें हैं जो ऐसे साफ ढंग से मजूरी देकर घर और अपने निजी काम कराना चाहती है, लेकिन वे सब निराष हुए क्योंकि अंदर सारी औरतें घूंघट डाले बैठी थीं । सब लोग मुसकराते उठे और जनवासे को लौट गये ।

कृपाराम जब मण्डप में पहंुचा उसकी सास ने आगे बढ़के उसे अपने हाथ से दोना मे ंरखा दही-गुड़ खिलाया, और उसके दांये हाथ की छिंगली पकड़ के मण्डप के नीचे खम्भ के पास ले आई।

सामने ही कृपाराम के ससुर बैठे थे जिनकी गोदी में पीली सी साड़ी पहने एक कम उम्र की लड़की बैठी थी जिसके चेहरे पर हाथ भर का घूंघट था ।

’चलो बघेले जी कन्या दान करिये ‘ कहते हुए पंडित ने आटे की बनी एक लोई दुलहिन के हल्दी लगे पीले हाथो में रख दी थी और दुलहिन का हाथ उसके मां बाप ने अपने हाथ में ले लिया था। पंडित महाराज जोर जोर से जाने किस भासा में मंतर सुन रहे थे । भावुक होती स्त्रियों का स्वर ठनकदार आवाज में वे गा रही थीं-

गउअंन के हाथ सदा नित होवे कन्या के दान न होंय रामजी

गउओं के दान पुरोहित को दीन्हे, कन्या को दान दामाद को हो राम जी

घर ही गंगा, आजुल घर ही हो जमुना घरही हो तीरथ हो राज मी

मड़वा तरे हो अजुला गंगा बहत है, जा मै करो इसनान हो राम जी

पंडित ने इषारा किया तो दुलहिन के पिता ने अपनी बेटी का हाथ कृपाराम के हाथ में दे दिया। वह गर्म और नर्म सा हाथ अपनी हथेलीयों में संभालते वक्त कृपाराम को फुरहरी सी लगी।

उधर पंडित ने दूल्हा-दुलहिन को अगल-बगल बैठा कर कृपाराम के ससुर से कहा था- चलो पांव पखारो, बघंेला ।

फिर दूल्हा-दुलहिन के पांव पखरई का यह क्रम देर तक चला, सांझ से रात हो गई और रात भी आधी होने को आगई थी । दस दिनों से लगातार गाते रहने की वजह से महिलाओ के गले बैठ गये थे, लेकिन वे हार नहीं मान रहीं थीं और अब भी गा रही थीं-

पलंग मेरो हीरन से जड़ियो, पलंग मेरो मोतिन से जड़ियो

सजे तुम्हारो महल पंलग मेरो हीरन से जड़ियो !

कुंआ में दो मेड़का जी मोय पानी भरन न देंय

पंासे पकड़े लेज को जी छूंटें न छूट न देंय, , , पलंग मेरो

त्ुारसाने को मोगरा जी, जेमे करिया नाग

काटत काटत मैं बची जी पिया तुम्हारे भाग...पलंग मेरो

रखनों नहीं जी कांच को जी छिंगरी को दुख देय

ऐसे सजन को करूं जो हंसे न ऊतर देय....पलंग मेरो

छज्जे से छज्जे मै फिरूं झांके देवर जेठ

छज्जे से मैं गिरूं लगी महीना चोट..... पलंग मेरो

अस्सी कली को घाघरो री धरो पलंग के बीच

साजन मेरे नादना कि मच रही कीचमकीच....पलंग मेरो

मोट खददारी ओढ़ने जी सास न ओढ़न देय

ओढ़ बजारे मैं गई जी घर आ ओलम देय,,, पलग मेरो

तारा में तारा बसे जी चंदउ बसे अकास

घर में साजन यों बसे जी जो दरपन मे कांच

पलंग मरो हीरन से जडिंयो............

दोपहर को बाहर चबूतरों पर तो बरातियों की दुबारा पंगत बैठने लगी थी कि भीतर विदा की तैयार होने लगी । एकाएक कृपाराम के दादा ओैर उसके ससुर के बीच जाने किस बात पर विवाद होने लगा था । भीतर से औरतें भी तेज स्वरों में जाने क्या-क्या बोल रही थीं । कृपाराम ने षंकर से कहा कि वह मामला समझ के आये कि क्या मामला है!

थोड़ी देर बाद लौटकर षंकर ने बताया कि दुलहिन छोटी उमर की होने से उसका बाप विदा नही करना चाहता लेकिन कपाराम के दादा खाली बारात वापस ले जाने को तैयार नही है- वे कह रहे है कि जैसी हंसती खेलती है, वैसी ही वहां भी हंसती खेलती रहेगी ।

अंततः समाज के कुछ लोगों के हस्तक्षेप के बाद मामला निपटा कि लड़की की एक बहन भी उसके संग जायेगी ।

तब दोपहर के दो बजे थे जब उनकी बैल गाड़ियां अपने गांव के लिये सज के खड़ी हो गयीं। हल्दी का हमला यहां भी हुआ, अब तक गारीगा रही महिलाऐं अपने हाथों में हल्दी थथेरें बरातियों पर औचक हमले करने में जुट गई थीं । जवान लड़के तो बिगड़ने लगे थे, लेकिन प्रौढ़ लोग इस खेल से प्रसन्न थे ।

गांव के गोंवड़े तक कृपाराम के पिता बारात केा छोड़ने आये ।

अंधेरा होते-होते उनकी बैल गाड़िंयां अपने गांव पहुंच गईं ।

अम्मां और बजार वाली भौजी ने लपक कर दुलहन को संभाला

लल्ला पंडित ने पूछा-दाऊ, फिर तुम्हाऔ चौक तो पांच साल बाद भओ हुइये !

हां पांच साल बाद हम जब खूब सयाने भये तब हमाई अम्मां ने जिद करके हमारो गौनो करो, नाही तो हमारो ससुर कहित हतो कि हमाई बिटिया अबे भी छोटी है, अबे नही भेज रहे हम ।

इतना कह कर कृपाराम ने हंसते हुए अपना किस्सा समाप्त किया और कहा कि कल मैं बताउंगा कि हम लोग डाकू कैसे बने।

उस रात सोते वक्त मेरे कान में कृपाराम के ब्याह के वे सारे गीत गूंज रहे थे जो उसने बाकायदा गा कर भी हम सबको सुनाये थे ।

देर रात जाकर नींद लगी मेरी उस दिन ।

***