Letter - Dear Mom in Hindi Letter by Haider Ali Khan books and stories PDF | ख़त - डिअर माँ.....

Featured Books
  • The Devil (2025) - Comprehensive Explanation Analysis

     The Devil 11 दिसंबर 2025 को रिलीज़ हुई एक कन्नड़-भाषा की पॉ...

  • बेमिसाल यारी

    बेमिसाल यारी लेखक: विजय शर्मा एरीशब्द संख्या: लगभग १५००१गाँव...

  • दिल का रिश्ता - 2

    (Raj & Anushka)बारिश थम चुकी थी,लेकिन उनके दिलों की कशिश अभी...

  • Shadows Of Love - 15

    माँ ने दोनों को देखा और मुस्कुरा कर कहा—“करन बेटा, सच्ची मोह...

  • उड़ान (1)

    तीस साल की दिव्या, श्वेत साड़ी में लिपटी एक ऐसी लड़की, जिसके क...

Categories
Share

ख़त - डिअर माँ.....

ख़त:

डिअर माँ,

ना जाने कितने आँसुओं को अपने दामन में समेटकर माँ घर में चुपचाप रहा करती है, सबको अपनेपन का प्यार देकर वह ख़ुद को कितना अकेला मानती होगी जब ज़रा सी ग़लती पर पापा, भाई, बहन और तो और दादी भी क़तई कुछ भी कहने को नहीं चूकतीं।
माँ! मुझे नहीं मालूम लेकिन जब कभी घर पर दबे पांव आता हूँ तो तुमको अकेले में रोता हुआ पाता हूँ, एक दिन याद है मुझे माँ! पापा के कुछ कहने पर आप पूरा दिन रोईं थीं जब मैंने पूछा तो आपने बोला कि बेटा आपके नाना की बहुत याद आ रही है फिर आपने नानी के हाथ की वह लाल गोटे वाली चुन्नी ओढ़कर ख़ुद को आईने में देखने लगीं, कितनी अच्छी लग रही थी ना मेरी माँ, सबकी जिम्मेदारियों और फिक्रों के बोझ ने माँ को वक़्त से पहले बूढ़ा कर दिया था, माँ कहती भी तो किससे और कैसे कहती कि उसके पास भी एक दिल है उसको भी जीने का बिल्कुल वैसा ही हक़ है जैसा हम सबको,, क्यूँ हम माँ! पर हर बात पर इतना हुक़्म चलाते हैं? क्यूँ पापा दरवाज़ा थोड़ी देरी से खुलने पर माँ को चिल्लाते हैं? क्यूँ भैय्या ड्रैस प्रेस ना होने पर माँ पर अपनी नज़रें बिगाड़ते हैं? क्यूँ दादी सुबह की चाय थोड़ी देरी से मिलने पर पापा से शिकायतें लगाती हैं? क्यूँ..क्यूँ..क्यूँ....!
क्यूँ...मैं ख़ुद माँ को बोल देता हूँ कि आपको कुछ नहीं पता? आख़िर क्यूँ ऐसा बोल देता हूँ..
जबकि माँ! सच यह है कि माँ तुम हम सबकी फ़िक्रों में यह भूल गयी हो कि तुम भी नाना की गुड़िया हो..
आज माँ! एक ख़त लिख रहा हूँ हो सके तो हम सबको माफ़ कर देना...
---
@लेखक: हैदर अली ख़ान

ख़त:

डिअर माँ,

ना जाने कितने आँसुओं को अपने दामन में समेटकर माँ घर में चुपचाप रहा करती है, सबको अपनेपन का प्यार देकर वह ख़ुद को कितना अकेला मानती होगी जब ज़रा सी ग़लती पर पापा, भाई, बहन और तो और दादी भी क़तई कुछ भी कहने को नहीं चूकतीं।
माँ! मुझे नहीं मालूम लेकिन जब कभी घर पर दबे पांव आता हूँ तो तुमको अकेले में रोता हुआ पाता हूँ, एक दिन याद है मुझे माँ! पापा के कुछ कहने पर आप पूरा दिन रोईं थीं जब मैंने पूछा तो आपने बोला कि बेटा आपके नाना की बहुत याद आ रही है फिर आपने नानी के हाथ की वह लाल गोटे वाली चुन्नी ओढ़कर ख़ुद को आईने में देखने लगीं, कितनी अच्छी लग रही थी ना मेरी माँ, सबकी जिम्मेदारियों और फिक्रों के बोझ ने माँ को वक़्त से पहले बूढ़ा कर दिया था, माँ कहती भी तो किससे और कैसे कहती कि उसके पास भी एक दिल है उसको भी जीने का बिल्कुल वैसा ही हक़ है जैसा हम सबको,, क्यूँ हम माँ! पर हर बात पर इतना हुक़्म चलाते हैं? क्यूँ पापा दरवाज़ा थोड़ी देरी से खुलने पर माँ को चिल्लाते हैं? क्यूँ भैय्या ड्रैस प्रेस ना होने पर माँ पर अपनी नज़रें बिगाड़ते हैं? क्यूँ दादी सुबह की चाय थोड़ी देरी से मिलने पर पापा से शिकायतें लगाती हैं? क्यूँ..क्यूँ..क्यूँ....!
क्यूँ...मैं ख़ुद माँ को बोल देता हूँ कि आपको कुछ नहीं पता? आख़िर क्यूँ ऐसा बोल देता हूँ..
जबकि माँ! सच यह है कि माँ तुम हम सबकी फ़िक्रों में यह भूल गयी हो कि तुम भी नाना की गुड़िया हो..
आज माँ! एक ख़त लिख रहा हूँ हो सके तो हम सबको माफ़ कर देना...
---
@लेखक: हैदर अली ख़ान