Doosra sira in Hindi Moral Stories by Shobhana Shyam books and stories PDF | दूसरा सिरा

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दूसरा सिरा


दूसरा सिरा


"ये क्या हो गया सुषमा ! अभी पिछले हफ्ते तो तुझसे बात हुई थी, तू तो मुझे करवाचौथ की पूजा पर बुला रही थी और कल पता चला कि करवाचौथ के दिन ही तेरा रसोली का ऑपरेशन हो गया |"--अस्पताल के बैड पर लेटी सुषमा का हाथ अपने हाथों में ले कनक ने कहा |

" हां ....अचानक ही हो गया सब कुछ ,कई दिन से हल्का हल्का दर्द तो हो रहा था , पर मैने ध्यान नहीं दिया| कल सुबह तड़के तीन बजे ऐसा भयंकर दर्द उठा कि सुबोध फोरन हस्पताल ले कर भागे , डॉक्टरों ने तुरंत आपरेशन की सलाह दी | बस शाम तक ऑपरेशन भी हो गया | पता है चार किलो की रसौली निकली है |"
ज़रा कराहते हुए सुषमा ने आगे कहा - "तू बता कैसी है , एकदम पीली जर्द लग रही है ,तबियत तो ठीक है तेरी ?"
"हाँ.....नहीं ...बस ऐसे ही ,कोई है भी तो नहीं जो मेरा ध्यान रख सके , घर का काम और ऑफिस के बीच चकरघिन्नी बनी हुई हूँ , निशांत को तो अपने ऑफिस से फुरसत ही नहीं मिलती |" पत्नी की सेवा में लगे सुबोध की ओर एक उड़ती नज़र डालती हुई कनक ने कहा | ईर्ष्या की एक हलकी सी रेख
को आँखों में झलकते झलकते सायास रोक लिया था उसने लेकिन सुषमा की नज़र तब तक उस क्षणांश को लपक चुकी थी | उसने धीरे धीरे कहना शुरू किया -
कनक, मेरी सखी ! उस दिन जब मैंने करवाचौथ की पूजा में बुलाने के लिए तुझे फोन किया तो तूने विवाह ओर वैवाहित जीवन से जुड़े छोटे मोटे पर्व ओर व्रतों का खूब मजाक बनाया अपने लिव इन रिश्ते में निहित आजादी की वक़ालत करती रही | ये छोटे-छोटे व्रत संस्कार तुझे औरत पर थोपे गए बंधन लगते है पर इन्हीं बंधनों के दूसरे सिरे से वो भी परिवार को इस तरह बाँध लेती है कि परिवार भी उस के लिए समर्पित हो जाता है|"
"लेकिन सुषमा क्या ये सच नहीं कि तुम जैसी स्त्रियां घर में अपनी जिम्मेदारियां निभाते स्वयं को भुला देती हैं |
"हाँ ,...किंतु घर से बाहर कहीं जाते ही ये जिम्मेदारियां स्वचालित सी कंधे बदल लेती है कनक | '
"तो इसके लिए पूरा दिन भूखा रहना जरूरी है कितनी महिलाओं की तो तबियत खराब हो जाती है भई अपन को तो ये सब बेवकूफी लगती है |"
"कनक !....हम तो करवाचौथ के दिन सुबह सरगी खाती हैं, मेहँदी ,श्रृंगार, उपहार , नखरे फिर शाम को जूस, चाय......ओर जाने क्या क्या ,,लेकिन इस करवा चौथ जब सुबह तीन बजे मेरी हालत खराब हुई तो सुबोध के पास तो कुछ खाना दूर सोचने का भी समय नहीं था और फिर हस्पताल में टैस्ट वगैरह की भागादौड़ी, सबको इत्तिला करना .....सब कुछ अकेले करते रहे, खाने का होश था पीने का | इमरजेंसी कहते-कहते भी आपरेशन होते शाम हो गयी थी | रिश्तेदारो के जाने पर भी ये एक पल को ऑपरेशन थियेटर के बाहर से नहीं हिले |
निशांत की अपने स्वास्थ्य के प्रति बेरुखी की कसक को अपनी मुट्ठी में भींच जबरदस्ती चुहल करती कनक सुबोध को सुनाते हुए बोली - "ओहो तो तुम्हारे बदले जीजाजी का व्रत हो गया इस बार | फिर कब खोला व्रत जीजाजी ?"
"जब मेरी चाँद ऑपरेशन थियेटर से बाहर गयी, तब उसका मुँह देखकर ......|" सुबोध ने प्यार से सुषमा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए जवाब दिया |


-शोभना 'श्याम'