Remote se chalne wala gudda - 3 - last part in Hindi Moral Stories by Mazkoor Alam books and stories PDF | रिमोट से चलने वाला गुड्डा - 3 - अंतिम भाग

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रिमोट से चलने वाला गुड्डा - 3 - अंतिम भाग

रिमोट से चलने वाला गुड्डा

मज्कूर आलम

(3)

वह व्यंग्यात्मक अंदाज में मुस्कुराई- ठीक कहते हो... आजकल तो रिश्तों पर भी आत्मघाती हमले होते हैं।

एक बार फिर असलम मुंह फाड़े एकटक उसकी ओर देखने लगा- मैडम कभी-कभी आप बेहद रहस्यमयी लगने लगती हैं! पवित्रा चुप ही रही।

हां अब इधर देखिए... आजकल केमिकल या जैविक हथियारों की भी बातें भी खूब हो रही है। कहा जाता है कि केमिकल या जैविक असलहों से इलाका का इलाका रोगग्रस्त होकर मरने को अभिशप्त हो जाता है। वह भी आदिमकाल से मौजूद है। तब जैविक हथियारों का काम लिया जाता था मरे हुए बड़े जानवर जैसे गाय-भैंस या इंसानी लाश से। इन शवों को वे दुश्मन के इलाके में ले जाकर छोड़ देते थे। खासकर कुएं में डाल देते थे, जिसका पानी पीकर उस गांव की पूरी-पूरी आबादी रोगग्रस्त हो जाती थी और तिल-तिल कर मरती थी। कभी-कभी अगर उन्हें मरे हुए इंसान या बड़े जानवर न मिलें तो वह पालतू बूढ़ी गायों या बीमार या बुजुर्ग आदमी को ही मारकर उन्हें दुश्मन के इलाके में डाल आते।

यह सुनकर पवित्रा को जोर की ऊबकाई आई। वह बेचैन हो गई थी। शाम के छह बजने जा रहे थे, लेकिन अभी तक प्रतीक का फोन नहीं आया था। इसने सोचा कि एक बार प्रतीक को फोन कर लिया जाए, लेकिन फिर कुछ सोचकर फोन न करने का निर्णय किया। क्योंकि वह समझ चुकी थी कि अभी तक प्रतीक खाली नहीं हुआ होगा। नहीं तो वह उसे फोन जरूर करता।

असलम बोल रहा था कि आइए मैडम अब दूसरे कक्ष में चलें। यह वह कक्ष है, जिसमें ऐसे असलहे हैं, जो बताते हैं कि उस जमाने में इंसानी जज्बातों की कोई कद्र नहीं थी। तब युद्ध बंदियों के लिए कोई कानून नहीं था। उन्हें इतने खौफनाक तरीके से टॉर्चर किया जाता था, जिसे सुनकर भी रूह फना हो जाए।

पवित्रा बोली- अब है क्या?

असलम ने चौंक कर पवित्रा की तरफ देखा- क्या मैडम? ये हथियार!

नहीं! जज्बातों की कद्र! मैं मानती हूं कि उस जमाने में नफरत रहा होगा। प्रेम भी पूरी शिद्दत से मौजूद रहा होगा। लेकिन उदासीन बनाने का कारखाना तो यकीनन नहीं होगा। वॉटसअप, चैट, मैसेजेज, रिमोट कंट्रोल करने वाले ऑफिसेज आदि। जज्बात को नपुंसक और पूरी तरह स्खलित करने वाली कोई तकनीक नहीं ईजाद हुई होगी... पक्का... पवित्रा जोर से खिलखिलाई...

असलम न समझने वाले अंदाज में हवन्नकों की तरह उसे देख रहा था। उसे पवित्रा से डर लगने लगा था। अगर वह उसका गाइड न होता तो वह भाग खड़ा हुआ होता...

उसकी डरी नजरों को नजरअंदाज करती पवित्रा बोली, अब मैं बुरी तरह से थक गई हूं। अब और नहीं असलम साहब। वापस होटल चलते हैं। फिर दोनों वहीं म्यूजियम के बाहर बने एक कैफेटेरिया में बैठ गए। स्नैक्स के साथ एक-एक कप कॉफी का ऑर्डर दिया और टैक्सी के लिए होटल में फोन कर दिया। आधे घंटे में पवित्रा होटल में थी। सामने वही रिसेप्शनिस्ट बैठा था। उसे देखते ही पवित्रा बोली, अरे आप गए नहीं। आपकी ड्यूटी ऑफ नहीं हुई। कितने घंटे की ड्यूटी होती है।

वह बोल उठा- कैसी बात कर रही हैं मैडम। प्राइवेट नौकरी और ड्यूटी ऑवर। आप में काबिलियत है तो मालिक की जेब से आप चाहे जितने पैसे निकलवा लें, लेकिन ड्यूटी ऑवर न पूछें। वैसे जब टैक्सी के लिए आपका फोन आया, तब बस मैं निकल ही रहा था। सोचा कि जब आप आ ही रही हैं तो आपसे पूछता चलूं कि हमारे यहां का म्यूजियम आपको कैसा लगा?

पवित्रा को उस क्षण बेहद सुखद एहसास हुआ। उसे लगा आज भी कोई उसका इंतजार कर सकता है। उसने एकाएक खुद को बहुत महत्वपूर्ण महसूस किया।

अपनी अहमियत दिखाने के लिए उसने बेवक्त और वेवजह ठहाके लगाए। खोखले ठहाके... हल्की अंगड़ाई लेते हुए कहा, बहुत मजा आया। सच में म्यूजियम में ऐतिहासिक युद्धक हथियारों का कमाल का जखीरा है। फिर जोर की जम्हाई ली और कहा मैं बुरी तरह थक गई हूं। मैं कमरे में जा रही हूं। उसके बाद रिसेप्शनिस्ट ने भी कहा कि ओके मैडम मैं भी निकल रहा हूं। कल सुबह आठ बजे मुलाकात होगी।

पवित्रा ने असलम को पैसे देने के लिए पर्स में हाथ डाला तो पाया कि पैसे ही नहीं हैं। उसने असलम को कहा कि चलो रूम में पैसे देती हूं। उसके बाद दोनों लिफ्ट में आ गए। संयोग से लिफ्ट में और कोई नहीं था। पवित्रा ने असलम से पूछा कि तुमने कबीलाओं के युद्ध का पूरा इतिहास बता दिया। किस तरह से लड़ते थे, किस-किस तरह के हथियार इस्तेमाल करते थे, यह भी बता दिया, लेकिन यह नहीं बताया कि लड़ाई में आखिर जीत किसकी हुई। इस कबीले की या झील के उस पार वाले कबीले की।

अरे होना क्या था मैडम। दोनों कबीले वाले लगभग बराबरी के थे। दोनों ने एक-दूसरे का काफी नुकसान किया। कहते हैं कि दो-तीन सौ साल तक लडऩे के बाद दोनों की समझ में आ गया कि लडऩे से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला... रहना एक साथ ही है... लड़-लड़ कर दोनों थक चुके थे... इसलिए दोनों ने आपस में समझौता कर लिया... सारी लड़ाई झील के लिए थी, इसलिए उन दोनों ने तय किया कि झील के पानी का इस्तेमाल दोनों कबीला वाले करेंगे, लेकिन इस पर किसी की मिल्कियत नहीं होगी... कबीले की सीमा रेखा झील के इस और उस पार होगा... बीच का झील इन सीमाओं परे होगा... इस पर किसी का जोर नहीं होगा।

असलम से बात करते-करते पवित्रा रूम के दरवाजे तक पहुंच गई थी। उसने प्रतीक से पैसे लेकर उसे दिया और कहा सच में आज का दिन बेहद शानदार रहा। म्यूजियम में आपके साथ बिताए पल मुझे हमेशा याद रहेंगे। संग्रहालय से ज्यादा मजेदार तो आपकी कहानियों का संग्रह और किस्सागोई का अंदाज था। जिस तरह से आधुनिक संदर्भों से जोडक़र एक फिलॉस्फर की तरह आपने चीजों की व्याख्या की वह मुझे हमेशा याद रहेगा। अब मैं भी आपके ही अंदाज में किसी निर्णय पर पहुंचूंगी... जैसे सच में वह किसी निर्णय पर पहुंच रही हो। असलम ने पैसे लिए और मुड़ते हुए एक बार फिर सिर झुकाया और कहा, गुडनाइट मैडम। अगर फिर कभी मौका लगे तो मुझे ही याद कीजिएगा।

पवित्रा दरवाजा बंद कर पलंग पर ही आकर प्रतीक के पास बैठ गई। उफ! बाबा रे बाबा। नीचे लॉबी में जबरदस्त ठंड है यार। और रजाई में घुसकर दोनों हाथ मलने लगी।

प्रतीक ने पूछा, आ गई घूम-घामकर। सिर्फ म्यूजियम ही देखा या और कहीं गई।

नहीं और कहीं नहीं गई- बोलते हुए उसने होटल के कमरे में लगा फोन उठाया और रिसेप्शन का नंबर लगाया। उसे एक अजनबी स्वर सुनाई पड़ा, जी, मैं क्या खिदमत कर सकता हूं। पवित्रा का मन कसैला हो आया। यह जानते हुए भी कि सुबह वाला रिसेप्शनिस्ट जा चुका है, वह उसी आवाज की उम्मीद कर रही थी।

उसने बिना वक्त गंवाए कहा, रूम नंबर 511 में दो कप कॉफी भेज दो।

नहीं मैं नहीं पिऊंगा, अभी पी है। तुम सिर्फ अपने लिए मंगा लो। लेकिन वह उस रिसेप्शनिस्ट से दोबारा बात करना नहीं चाह रही थी, इसलिए उसने कहा कि आने दो मैं ही दोनों पी जाऊंगी।

उसके बाद पवित्रा उसे कुछ देर म्यूजियम और वहां देखे गए युद्धक हथियारों के बारे में बताती रही। वह उसे ढेर सारी बातें बताना चाहती थी। लेकिन 10 मिनट बाद ही प्रतीक एक बार फिर लैपटॉप पर लग गया। उसने पवित्रा से बस इतना ही कहा कि इस रिपोर्ट के लिए चार बार फोन आ चुका है। आज हर हाल में उन्हें यह चाहिए।

लेकिन यहां तो तुम्हें सिर्फ साइट विजिट करनी थी न। रिपोर्ट तो वहां ऑफिस में जाकर समिट करनी थी।

हां, यार ये वो नहीं है। कल बॉस किसी फॉरेन डेलिगेट्स से मिलने जा रहे हैं। उनके सामने एक डील होनी है। उसका प्रोजेक्ट पकड़ा दिया है। ये कहते हुए कि इतनी जल्दी में तुमसे बेहतर और कोई नहीं बना सकता। उस पर से सुबह से चार बार फोन कर चुके हैं कि जल्दी भेजो मुझे भी तो एक बार पढऩा पड़ेगा। इसी चक्कर में मैं दोपहर में खाना खाने भी नहीं गया।

रात के सवा नौ बजे तक प्रतीक ने वह रिपोर्ट बना कर मेल कर दी और साढ़े नौ तक उनसे बात कर फ्री हो गया। उसके बाद प्रतीक ने कहा कि चलो नीचे चल कर खाना खाते हैं। तसल्ली से जो-जो मन करेगा, वह ऑर्डर करेंगे।

लेकिन पवित्रा ने मना कर दिया। कहा कि रूम में ही मंगवा लो। मैं बहुत थक गई हूं।

ओके।

खाना खाते हुए प्रतीक बता रहा था कि अब हमें तीन दिन के बदले दो दिन में ही वापस दिल्ली पहुंचना होगा। बॉस ने कहा है कि अर्जेंसी है जैसे भी करके कल ही सारे साइट विजिट करो और परसों सुबह की फ्लाइट से दिल्ली पहुंचो। दो बजे दिन तक मैं तुम्हें ऑफिस में देखना चाहता हूं। इसलिए हमें परसों ही निकलना होगा डार्लिंग।

पवित्रा ने कहा, कोई बात नहीं। बॉस का हुक्म है कोई भगवान का तो है नहीं, जो टालने के लिए एक बार भी सोचें।

प्रतीक अजीब तरह से मुस्कुराया। पता नहीं यह हंसी मूर्खतापूर्ण थी या कटुतापूर्ण, लेकिन थी इन दोनों के बीच की ही कुछ।

खाना खाने के बाद दोनों बिस्तर में आ गए। पवित्रा अपने दिनभर के अनुभवों के बारे में बता रही थी। बड़े गौर से प्रतीक सुन रहा था। पवित्रा बता रही थी, पता है इन कबीला वालों की एक ही बात मुझे अच्छी लगी। जब लड़-लडक़र वे दोनों थक गए तो उसके बाद भले ही उनके मन में एक-दूसरे के लिए शिकायतें रह गई हों, लेकिन दोनों ने शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का जीवन स्वीकार कर लिया।

प्रतीक की तरफ से कोई जवाब न मिलता देख उसने पलटकर देखा तो पाया कि दाहिनी करवट लेकर वह तो सो चुका है। उसकी तरफ जो बेड टेबल पर था उस पर रखे आलता की शीशी पर उसकी नजर टिक गई। प्रतीक को उसका आलता से रंगा हुआ पैर बहुत पसंद था। इसलिए इस ऐतिहासिक मौके लिए खास आलता लेकर आई थी। उसने उसे वहां से उठाया और तकिया गोद में लेकर बैठ गई। मन ही मन बुदबुदाई, चलो पैर न रंग पाई तो क्या? अब काम आ जाएंगे। फिर वह आलता से तकिया पर झील बनाने लगी। उसके बाद झील के बीचोबीच युद्ध के उस यादगार स्मारक संग्रहालय को बनाना भी न भूली। फिर उसे अपने और प्रतीक के बीच बिस्तर पर रख दिया। फिर तकिया देखकर मुस्कुराई- मन ही मन बोली हां, अब ठीक है, अब इस पर किसी का सिर नहीं है।

तभी अचानक उसे लगा कि युद्ध का वह स्मारक अचानक जीवंत हो उठा है। उसके सामने गाय-भैंस या इंसानी शव से रोगग्रस्त किया गया तस्वीर वाला वह गांव नाचने लगा। हर तरफ लाश ही लाश बिछी थी। इसंानियत की लाश! इंसानी रिश्ते का शव! उसके बीच वह चल रही थी अकेली।

सीन बदलता है।

नहीं यह तो वह गांव है, जहां बड़ी निर्दयता से जवान सैनिकों को खौलते तेल में डाल दिया गया था। वह कड़ाहे के किनारे खड़ी दुश्मन सैनिकों को एक-एक कर उस गांव के हर जवान व्यक्ति को डालते देख रही है। उनके बुजुर्ग मां-बाप आजिजी मिन्नत कर रहे हैंं, बच्चे बिलख रहे हैं, विधवा होने जा रही महिलाएं विलाप कर रही हैं। वह एक-एक कर खौलते तेल में डाले जा रहे छटपटाते जवानों और जीवन की भीख मांगते, रोते-गाते उनके रिश्तेदारों को देख रही है। वह भी उन रिश्तेदारों के साथ चीख रही है। छोड़ दो, छोड़ दो इन्हें। एक-एक जवान के साथ तुम एक भरे-पूरे परिवार और कई-कई रिश्तों की हत्या कर रहे हो। उन चीखों में एक चीख उसकी भी है। इन्हें न मारो। इन्हें बख्श दो। लेकिन उसकी आवाज कोई सुन नहीं रहा है। तभी एक दुश्मन सैनिक इसका बाल पकडक़र एक तरफ खींचते हुए चीखा- क्या साथ रहने से रिश्ते जिंदा बने रहते हैं...?

घबरा कर वह चिहुंक गई। ऐसा लगा वह लंबी नींद से वह जागी हो। उसकी नजर स्वमेव खिडक़ी की तरफ उठ गई... वहां से आती तेज ठंडी हवा के थपेड़े उसके चेहरे पर टक्कर मार रहे थे और हवा से बाल सरसरा रहे थे... तस्वीरें दिखनी बंद हो गई थी... उसने राहत की सांस ली। पर इन चीखों का क्या करे, वह तो अब अब भी कानों में हथौड़े की तरह घमघम कर रहे थे। चारों तरफ नजर दौड़ाया- देखा, प्रतीक सिर के नीचे तकिया लगाये सो रहा है। उन दोनों के बीच पड़ा है वह ऐतिहासिक तकिया, जिस पर अभी-अभी उसने झील और संग्रहालय की तस्वीरें उकेरी थी। घड़ी पर नजर दौड़ाई। 12 बज गए थे। अब हवा के थपेड़े आने बंद हो गए थे।उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि इन चीखों का क्या करे? वह अब भी कानों में गूंज रही थी। इन चीखों से बचने के लिए उसे भी मैनकैचर चाहिए था, जो उसके दिमाग को पकडक़र बंद कर दे...

उसने उसी वक्त रिसेप्शन को फोन मिलाया। बहुत देर तक घंटी बजती रही, पर उसने परवाह नहीं की। जब फोन उठा तब उसने कहा कि दो तकिया 511 नंबर रूम में भेज दो। वेटर जब रूम में तकिया पहुंचा गया तो एक सिर के नीचे और एक ऊपर रखकर वह बुदबुदाई... आ गया मैनकैचर। वह दोनों तकियों के बीच अपने दिमाग को कुचल देना चाहती थी। जैसे मैनकैचकर सिर दबा देते थे। उसे ऐसा लगा कि उन दोनों के बीच पड़ा वह ऐतिहासिक तकिया उसकी इस हालत पर मुस्कुरा रहा है।

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दूसरे दिन प्रतीक सुबह नौ बजे ही पवित्रा को लेकर ही साइट पर विजिट निकल गया। उसने कहा कि जैसे ही साइट विजिट खत्म होगी, उधर से ही कहीं घूमने निकल चलेंगे। निकलने से पहले प्रतीक और पवित्रा रिसेप्शन पर गए। वहां पर जाना-पहचाना चेहरा था। उसने उठकर गुडमॉर्निंग किया और पूछा- कहिए क्या खिदमत कर सकता हूं। प्रतीक ने बताया कि हमलोग कल सुबह ही निकल जाएंगे। सुबह साढ़े आठ बजे की फ्लाइट है। इसलिए सात-सवा सात तक एयरपोर्ट के लिए टैक्सी चाहिए। कृपया अभी बुक कर लें, ताकि सुबह-सुबह कोई परेशानी न हो।

साइट विजिट करके लौटते-लौटते उन्हें रात के 11 बज गए। दोनों थककर निढाल कल की मुद्रा में सो गए। पवित्रा आज भी बीच में झील की तस्वीर वाला तकिया लगाना नहीं भूली थी। सुबह सवा सात बजे लगेज के साथ दोनों रिसेप्शन पर पहुंचे तो पवित्रा को वही जाना-पहचाना चेहरा दिखाई दिया। वह पूछने ही वाली थी कि अरे आपकी ड्यूटी तो आठ बजे से होती है न, लेकिन इससे पहले उस रिसेप्शनिस्ट का जाना-पहचाना गुड मॉर्निंग गूंजा और उसने रैक से वह महारानी वाली गुिडय़ा निकाल कर उसे दी, जिसे पवित्रा ने पहले दिन उस बंजारन को बेचते देखा था- मैडम हमारी होटल की तरफ से यह तुच्छ भेंट...

रिसेप्शनिस्ट को थैंक्स बोलकर पवित्रा उलट-पलट कर उस उस खिलौने को देख रही थी। 10 साल पहले वाली गुडिय़ा और इसमें ज्यादा अंतर नहीं था। पहले वाले में जो गुड्डा था, वह चाबी से चलता था और यह रिमोट से... उसने झट से रिमोट पर्स के भीतरी खाने ऐसे गायब किया, जैसे उसे डर हो कि कोई छीन लेगा।

उस गुडिय़ा देखते ही प्रतीक के मुंह से निकला- अरे यह तो...

प्रतीक की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि पवित्रा बोल उठी, कहना तो वह भी यही चाहती थी, हां वही तो... लेकिन मुंह से निकला- चाबी और रिमोट में यही अंतर है न प्रतीक... चाबी वहीं पर होती है, जहां खिलौना... लेकिन रिमोट तो... उसे अपनी ही आवाज अजनबी-सी लग रही थी।

गुड मॉर्निंग सर... अंअंअं मैडम... टैक्सी का दरवाजा खोलते-खोलते ड्राइवर गड़बड़ा गया था।

***