Nishchhal aatma ki prem-pipasa... - 23 in Hindi Fiction Stories by Anandvardhan Ojha books and stories PDF | निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 23

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निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 23

"चालीस दुकानवाली आत्मा का 'विशुद्ध' प्रेम"...

जिन दिनों चालीस दुकानवाली आत्मा के साथ मेरी प्रगाढ़ प्रिय-वार्ता चल रही थी, उन्हीं दिनों की बात है। स्वदेशी में अनियमित वेतन-भुगतान के कारण मजदूरों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। मिल-गेट पर आये दिन उनका धरना-प्रदर्शन होता था और मजदूर-नेताओं के गर्मजोशी से भरे भाषण होते थे। लाल झंडे-बैनरों तले माहौल गर्म होता जा रहा था। सांकेतिक हड़ताल की अनपेक्षित छुट्टियाँ भी हमें मिल जाती थीं और हम उनका बड़ा आनंद उठाते थे। शाही, मेरी और ईश्वर की दिन-भर की गोष्ठियां लगतीं । मज़े का दिन गुज़रता और रातें तो परा-जगत् में विचरण की रातें थीं ही।

एक दिन की बात है, मिल का एक मज़दूर शाम के झुटपुटे में झिझकता हुआ मेरे क्वार्टर पर आया। नमस्कारोपरांत मुझसे बोला--'आप ही ओझाजी हैं न? आपके बारे में मैंने बहुत सुना है।'
जानता था, 'बहुत सुनने' लायक़ मेरी हस्ती तो थी नहीं, फिर भी मैंने कहा--'हाँ कहिये, क्या बात है?'
वह बोला--'सर, मेरी एक समस्या है। मुझे लगता है, आपके पास उसका कोई-न-कोई उपाय जरूर होगा। मिल के लोगों ने ही मुझे आपसे मिलने को कहा है।'
उसकी बात से मुझे यह शंका होने लगी थी कि वह अवश्य मेरी 'ओझागिरी' के लिए कोई नयी चुनौती लेकर आया है और चुनौतियाँ मुझे हमेशा से प्रिय रही हैं। मैंने कहा--'कहिये न, बात क्या है!'
उसने इशारे से मुझे बाहर चलने को कहा। मैं बैचलर क्वार्टर के अहाते से बाहर आया और उसके साथ सड़क पर टहलने लगा। थोड़े संकोच के साथ उसने कहना शुरू किया--'सर, मेरी सत्रह वर्ष की एक बेटी है। स्वस्थ हैै, उसे कोई रोग-दोष नहीं है, लेकिन उसे हर वक़्त एक तरफ से दूसरी तरफ नज़रें घुमाते हुए काले धुँए में लिपटी हुई एक औरत क्षण-भर को दिख जाती है और फिर ओझल हो जाती है। उसके साथ ऐसा किसी भी समय होता है--दिन, दोपहर, रात किसी भी वक़्त। इस विचित्र दर्शन से वह लड़की हैरान-परेशान हो जाती है, भयभीत भी। वह अपनी माँ से पिछले कई वर्षों से यह बात कहती रही है। पहले तो हम सबों ने इसे उसका भ्रम ही समझा, लेकिन अब उसकी यह शिकायत बढ़ती जा रही है। आप उसके लिए कुछ कीजिये न सर, आपका बड़ा उपकार होगा।' उसके स्वर में विनय-भाव तो था ही, वह स्वयं भी नत-शिर हो रहा था।

उसकी बात सुनकर मुझे अपनी ही ज़ात पर हँसी आयी, क्या लोग मुझे अब झाड़-फूँक करनेवाला ओझा-गुणी समझने लगे हैं? मैंने उस मिल-मज़दूर को यह समझाकर विदा किया कि 'भाई, मेरा नाम 'ओझा' ज़रूर है, लेकिन मैं झाड़-फूँक नहीं करता और जो कुछ करता हूँ, अगर उससे तुम्हारी बेटी की परेशानी दूर हो गयी तो मुझे ख़ुशी ही होगी। तुम दो-तीन दिन बाद मुझसे ऑफिस में एक बार मिल लेना।"
उस मिल वर्कर से जिस शाम ये बातें हुई थीं, उसके एक नहीं, दो दिनों के संपर्क-साधन में चालीस दुकानवाली आत्मा ने जो कुछ मुझे बताया, वह मुझे ही विस्मय-विमूढ़ कर गया। पहले दिन जब मैं चालीस दुकानवाली से देर रात में चर्चा-निमग्न था, तभी अचानक मुझे मिल-मज़दूर की बात याद आई। मैंने पूरी बात उसे बतायी और पूछा कि 'क्या तुम मुझे बता सकती हो कि यह चक्कर क्या है और उस लड़की के साथ यह सब क्यों हो रहा है?' दो क्षण की चुप्पी के बाद चालीस दुकानवाली ने कहा--"मुझे चौबीस घंटों का वक़्त दो। मैं तुम्हें कल बताऊँगी कि माजरा क्या है।"

दूसरे दिन उसने मुझसे कहा था--"तुम नहीं जानते, मुझे कितनी मेहनत करनी पड़ी और कितना भटकना पड़ा, लेकिन मैंने इस बाधा का कारण-सूत्र ढूँढ़ निकाला है। उस लड़की के परिवार की पूर्व-पीढ़ी में किसी कन्या की प्रेम-त्रिकोण में उलझ जाने के कारण हत्या हुई थी। वह लड़की गॉंव के ही एक युवक से प्रेम करती थी, लेकिन उस पर एक अन्य दबंग लड़के की भी नज़र थी। वह दुष्ट आते-जाते उसे परेशान किया करता था। जिन दिनों उस लड़की के विवाह का संयोग बनाने को परिवारवाले प्रयत्नशील थे, उन्हीं दिनों वह दुष्ट गाँव की उस बिटिया को बलात् अपने मन की समझाने के लिए बल-प्रयोग करने लगा। जब बात उसके अनुकूल नहीं बनी तो उसने अपने कुछ उद्दण्ड और उच्श्रृंखल मित्रों के साथ मिलकर उसकी हत्या कर दी थी। उसकी हत्या से पूरे गांव में बड़ा शोर-शराबा हुआ था। हत्यारे पलायन कर गये थे और गाँव में पहली बार पुलिस ने प्रवेश किया था। आनन-फानन में परिवारवाले अपने परिजनों के साथ शव-दाह के लिए गए, लेकिन पुलिस के हस्तक्षेप के कारण शव को अधजला ही छोड़ आये थे। उसी लड़की की आत्मा आज तक भटक रही है। वह बहुत अतृप्त है। वही काले धूम में लिपटी मज़दूर की बेटी को दिख जाती है।"

चालीस दुकानवाली आत्मा से यह रोमांचक विवरण सुनकर मैं हैरत में था। मैंने विस्मय जताते हुए पूछा--"तुम तो कह रही हो कि यह घटना पीढ़ियों पहले घटी थी, तो क्या तभी से आज तक उस अभागी बिटिया की आत्मा भटक रही है--इतने लम्बे समय से?"
चालीस दुकानवाली बोली--"हाँ, यह उसके भाग्य का भोग है।"
मैंने पूछा--"लेकिन इस भटकाव से उसे मुक्ति कब मिलेगी? वह अनंतकाल तक यूँ ही भटकती रहेगी क्या?"
वह थोड़ा हँसते हुए बोली--"नहीं, अपनी मुक्ति के लिए ही तो वह इस पीढ़ी की मज़दूर की बेटी को प्रेरित कर रही है।
मैंने फिर प्रश्न किया--"यह उसकी मुक्ति का प्रयत्न है या इस लड़की के लिए भयप्रद त्रास? तुम तो मुझे बस इतना बताओ कि इस भय-बाधा से इस पीढ़ी की बिटिया को मुक्ति कैसे मिलेगी?"

चालीस दुकानवाली ने ही दोष-निवारण का उपाय भी बताया था--"मज़दूर से कहो कि अपनी बेटी को लेकर किसी तालाब, पोखर या नदी पर चला जाए। ज़्यादा अच्छा होगा कि गङ्गा के किसी जन-शून्य घाट पर जाए। अपने साथ लकड़ी का कोयला और बेल-वृक्ष की छोटी, पतली-सी हरी टहनी ले जाए। नदी के किनारे उस कोयले को चौरस बिछाकर उसके बीच में वह टहनी रख दे, फिर उसे जलाये। जब कोयला जलेगा तो उससे काला धुँआ उठेगा। किसी दफ़्ती से हवा करके कोयले को अंगारों में परिवर्तित कर दे और बेल की टहनी को पूरी तरह जल जाने दे। जब सबकुछ भस्मीभूत हो जाए तो जल का सिंचन करे। जल के छींटे पड़ते ही उससे श्वेत धुआँ उठेगा। उस धुँए को शाष्टांग प्रणाम कर बेटी वापस लौटे और लौटते हुए पलटकर पीछे न देखे। मुझे लगता है, इससे उस आत्मा की मुक्ति हो जायेगी और इस लड़की की भय-बाधा भी दूर होगी।"
मैंने चालीस दुकानवाली को धन्यवाद देते हुए कहा--"मैं जान गया, तुम्हें भागीरथ प्रयत्न करना पड़ा है, फिर भी मेरे अनुरोध का तुमने मान रखा, मैं आभारी हूँ। किन्तु, यह सब तो असफल प्रेम का दुष्परिणाम ही है और क्या?"

चालीस दुकानवाली अपने कटु अनुभवों की तड़प में बोल पड़ी--"सुनो, तुम्हारा आभार मेरे किसी काम का नहीं। प्रेम तो तुम्हारे जगत् का सबसे विषैला नाग है, क्योंकि वह प्रेम है ही नहीं, वह तो सिर्फ़ वासना है, भूख है! प्रेम तो आत्मा की अमूल्य निधि है ! आत्मा से आत्मा में प्रेम प्रतिष्ठित होता है अन्यत्र जो कुछ है, वह प्रेम के नाम पर छल है, फरेब है, धोखा है, देह की भूख है।"
मैंने कहा--"शायद तुम ठीक कहती हो, शायद यही सच हो।'
वह निश्चयात्मक स्वर में बोली--"शायद' मत कहो, यही सत्य है। देखो न, मैं भी तो तुम्हें प्रेम करती हूँ, उसमें मलिन क्या है? माँग क्या है? लालसा कहाँ है? यह आत्मा का आत्मा से निष्कलुष प्रेम है-- विशुद्ध प्रेम!"

मेरे प्रति चालीस दुकानवाली आत्मा की यह विचित्र आसक्ति मेरी समझ से परे थी। उसका वायवीय 'विशुद्ध प्रेम' मेरे मस्तिष्क में प्रश्न बनकर ठहर गया था। सच में, मैं अवाक्, हतप्रभ और विस्मित रह गया था उस दिन… !
(क्रमशः)