अंतिम सांझ का दर्द
आज पिंकी को मरे पांच दिन हो चुके थे लेकिन अमित और सुमित अभी तक घर नहीं पहुंचे थे। खेत की मेढ़ पर बैठा बसंतु बार-बार यह सोचकर दुखी हो जाता था कि क्या उसके अपने बेटे भी इतने पत्थर दिल और स्वार्थी हो सकते हैं? जिस मां ने उन्हें कभी भी जरा से दुख-तकलीफ का अहसास तक न होने दिया। जिनकी हर गलती के लिए वह लोगों के सामने झुकती रही। कभी उसकी ममता में जरा भी कमी न आई। वही लड़के उसके बिमार होने पर तो क्या आए लेकिन उसकी अंतिम विदाई के वक्त भी उन्हें समय की कमी खली।
अमित ने तो टेलीफोन पर बिमार मां के पास न पहुंचने की अपनी मजबूरी बयान कर दी थी। उसे मां से ज्यादा इस वक्त कंपनी के फायदे के लिए विदेश यात्रा ज्यादा सही लग रही थी। रही बात छोटे लड़के सुमित की। उसने भी साफ कह दिया था, ‘‘पिता जी मेरे पास छुट्टियां बिलकुल भी नहीं है। जो थोड़ी बहुत बची हैं उन्हें मैं दो महीने बाद बनने वाले अपने नए मकान के लिए खर्च करूंगा। मैं नहीं आ पाऊंगा। मां की देखभाल के लिए गांव की किसी महिला को रख दो। यदि पैसे की कमी हो तो मांग लेना।’’
नब्बे बीघा जमीन का मालिक बसंतु अपने दोनों लड़कों की फितरत को जान चुका था। पिंकी अंतिम सांस तक अपने बेटे, बहुओं और पोते-पोतियों की एक झलक पाने के लिए तरसती रही। वह हर दिन निकलने वाले सूरज के साथ एक आशा भरी निगाह बसंतु पर डालती और दोनों बेटों की बातों को झूठलाते हुए कहती, ‘‘उनकी ये न आने की बातें सिर्फ मुझे थोड़ा सताने के लिए हैं। मैं अपने अम्मू और सम्मू को अच्छी तरह से जानती हूं। देखना, वे दोनों कल जरूर आएंगे।’’ कहते-कहते वह उनके बचपन में ही खोकर रह जाती और बुदबुदाने लगती, ‘‘जब अम्मु-सम्मु मेरे पास थे तो घर में खूब सारी रौनक रहती थी। वे दोनों लड़ते-झगड़ते भी, खूब सारी जिद्द भी करते लेकिन रहते तो मेरे पास ही थे न, अम्मु-सम्मु के बापु।’’ कहते-कहते पिंकी की आंखें बहने लगती।
आंखें पोंछते-पोंछते वह अबकी बार चेहरे पर खुशी की चमक और आंखों में आंसुओं से उत्पन्न लालगी को जैसे छुपाते हुए कहती,‘याद है आपको अम्मु-सम्मु के बापु। जब पहली बार हम अपने नन्हे बच्चों को लेकर शहर आए थे और उस शहर के चैराहे पर पहली बार उन्होने गोल-गप्पे और चाट खाई थी तो मेरे बच्चे कितने खुश हुए थे। कितना सुकून मिलता था इस तरह की खुशियां उनके चेहरे पर देखकर।.............पर अब तो कई महीने बर्ष बीत गए मुझे मेरे बच्चों, मेरी बहुओं और मेरे पोते-पोतियों का चेहरा देखे बगैर। शहर ने मेरे बच्चों को अपना गुलाम बनाकर रख दिया है।’’ आंसुओं की अविरल धारा को बहने से रोकने की असफल कोशिश में लगी पिंकी अपनी बात को जारी रखते हुए फिर कहती है, ‘‘हमने अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर बहुत बड़ी गलती कर दी है। क्या इनकी किताबों में कहीं यह जरा भी नहीं लिखा कि मां-बाप को उम्र के इस पड़ाव में अपने बच्चों के स्नेह और प्यार की आवश्यकता होती है। क्या यह पढ़ाई बच्चों के दिल से अपने मां-बाप के लिए सारी संवेदनाएं खत्म कर देती है।’’
हल्के से विराम के बाद वह फिर बोली, ‘‘काश, हमने अपने बच्चों को अनपढ़ ही रहने दिया होता। कम से कम वे हमारी आंखों के सामने तो होते।’’ पिंकी ऐसे ही रोज कुछ दिनों से बुदबुदाती जा रही थी। बच्चों से जुड़ी कोई भी बात जब उसे याद आ जाती, कुर्सी पर बैठे-बैठे कहती जाती।
बसंतु पिंकी को हर तरह से दिलासा देता रहता। उसे खुश रखने की कोशिश करता। परंतु पिंकी ने तो बस अब अपने बच्चों और उनके परिवार से मिलने की जिद्द पकड़ रखी थी।
वह कहती,‘अम्मु-सम्मु के बापु, हम कितने बदनसीब है न। हमारे पोते-पोतियों को गए हुए कितने बर्ष बीत गए लेकिन उन्हे हम मुश्किल से एक-दो दफा ही देख पाए। वो भी तब, जब उनके मुंह में जुबान नहीं थी। मेरी तो उनसे बात करने की हसरत ही रह जाएगी शायद। कितनी लाचार हूं मैं। हम तो मिलने भी नहीं जा सकते उनसे। काश, मेरी रीढ़ की हड्डी का यह रोग मुझे कुछ दिनों के लिए उनसे मिलने की इजाजत दे पाता।’’
‘‘तुम चिंता न करो पिंकी। तुम एक दिन जरुर स्वस्थ हो जाओगी। मेरे दोनों बच्चे तुम्हे शहर के अच्छे अस्पताल ले जाएंगे। वैसे यहां भी शहर के सबसे अच्छे अस्पताल में तुम्हारा इलाज चल तो रहा है। देखना, कुछ ही दिनों में तुम स्वस्थ होकर दौड़ने भी लगोगी। फिर हम दोनों अपने बच्चों, पोते-पोतियों और बहुओं से मिलने खूब भागते हुए जाएंगे। देखना तुम...........।’’ यह सब कहते-कहते बसंतु का गला भर आया था। वह पिंकी के सामने से उठा और यह कहता हुआ कमरे से बाहर निकल आया कि बारिश आने वाली है। मैं बाहर सूखने रखे कपड़ों को उठा लाता हूं।
कमरे से बाहर निकलते ही बसंतु खूब दहाड़े मार मारकर रोया। वह भी तो अपने बच्चों से मिलना चाहता था। वह भी उन्हे जी भरकर देखना चाहता था। अपने पोते-पोतियों, बहुओं से मिलना चाहता था। वह हर त्यौहार में घर के सामने की सड़क पर नजरें गड़ाए खड़ा रहता कि शायद इस वाली बस में उसके बच्चे उनके पास आएंगे। यह वाली नही ंतो अगली वाली बस सही। लेकिन अंतिम बस तक जब कोई नहीं आता तो वह भरी-भरी आंखे लिए पड़ोस के परिवार में आए उनके रिश्तेदारों के बच्चों को ही खूब सारी मिठाइयां बांटता और दो घड़ी उनके साथ बातें करके, उन्हे कहानियां सुनाकर अपने गम को हल्का करने की कोशिश करता।
वह उन बच्चों को पिंकी के पास भी ले जाता ताकि पिंकी का दिल बहल सके और उसे अपने पोते-पोतियों की कमी महसूस न होने पाए। पिंकी भी उन बच्चों को बहुत प्यार करती। उन्हे उनके पसंद की चीजें खिलाती और खूब सारी कहानियां सुनाती। उन्हे अपने दोनों बच्चों की बचपन की अठखेलियां बताती और उनके साथ खूब सारा हंसी-मजाक करती। वह बच्चों को बताती कि उनके जैसे उसके भी पोते-पोतियां हैं। आज वे शायद लेट हो गए हैं। लेकिन वे कल हमारे पास जरुर आएंगे। तब मैं तुम्हे उनसे मिलवाऊंगी।’’ बच्चे मासूम निगाहों से बस पिंकी का चेहरा निहारते रहते।
बसंतु पिंकी से कहता कि वे दोनों बहुत अभागे हैं जो उन्हें अपने लड़कों, बहुओं, पोते-पोतियों का सुख कभी प्राप्त नहीं हुआ। पोते-पोतियों को अपनी गोद में खिलाने, उनकी प्यारी-प्यारी बातें सुनने के अरमान ही रह गए। इस बात पर पिंकी बसंतु को भावनात्मक सहारा देते हुए कहती, ‘‘तुम भी न, अम्मू-सम्मू के बापू। बेकार की बातें अपने दिमाग में लाते रहते हो। हमारे लड़कों की अपनी जिंदगी है। वे अपने पैरों पर खड़े हैं और खुश हैं। हमें उनकी खुशी में ही अपनी खुशियों को ढूंढना है। गांव बुलाकर क्यों हम उनकी तरक्की में बाधा डालें।’’
‘‘तरक्की! कैसी तरक्की? ऐसी तरक्की किस काम की जो उनसे उनके मां-बाप तक को भूला दे। यह तरक्की का कौन-सा रुप है पिंकी?’’ बसंतु के शब्दों में दुख और गुस्सा दोनों था।
‘इन बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं देते। मां-बाप को बच्चों की खुशी में ही अपनी खुशियां तलाशनी चाहिए। हमें उन पर कोई बेड़ियां नहीं डालनी चाहिए। जब उनका मन होगा वे आ जाएंगे, हम अभागों से मिलने। थोड़ी चुप्पी के बाद। ‘‘अब हमारे पास बचा ही क्या है जो वे हमारे पास आएं। उन्हे अब हमसे कुछ मांगने की आवश्यकता थोड़े ही है..........।’’ कुछ क्षण रुकने के बाद। ‘‘.....परंतु अम्मु-सम्मु के बापु, ऐसी भी क्या नौकरी जो उन्हे अपने मां-बाप के पास आने से रोके। सच में, आंखें तरस गई हैं अपने पोते-पोतियों का चेहरा देखने के लिए। पता नहीं वे अब कैसे दिखते होंगे। जब उनके मुंह में जुबान नहीं थी उस वक्त देखा था एक बार उन्हे। जब शायद गलती से हमारे बच्चे हमारे पास आए थे। कान तरस गए हैं दादी..ऽऽ दादी..ऽऽ की आवाज सुनने को।’’ फिर कुछ पल की चुप्पी। ‘‘...........क्या वे ‘दादा-दादी’ कहते भी होंगे या नहीं ?’’ एक गहरी उदासी पिंकी के चेहरे पर तैर जाती है।
पिंकी की बात को आगे बढ़ाते हुए बसंतु बोला, ‘‘अब तो वे फोन भी कभी कभार ही उठाते हैं।’’ हल्का-सा रुकने के बाद। ‘‘............ तुम सच कहती हो। इस पढ़ाई ने तो जैसे हमें संतान रहित ही कर दिया है।’’ बसंतु ने अपने माथे को कसकर पकड़ लिया था।
‘‘सुना घर पूरा दिनभर खाने को दौड़ता है। जाने मेरे इस घर को पूरे परिवार के कदमों की आहट भी कभी नसीब हो पाएगी या नहीं ? पता नही,ं शायद तब तक मैं रहूंगी भी या नहीं।’’ हल्की-सी खामोशी के बाद। ‘‘........... एक बार वे आ जाते तो मैं जीवन की इस अंतिम सांझ को इसी खुशी के सहारे काट लेती। परंतु जाने वह दिन कब आएगा?’’ एक ठंडी आह के साथ पिंकी अपनी बात पूरी करती है।
‘क्यों नहीं आएगा। जरुर आएगा। बस तुम हौंसला रखो। वे हमसे मिलने जरुर आएंगे। मेरी उनसे बात हुई थी।’’ एक हल्की रुकावट के बाद ‘ .......वे जरुर आएंगे और जल्दी आएंगे।..... हम बूढ़ों को देखने।’’ यह सब कहते कहते बसंतु की आंखें एक बार फिर भर्र आइं थी।
वह तो पिंकी को नाममात्र का भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहा था। जबकि ंिपंकी को पता है कि पिछले एक सप्ताह से बसंतु अपने दोनों बच्चों को फोन कर रहा है लेकिन वे हैं कि उनका फोन तक नहींे उठा रहे हैं। उन्हे पता है कि पिता उन्हे हमेशा की तरह घर आने के लिए कहेंगें। उनकी बिमार मां का वास्ता देकर बुलाएंगें। जिसका जवाब उनके पास नहीं होगा और उन्हे एक नया बहाना बनाना पड़ेगा।
परंतु आज सच में बसंतु का फोन लगा। बड़े बेटे अमित ने फोन उठाया। बसंतु ने अमित से हाल-चाल पूछने के बाद एक फरियादी की तरह सवाल किया,‘बेटा, घर कब आ रहे हो? तुम्हारी मां की तबीयत अब ज्यादा खराब हो रही है। वह तुम सब लोगों से एक बार मिलना चाहती है। कुछ समय निकालकर सपरिवार आ जाओ बेटा।’’
‘पिता जी, अब तो शड्यूल बहुत टाइट हो गया है। पर आप फिक्र न करें। मैं देखता हूं क्या बनता है भला। कोशिश करुंगा, लेकिन पक्का नहीं कह सकता।
बेटे का ऐसा जवाब सुनकर बसंतु की आंखें एक बार फिर छलछला गईं थी। बसंतु ने इस बार बिना कुछ कहे फोन काट लिया था।
पिंकी बसंतु का चेहरा पढ़ चुकी थी। वह बोली, ‘‘उदास नहीं होते जी। कोई बात नहीं। हमें अब किसी के सहारे की उम्मीद को छोड़ देना चाहिए। हम आपस में ही अपने सुख-दुख को बांट लिया करेंगें। जैसे हम पहले से बांटते आए हैं। शायद हमारी किस्मत में ही ऐसा लिखा होगा।’’
बसंतु पिंकी की बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस, चुपचाप घर के एक अंधेरे कोने की तरफ काफी देर तक लगातार देखता रहा।
अपने बच्चों को लेकर पिंकी और बसंतु के बीच जब भी कभी बात शुरु होती तो वह हर बार एक गहन उदासी के साथ ही समाप्त होती थी।
फिर वह दिन भी आया जब पिंकी ने सदा के लिए अपनी आंखें बंद कर दीं। बसंतु के लिए यह सबसे बड़ा अघात था। पिंकी की मौत ने बसंतु को अधमरा-सा कर दिया था। यही तो एक सहारा थी बसंतु के सुख-दुख का। दोनों अपने गमों को साझा बांट कर छोटी-छोटी खुशियां तलाशने में लगे रहते थे।
पिछले दो साल से पिंकी की आंखों में कम दिखाई देने के कारण बसंतु ने घर के कामकाज के लिए गांव की एक औरत को भी रख लिया था। परंतु बसंतु को रोज उस औरत से एक ही शिकायत रहती कि वह पिंकी की तरह स्वाद खाना नहीं बनाती है।
बसंतु को याद है। तीन वर्ष पहले जब अमित और सुमित गांव आए थे तो उन्होंने उनके साथ चलने का जिक्र किया था। अमित ने यह कह कर टाल दिया था कि ‘‘पिता जी, यहां की ढेर सारी जमीन हम यूं किसी के भरोसे छोड़ देंगे तो यह जमीन बर्बाद हो जाएगी। इसलिए आपका यहां रहना जरूरी है।’’’’
सुमित ने भी अमित की हां में हां मिलाते हुए कहा था, ‘‘अमित ठीक कह रहा है पिता जी। इस बुढ़ापे में शहर का प्रदुषण भरा वातावरण आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है। गांव का स्वच्छ और प्रदुषण रहित वातावरण ही आपके स्वास्थ्य के लिए बेहतर है।’’’’
बसंतु ने उसी दिन से अपने दोनों लड़कों से सहारे की उम्मीद को छोड़ दिया था। उसे पिंकी का सहारा ही बहुत था। लेकिन अब तो वह भी उससे छीन चुका था।
अमित और सुमित दोनों को पिंकी की मौत की खबर पहंुचा दी गई थी।
मेढ़ पर बैठा उदास बसंतु अपनी कमजोर नजर से थोड़ा दूर देखने की कोशिश करता तो उसकी नजर दोनों गांव के बीच बहने वाली नदी के नये बने पुल से फिसलती हुई उस लकड़ी के मकान के जर्जर खंडहर से जा टकराती जो तिमंजिला सीमेंट की कोठी के समीप खड़ा जैसे स्वंय को उपेक्षित-सा महसूस कर रहा था। नदी के उस पार के गांव में केवल यही एक पुराना मकान शेष था। बाकी सब तो बाढ़ की भेंट चढ़ चुके थे। बसंतु पुराने मकान के साथ अपनी तुलना में व्यस्त वह सोचने लगा- बाढ़ के बाद यह मकान अपनी मजबूती पर तो जरुर इतराया होगा। लेकिन आज यह अपने आस-पास बने नये ऊंचे-ऊंचे मकानों के बीच खुद को अकेला, अपमानित और उपेक्षित महसूस कर रहा है। आज इसे कोई भी नहीं पूछता। शायद यह भी अब मेरी तरह जिंदगी के दुखों से तंग आकर अपनी अंतिम सांस की ईश्वर से प्रार्थना कर रहा होगा।
इस बूढ़े मकान में ही तो बसंतु और पिंकी का बचपन बीता था। उस समय यहां कितनी रौनक थी। बड़ी अम्मा और उनकी बहू की मीठी नोंक-झोंक, पिंकी के दादा देवा की डांट। छोटे भइया और पिंकी की बुआ की मजाकिया शरारतों से घर हमेशा हंसी के ठहाकों से गुंजता रहता था। घर के बड़ों और छोटों के साथ मिल-बैठ कर खाने का मजा ही कुछ और था। छोटा-सा बसंतु रोज पिंकी के घर पहुंच जाता था। उस वक्त यह मकान इस गांव का सबसे आलीशान मकान था। बसंतु के घर वालों की इस परिवार के साथ काफी बनती थी। दोनों बड़े परिवारों की दोस्ती दोनों गांवांे को जोड़ने में एक कड़ी का काम करती थी। नदी में कोई पुल न होने के कारण बरसात के दो महीनों में नदी का उफान दोनों गांवों के बीच दिवार का काम करता था। किसी भी संदेश का कार्य नदी के दोनों किनारों से लोगों की जोर-जोर से आने वाली आवाजें करती थी। परंतु बरसात में जब नदी का शोर आवाज को दबा देता तो संदेश का माध्यम दोनों किनारों से लहराने वाले रंग-बिरंगे कपड़े के टुकड़े करते। रंग के अनुसार जिनका अपना-अपना अर्थ होता था। बरसात के बाद दोनों गांव वाले दोबारा आपस में मिलने की खुशी में कई दिन तक जश्न मनाते। सभी खूब नाचते, गाते और तरह-तरह के पकवान तैयार करते थे।
इस अकेलेपन और गम की घड़ी में बसंतु को अतीत में झांकना सुखद अहसास की अनुभूति करा रहा था। बसंत के महीने में जन्म होने के कारण बसंतु का नाम बसंतु पड़ा था। दोनों गांवों के लिए एक ही साझा स्कूल था। जहां बसंतु और पिंकी ने पांचवीं तक पढ़ाई की। देवा ने तो अपनी पोती पिंकी को शहर में आगे पढ़ाने के लिए साफ इन्कार कर दी थी। वैसे भी उस समय लड़की को पढ़ाने की मानसिकता अपने निम्न स्तर पर थी। बसंतु के माता-पिता को इस बात का डर था कि शहर की अजनबी हवाएं बसंतु को भी अजनबी न बना डालें। इसलिए उन्होने बसंतु को आगे स्कूल नहीं भेजा। वे कहते, ‘‘वैसे भी इसे कौन सी नौकरी करनी है। ढेर सारी जमीन को इसे ही तो संभालना है।’’ बसंतु को अपने माता-पिता के उस डर का अहसास आज अपने साथ होते दिख रहा था। वह सोच रहा था क्या उसके मां-बाप सही थे या फिर...........।
बसंतु को वह दिन भी याद है जब ईश्वर से ज्यादा देर तक दोनों परिवारों की खुशी देखी न गई थी। उस साल इतनी बारिश हुई कि देवा के परिवार समेत गांव का आधा हिस्सा बाढ़ अपने साथ ले गई। अतीत के इस दर्दनाक हादसे की याद ने बसंतु की बूढ़ी आंखों को नम कर दिया था। उस समय बसंतु हट्टा-कट्टा नौजवान था। पिंकी बाढ़ के समय अपने मामा के पास थी। अतः वह बच गई थी। बाढ़ के बाद फिर कभी भी गांव में बरसात के बाद का जश्न नहीं मनाया गया। बाद में पिंकी के रिश्तेदारों की सहमति से पिंकी और बसंतु का विवाह करवा दिया गया।
गांव के बीच से होकर जाने वाली सड़क पर शाम के सात बजे की आखिरी बस की जोर की ब्रेक ने बसंतु के ख्यालों को विराम लगा दिया था। बस की ओर पलटी बसंतु की हिलोरे खाती गर्दन जब वापिस मुड़ी तो बसंतु के चेहरे पर पहले से ज्यादा चिंता की रेखाएं और निराशा के भाव उभर आए थे। आज भी उसके बेटे नहीं आए थे। गम के अथाह सागर में घिरे बसंतु ने एक नजर आसमान पर दौड़ाई तो सूर्य क्षितिज की गहरी खाई में डूब चुका था। उसके विश्वास के एक और पहलु ने आज दम तोड़ दिया था। बसंतु लाठी के सहारे खड़ा हुआ और कांपती टांगों के साथ धीरे-धीरे अपने घर की तरफ बढ़ चला था।
आज जब अमित और सुमित गांव पहुंचे तो गांव में चारों तरफ सन्नाटा पसरा था। कंही-कंही पर छोटे-छोटे बच्चे जरूर खेलते नजर आ रहे थे। जैसे ही दोनों घर पहुंचे तो घर के आंगन में मौजूद लोगों की भीड़ को देखकर वे घबरा गए। भीड़ को चीरते हुए आगे पहुंचे तो देखा, सफेद कफन में ढकी बसंतु की लाश को अंतिम यात्रा के लिए तैयार किया जा रहा था। इससे पहले कि अमित और सुमित कुछ कहते-पूछते। गांव का एक व्यक्ति उन्हें चिट्ठी थमाते हुए बोला, ‘‘बाबू जी ने कहा था, आप दोनों जब भी घर आएं तो आप इसे जरूर पढ़ लें। साथ ही साथ बाबू जी की अंतिम इच्छा भी थी कि आप उन्हें मुखाग्नि न दें। मुझे उम्मीद है आप उनकी अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे।’’’’
यह सब सुनकर अमित और सुमित हैरान थे। सभी गांववासियों की अजीब सी घूरती और क्रोध से भरी नजरों का सामना कर पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। अमित के आंख के इशारे पर सुमित भी उसके पीछे-पीछे घर के एक कोने में पहुंच गया था। हाथ में पकड़ी चिट्ठी में लिखी बातों को जानने के इरादे से अमित ने धीरे से चिट्ठी को खोला और पढ़ना शुरु किया।
मेरे प्यारे बच्चों
जब तक तुम आओ, शायद मैं इस दुनिया में न रहूं। झुर्रियों भरे इस चेहरे में तुम्हे मेरी पीड़ा का शायद जरा भी अहसास नहीं होगा। इसलिए मैं सारी पीड़ाएं अपने साथ लिए जा रहा हूं। दूसरी बात, मैं तुमसे मुखाग्नि का हक छीन रहा हूं। वह इसलिए कि तुम तो कब का मुझे जला चुके हो। बस, शरीर को जलाने की सामाजिक औपचारिकता मात्र से वंचित कर रहा हूं। हो सके तो अपने इस बूढ़े, बिमार, कमजोर बाप को माफ करना! तुम्हारी मां तुम्हारी एक झलक पाने की आस लिए अंतिम सांस तक दरवाजे पर टकटकी लगाए तुम्हारा इंतजार करती रही। लेकिन तुम न आए। जिस मां ने तुम्हे हमेशा बूरी नजरें से बचाए रखा। मुझसे लड़ लड़कर तुम्हारी हर इच्छाओं को पूरा किया। उस बिमार बूढ़ी मां का हाल-चाल पूछना तो दूर उसके अंतिम संस्कार के लिए भी तुम्हारे पास समय का अभाव रहा। तुम्हारी मां के बाद मुझ अकेले को तुम्हारे सहारे की आस बाकी थी। कई बार संदेशा भी भेजा लेकिन तुम फिर भी न आए। इसे मैं भाग्य की बिडम्बना कहूं या अपने दिए संस्कारों पर शक करूं। मैं नहीं जानता। लेकिन लगता है आज रूपयों के लिए रिश्तों का खून बहाना एक आम बात हो चुकी है। लेकिन बच्चों, तुम दोनों मेरी एक बात हमेशा याद रखना। आदमी थक हारकर अंत में उन्ही ठुकराए रिश्तों की शरण में सुकून पाता है।
मैंनें सारी जमीन और यह पुराना मकान वृद्वा़श्रम को दान कर दिया है। मुझे लगा कि जो बेटे अपने मां-बाप की इस अवस्था में देखभाल न कर पाए। वे शायद इस जमीन और बूढ़े मकान को भी यूं ही किसी अन्य के सहारे छोड़ या फिर बेचकर अपनी तिलस्मी दुनिया की चकाचैंध में खोए रहेंगंे। इसी डर से यह कदम उठाने पर मजबूर हुआ। जानता हूं, मेरा यह निर्णय तुम्हारी नजरों में माफी के काबिल नहीं होगा। इसलिए मैं तुमसे माफी की फरियाद नहीं करूंगा। लेकिन इतना जरुर कहूंगा कि तुम इस गांव में बसने का ख्याल भी अपने मन में कभी न लाना क्योंकि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी तरह की औलाद गांव में रहकर किसी और बसंतु की अंतिम सांझ को दुखों के पहाड़ तले दबा दे। मुझे आशा है तुम मेरी यह इच्छा अवश्य पूरी करोगे।
बच्चों, मैंने अपने जीवन की सांझ को बहुत कष्टों और दुखों में बिताया है। आप दोनों को कभी यह मौका न आए। ईश्वर से यही फरियाद करता हूं। और अपने लिए ईश्वर से यह दुआ मांगता हूं कि अगले जन्म में मुझे कोई औलाद न दे। इसी जन्म में ही औलाद के सुख से मेरा जी भर गया है। मेरे बच्चों, मेरी बातों का बुरा मत मानना क्योंकि हो सकता है तुम्हारा बाप अकेलेपन की पीड़ा को झेलते-झेलते सठिया-सा गया हो।
मेरा अंतिम प्रणाम।
तुम्हारा अभागा बाप
बसंतु
चिट्ठी को पढ़ कर अमित और सुमित के चेहरे पर अजीबो गरीब भाव तैर रहे थे। गुस्से से चिट्ठी को टुकड़े-टुकड़े करके वे जोर-जोर से रो पड़े थे। आंगन खाली था। एक-एक करके सभी लोग बसंतु की अंतिम यात्रा में शामिल हो चुके थे।
-पवन चौहान
गांव व डा0 महादेव, त0. सुन्दरनगर, जिला मण्डी हि0.प्र0. -175018