Aadha Aadmi - 19 in Hindi Moral Stories by Rajesh Malik books and stories PDF | आधा आदमी - 19

Featured Books
  • અપેક્ષા

       જીવન મળતા ની સાથે આપણે અનેક સબંધ ના સંપર્ક માં આવીએ છીએ....

  • આયનો - 2

    ​️ કેદ થયા પછીની સ્થિતિ: ધૂંધળી દુનિયા​આયનાની અંદરનો કારાવાસ...

  • ટેલિપોર્ટેશન - 3

    ટેલિપોર્ટેશન: વિલંબનું હથિયાર​અધ્યાય ૭: વિલંબનો અભ્યાસ અને ન...

  • The Madness Towards Greatness - 5

    Part 5 :" મારી વિદ્યા માં ઊણપ ના બતાવ , તારા કાળા કર્મો યાદ...

  • અંધારાની ગલીઓમાં લાગણીઓ - 4

    શીર્ષક : અંધારા ની ગલીઓમાં લાગણીઓ - 4- હિરેન પરમાર ગુપ્ત મુલ...

Categories
Share

आधा आदमी - 19

आधा आदमी

अध्‍याय-19

ज्ञानदीप पढ़ते-पढ़ते रूक गया। न जाने दीपिकामाई की डायरी का अगला पेज कहा चला गया था। उसे रह-रहकर अपने ऊपर क्रोध आ रहा था। उसने उठकर पानी पिया और खिड़की से बाहर की तरफ़ देखा, तो सरदार जी के आँगन में तेजी से नल बह रहा था। ज्ञानदीप से जब रहा नहीं गया तो उसने एक नहीं कई आवाज़ लगाई। पर उसे कोई जवाब नहीं मिला। वह बुदबुदाया, ”यहाँ मैं एक-एक बूँद पानी के लिए तरसता हूँ और इन लोगों को देखों कैसे पानी की बर्बादी कर रहे हैं। बड़े-बड़े शहरों में जाकर देखें तब पता चलें पानी हैं क्या चीज? लोग एक-एक गिलास के लिए घँटों लाइन लगाते हैं। सरकार को तो हर घर में, हर शहर में, बिजली की तरह मीटर अनिवार्य कर देना चाहिए। जो जितना पानी खर्च करे उसी हिसाब से बिल दें.‘‘

एकाएक ज्ञानदीप की नज़रे टेबिल के नीचे पड़े पन्ने पर गई। उसने झट से उठाया और पढ़ने लगा-

मगर ईश्वर के आगे किसकी चली हैं। छबीली राना की आँखों पर जैसे पट्टी पड़ गई हो। वह हम लोगों को बैठा देख कर भी देख न पाई। जैसे वह बस से उतरी। बस चल पड़ी थी। हम लोगों की जान में जान आई। मैंने ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया।

सुबह ही हम-दोनों आजमगढ़ पहुँच गये थे। वादे अनुसार पार्टी मालिक स्टेशन के बाहर मिला। हम दोनों उसके साथ ताँगें पर बैठकर गाँव पहुँच गये थे। मैंने देखा, उसके दरवाजे पर कई सुवर बँधे थे।

मैंने छुटते ही पूछा, ‘‘यह सुवर किसके हैं?”

”मेरे हैं.”

”आप किस कास्ट के हैं?‘‘

‘‘हम चमार हैं और हमारा यहीं काम हैं.”

‘‘ऐसा हैं आप हमें वापस आजमगढ़ ले चलिये और वही पर एक किराये का कमरा ले दीजिये.”

पार्टी मालिक हम-दोनों को आजमगढ़ ले आया था। वह हम-दोनों होटल में बैठाकर खुद कमरा ढूढने चला गया था।

मैंने दुकानदार से पूछा, ‘‘अगर आप की नज़र में कोई किराये का कमरा हो तो बताइए.‘‘

उसने दो टूक में जवाब दिया, ‘‘देखिये, यहाँ कमरा मिलना तो बहुत मुश्किल हैं। क्योंकि यहाँ पर डांसरों ने बहुत गंदगी फैलाई हैं। डांस की आड़ में ये लोग धंधा करती हैं इसलिए अब कोई इन्हें कमरा नहीं देता.‘‘

”ऐसा हैं भैंया, हम लोग उस तरह के नहीं हैं। हम यहाँ आये हैं पैसा कमाने कोई धंधा करने नहीं, और वैसे भी हम अपना आदमी लेकर खुद चलती हैं.‘‘

तभी वहाँ बैठे एक अधेड़ उम्र के ठाकूर साहब ने हमारी सारी बातें सुन ली और फिर मेरे करीब आकर बोले, ‘‘अगर आप लोग चाहे तो सामने मेरी दुकान हैं, उसी में रह सकते हैं। मगर एक शर्त हैं कि आप लोग गोश्त, अंडा नहीं खायेंगे.‘‘

‘‘ ठीक हैं.‘‘

पार्टी मालिक के आते ही मैंने उसे बताया कि कमरा मिल गया हैं। तो वह बहुत खुश हुआ।

7-1-1983

मुझे जिस गाँव में प्रोग्राम करना था। वह शहर से बीस किलो मीटर दूर था। वहाँ तक जाने का कोई भी साधन नहीं था। क्योंकि पूरा रास्ता रेगिस्तानी था। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं वाकई रेगिस्तान में आ गया हूँ। पार्टी मालिक ने हमें साइकिल दी थी। मगर रेत पर साइकिल चलाना दूभर हो गया था। हम-दोनों ने पैदल ही रास्ता तय किया।

गाँव पहुँचते-पहुँचते मैं थक के चूर हो गया था। अब मुझ में इतनी भी ताकत नहीं थी कि मैं उठ-बैठ सकूँ। मैं रोने लगा था।

‘‘हिम्मत क्यों हारती हो जो भी संघर्ष करना पड़ेगा साथ मिल कर करेंगे.‘‘ इसराइल की बातों से मेरे मुर्दा शरीर में जान आ गया था।

पार्टी मालिक के कहते ही मैं गुलाबी रंग का सलवार-शुट पहनकर तैयार हो गया। और बारात में जाकर बैण्ड के सामने नाचने लगा। पूरी रात नाचने के बाद मेरे शरीर में जैसे जान ही नहीं बची थी।

मैंने इसराइल से आकर कहा, ‘‘एक तो हम भूखी-प्यासी ऊपर से इतनी मेहनत, इससे अच्छा तो स्टेज प्रोग्राम उसमें इतनी मेहनत तो नहीं हैं.‘‘

‘‘खैर! तुम परेशान मत हो अभी मैं पार्टी मालिक से बात करता हूँ.‘‘

27-1-1983

मैं अगले दिन इसराइल को लेकर बाजा़र सामान खरीदने गया। वहाँ मेरी मुलाकात कई डंासरों से हुई। मैंने छुटते ही पूछा, ‘‘आये बहिनी, तुम कितनी नाईट पाती हो?‘‘

‘‘हम तीस रूपये नाईट लेती हैं ऊपर से खाना-पीना, तेल-मंजन और रहने की व्यवस्था अलग से.‘‘

‘‘कहाँ है आप का मकान?‘‘

‘‘हम यही की बच्चा हूँ। पर तुम कहाँ की हो और कितने रूपये नाईट पाती हो.‘‘

‘‘हम तो नेपाल की बच्चा हूँ.‘‘ कहकर मैंने सोचा, ‘यह काली-कलूटी होकर तीस रूपया नाईट लेती हैं.‘ इसलिए मैंने उससे सफेद झूठ बोला, ‘‘आय बहिनी, हम तो पचास लेती हूँ खाना-खर्चा और इनाम अलग से.‘‘

वहाँ खड़े एक पार्टी मालिक ने हम लोगों की सारी बातें सुन ली थी। जैसे ही वहाँ से मैं जाने लगा। उसने मुझे बुलाया और मेरा नाम, पता पूछा। मैंने अपना परिचय देने के बाद, उसका परिचय पूछा तो उसने अपने को पार्टी मालिक और नाम शकील अंसारी बताया। और अपनी डांस कम्पनी में मुझे साठ रूपये नाईट देने का आँफर किया।

मैंने भी झट से ‘हाँ‘ कर दी। अगले ही दिन जब पार्टी मालिक आया तो मैंने उससे साफ-साफ मना कर दिया कि अब मैं तुम्हारे साथ काम नहीं कर सकता। उसने मुझे मनाने की बहुत कोशिश की, मगर मैंने उसकी एक न सुनी और उसे चलता कर दिया।

3-3-1983

मैं उस अंसारी पार्टी मालिक के साथ नाईट प्रोग्राम करने लगा। मेरी नाईट साठ रूपये से बढ़कर अस्सी रूपये तक हो गई थी।

पूरे एक महीने की कड़ी मशक्कत के बाद हम लोगों ने खा-पीकर पन्द्रह सौं रूपए बचा लिए थे। साथ-साथ एक बोरिया बर्तन और एक छोटा बक्शा जिसमें घर वालों के लिए कपड़े थे। सारा सामान लेकर हम लोग ट्रेन में चढ़ गए।

जब ट्रेन चलने लगी तो मैं गेट पर आकर खड़ा हो गया। इसराइल सीट पर बैठा-बैठा सो गया था।

‘‘कहाँ जाओंगी?‘‘ एक आदमी ने पीछे से आकर पूछा।

‘‘अपने घर जाऊँगी और कहाँ.‘‘ मैंने चिढ़कर कहा।

‘‘आप तो नाराज हो गई मेरा पूछने का मतलब आप रहती कहाँ हो?‘‘

‘‘मैं नेपाल रहती हूँ.‘‘

‘‘यहाँ कहाँ आई थी?‘‘

बातों ही बातों में मैंने उसे अपना सारा दुखड़ा बयां कर दिया। उसने मुझे चाय पीने का न्यौता दिया तो मैंने कुबूल कर लिया। फिर उसने मेरे आगे बीड़ी पीने का प्रस्ताव रखा तो उसे साफ मना कर दिया। मगर उसने जब दोस्ती का वास्ता दिया तो मुझे पीना ही पड़ा।

थोड़ी देर बाद मुझे चक्कर-सा महसूस हुआ तो मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया। कब मैं बेहोश हो गया मुझे कुछ पता ही नहीं चला।

जब होश आया तो सब कुछ हमारा लूट चुका था। इसराइल ने एक-एक करके सारे डिब्बों में देखा, मगर सामान का कहीं अता-पता नही था। हमारे चप्पलें तक वह उठा ले गया था।

इसराइल रोने लगा तो मैंने उसे समझाया, ‘‘क्यों रो रहे हो पगलें, जो चीज हमारे नसीब में नहीं थी उसके लिए क्या रोना। जिस हालात में घर से निकले थे उस बीच हम-दोनों में से एक की मौत हो जाती, तो मैं या तुम ल्हास उठाते या सामान देखते। कोई मुसीबत आने वाली थी जो टल गई। इसलिए सामान गया तो जाने दो, कम से कम हम लोग जिंदा तो हैं। और जिंदगी रहेगी तो न जाने कितना कमाया जाएगा.‘‘

बात करते-करते हम-दोनों बस स्टैण्ड तक आ गए थे। मई का महीना था। हम-दोनों के पैरों में छाले पड़ गए थे। हमारे पास एक पैसा भी नहीं बचा था। यह तो कहो ऊपर वाले का शुक्र था कि कान की झुमकी नहीं निकली थी। मजबूरन मुझे कान की झुमकी एक पान वाले के हाथ औने-पौने दाम में बेचनी पड़ी। फिर उन्हीं पैसों से हम लोग अपने घर आ गये।

अम्मा के पूछते ही मैंने सारी बात बता दी। अम्मा को तो यकीन हो गया था। पर पिताजी को लग रहा था कि मैं झूठ बोल रहा हूँ।

वह मुझसे बहस करने लगे, ‘‘आखिर कौन-सा ऐसा बिजनेस करते हो जो तुम्हारा सामान चोरी हो गया?‘‘

13-7-1983

एक तरफ़ सामान खोने का ग़म था। दूसरी तरफ़ बीबी-बच्ची का। यहीं चिंता करते-करते मेरी तबियत खराब हो गई थी। इसराइल मुझे सुबह-शाम दवा खिलाता मेरा ख्याल रखता।वह मेरी अंदर की पीड़ा को समझ गया था, कि मैं अपने बीबी-बच्ची के बिना नहीं रह सकता। इसलिए उसने मुझे आश्वासन दिया कि जल्दी ही बीबी-बच्ची को ले आएगा।

इसराइल मुझे समझा-बुझाकर अपने काम पर चला गया था।

कमरे में लेटे-लेटे जब मन घबराने लगा तो मैं बाहर आकर मंदिर की सीढ़ी पर बैठ गया। तभी शरीफ बाबा आया और ड्राइवर के बारे में पूछने लगा।

मैंने उसे दो टूक में जवाब दिया, ‘‘मुझे क्या पता वह कहाँ हैं और वैसे भी अब हमारा उससे कोई लेना-देना नहीं हैं.‘‘

तभी इसराइल आ गया और उसे देखते ही पूछा, ‘‘यह कौन हैं?‘‘

मैंने बताया यहीं हैं शरीफ बाबा।

यह सुनते ही इसराइल का मूड खराब हो गया था।

फिर शरीफ बाबा के पूछते ही मैंने इसराइल का परिचय दिया, ‘‘यह हमारा दोस्त हैं हमारा बेटा हैं.‘‘

शरीफ बाबा भड़क उठा, ‘‘बेटा बनाया हैं कि भतार?‘‘

‘‘चाहे बेटा बनाये या भतार तुमसे क्या मतलब, हम जब तुमसे कोई सवाल नहीं करती हैं। तो तुम कौन होते हो हमसे हमारी ज़िंदगी के बारे में पूछने वाले? जब हमारा कोई सहारा नहीं था, कोई जरिया नहीं था तब इस आदमी ने इस बेसहारे को सहारा दिया। जितना इसने मेरे साथ किया हैं उतना तो तुम साथ जन्म में नहीं कर सकते। तुम तो थाली पर बैगन हो, जहाँ अच्छा माल देखा और चिकने लौन्डे उसी के पीछे लग गए। तुमने हमारी ज़िदगी को एक कटी पंतग बना दिया, वह कटी पंतग! जिसे कोई भी लूट सकता हैं.‘‘

‘‘तुमसे जरा पूछ का लिया तुम तो पोथी-पतरा खोल के बैठ गई.‘‘

‘‘तुम बात ही ऐसी करते हो न हाल न चाल सिर्फ अपने मतलब की बात कर रहे हो.‘‘

‘‘अभी वक्त हैं संभल जाओं और यह दुनिया का बखेड़ा हटाकर जैसे रहते थे वैसे मेरे साथ रहो, मैं अब भी तुम्हारे साथ हूँ.‘‘

शरीफ बाबा की इस बात पर मैंने सोच लिया था कि अब मैं इसका इस्तमाल करूँगी। मैंने इसराइल को किनारे ले जाकर कहा, ‘‘मुझे बस तुम्हारा सर्पोट मिल जाए तो देखों मैं इसे कैसे बेवकूफ बना-बना के पैसे ऐंठती हूँ.‘‘

‘‘मेरी तरफ़ से तुम्हें पूरी छूट हैं.‘‘ इसराइल से इज़ाज़त मिलते ही मैं पूरी तरह से फ्री माइंड हो गया था।

14-6-1984

फिर मैं किसी न किसी बहाने शरीफ बाबा से कभी बीस तो कभी तीस रूपये ऐंठता रहा। पैसा आते ही मैंने अपने छोटे भाई को भेजकर अपनी बीबी-बच्ची को बुलवा लिया था।

उस दिन जब शरीफ बाबा मुझे मिला तो मेरी पत्नी को लेकर उल्टा-सीधा कहने लगा, ‘‘जब तुम्हारे अंदर मर्द वाली कोई बात ही नहीं हैं तो तुम्हारी बच्ची कहाँ से आई.‘‘

उसकी बात सुनकर मैं तैश में आ गया, ‘‘तुम्हारे कहने का मतलब क्या हैं कि मैं नामर्द हूँ.‘‘

‘‘अरे यार! मैंने तो मजाक किया था.‘‘ मामला गंभीर होता देख शरीफ बाबा ने पासा पलट दिया।

मगर मैंने उसकी एक भी करनी बाकी नहीं रखी, ‘‘आज कहा हैं मगर दोबारा ऐसा मत कहना। मुझे जो कहना हैं कहो, पर मेरे परिवार को कुछ मत कहना। वरना मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.‘‘ मैं कहकर चला आया था।

28-8-1984

उस दिन मैं बाबा की मजार से सजदा करके लौट रहा था कि रास्ते में मुझे ड्राइवर मिल गए।

‘‘सुना हैं आजकल तुमने किसी दूसरे का साथ कर लिया है?‘‘ ड्राइवर ने पूछा।

*****************