Khud khudi se in Hindi Moral Stories by Jaya Jadwani books and stories PDF | खुद खुदी से

Featured Books
  • અપેક્ષા

       જીવન મળતા ની સાથે આપણે અનેક સબંધ ના સંપર્ક માં આવીએ છીએ....

  • આયનો - 2

    ​️ કેદ થયા પછીની સ્થિતિ: ધૂંધળી દુનિયા​આયનાની અંદરનો કારાવાસ...

  • ટેલિપોર્ટેશન - 3

    ટેલિપોર્ટેશન: વિલંબનું હથિયાર​અધ્યાય ૭: વિલંબનો અભ્યાસ અને ન...

  • The Madness Towards Greatness - 5

    Part 5 :" મારી વિદ્યા માં ઊણપ ના બતાવ , તારા કાળા કર્મો યાદ...

  • અંધારાની ગલીઓમાં લાગણીઓ - 4

    શીર્ષક : અંધારા ની ગલીઓમાં લાગણીઓ - 4- હિરેન પરમાર ગુપ્ત મુલ...

Categories
Share

खुद खुदी से

खुद खुदी से

वो जब मिली मैं अपनी उम्र की तीसरी बादान पर थी....फिसल कर चौथी पर गिरने से ठीक पहले खुद को संभालती हुई. मुझे पता ही नहीं चला इतने सारे बरस मेरे सिर पर से कैसे गुज़र गए और मैं क्यों मिट्टी के नीचे दबी रह गई, अनअंकुरित. मैंने अभी-अभी अपना अंखुआ देखा है, जब मैं गिरने से खुद को बचा रही थी तो सहसा मेरे भीतर किसी की नींद टूट गई और वह खड़ी हो गई. उसके खड़े होते ही वह अंखुआ मैंने देख लिया, पहले तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ फिर मैं जोर से रो पड़ी –

‘तुम कहाँ थी?’ मैंने अपने नर्म-गीले-खारे अहसास से उसे छुआ भर. वे सिर्फ दो पंक्तियाँ थीं....एक-दूसरे से लिपटी....मूंगफली के दाने जितनी.... हल्की हरी, जो पता ही नहीं चला कितने अवरोधों को अंगूठा दिखा मिट्टी की कोख से ऊपर आ गई थीं....

‘तुम्हारे ही भीतर.....’ उसने कुछ नहीं कहा, बस झूमती रही पर मैंने सुन लिया.

‘इतने बरस लगा दिए.....’ मैं और जोर से रो पड़ी. मेरे आंसुओं से उसकी सिंचाई होती रही.

‘तुम पत्थर बन गई थी और मैं उस पत्थर के नीचे दबी थी. तुम फूटी और मैं बाहर आई. रोना अच्छा होता है, रो लो. भीतर की मिट्टी गीली होती रहती है. बाहर की बारिशों की उतनी मोहताजी नहीं रहती. वैसे तुम ख़ुशी से रो रही हो या दुःख से?’ और पत्तियां काँप कर खुल गईं.

‘ख़ुशी महसूस करने की क्षमता मैं खो चुकी हूँ. ऐसी कोई चीज होती है, मैंने जानी नहीं. बहुत बरस पहले जब छोटी थी, मां ने कहा था, ‘रेगिस्तान में भी कुएं होने की संभावना होती है, जितना खोदोगी, उतना मिलेगा.’ नहीं समझ पाई थी, उन्होंने कहा था, जितना खोदोगी? इतने बरस ऊपर-ऊपर खोदती रही, सुख की उम्मीद में और फिर खोदना भी बंद कर देती थी. अब जाकर जाना है, सुख उम्मीद होता है, अगर वह हमसे बाहर हो. तो क्या यह उम्मीद का सुख है? क्या सिर्फ उम्मीद ही सुख है? जो हम सचमुच चाहते हैं, उसके हो जाने की उम्मीद. और अगर हमारा चाहा हुआ हो जाए तो हम उससे भागने लगते हैं. उससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. भीतर फिर वही रिक्तता और तिक्तता का अहसास. फिर कुछ और..... फिर कुछ और..... तो क्या उस समय की चाहत झूठ थी? क्या एक वक्त का सच दूसरे वक्त के झूठ में बदल जाता है? ऐसा क्या है, जिसे पाने के बाद कुछ और पाने को बचे ही नहीं. कुछ और है भी? यह ‘कुछ और’ क्या है? कभी-कभी इसकी झलक मिलती है और फिर......’

‘बोलो न, रुक क्यों गई?’

‘तुमने पहाड़ों की ढलानों पर देवदारों की श्रंखला देखी है? वे खड़े रहते हैं अपनी लंबी-लंबी बाहें फैलाए.... दिनों बर्फ गिरती है और वे दब जाते हैं पर मरते नहीं. बर्फ के भार से टूटी हुई शाखें लिए भी वे उसी के अंदर दफन रहते हैं कि एक दिन बर्फ पिघलेगी और वे इस सफ़ेद कब्र से बाहर आ जाएंगे. कितने आ पाते हैं?

एक पिछला अध्याय

चलो, एक पिछला अध्याय पलटते हैं. लड़कियों की जिंदगी में जो आता है, कुछ न कुछ लेने ही आता है. मां-बाप भी जन्म देकर कहते हैं - तुम लड़की हो, तुम्हें भविष्य में अच्छी पत्नी, अच्छी बेटी बनकर दिखाना है. दोनों कुलों की लाज बचाना है. और मैं तो जैसे अच्छी ‘बनने’ के लिए तैयार ही बैठी थी. चल पड़ी उनकी बताई राह पर. उन्हें अच्छी बनकर दिखाने के चक्कर में मैंने घोंटा अपने भीतर की अबोध बच्ची का गला. क्या कोई यकीन करेगा वह अभी भी मेरे भीतर रो रही है? अभी भी अपना बचपन ढूंढ रही है. मैं हैरान हूँ इसकी उम्र क्यों नहीं बढ़ी? यह मर क्यों नहीं गई? यह तो बहुत बाद में पता चलता है, बहुत-बहुत बाद में कि अनजिया कभी मरता नहीं.....कितनी भी बर्फ पड़ती रहे ऊपर.....?

एक और पिछला अध्याय

फिर मेरी शादी हो गई. मैं बहुत खूबसूरत थी कसम से. बड़ी दूर-दूर से लोग मुझे देखने आते थे. दूर मोहल्लों की औरतें एक-दूसरे से कहती थीं – ‘फलां की बहू बहुत खूबसूरत है, चलो देख आएं.’ बस नहीं कहा तो किसी ने मुझसे नहीं कहा. लोग मुझे खिडकियों से देखते थे तो मेरे घरवाले मुझे खिड़की तक पहुँचने ही नहीं देते थे. सुन्दरताएं तो सब मांगते हैं पर उसे सहन करने की सामर्थ्य सबमें नहीं होती. न उसे संभाल कर रख पाने की समझ. उसे बस कैद कर लिया है अपने लिए और फिर वह मर जाती है. क्या कहा, आईना? वह हमें नहीं हमारी सोच को प्रतिबिंबित करता है. हमारे दिमागों में जो कूड़ा है, वही तो दिखता है. वह कूड़ा, जिसे हम तमाम उम्र इकठ्ठा करते रहते हैं. अपनी सोच बनी कहाँ थी तब ?

खैर, शादी के बाद अब दूसरे कुल की भी लाज बचानी थी. ये लाजें तो बड़ी नाज़ुक होती हैं.... छोटी-छोटी बात पर इनकी जान निकलने लगती है. किसी अजनबी से बात कर ली... जोर से हंस दिए.... कपडे अपने मन के पहन लिए....जरा सा दुपट्टा सिर से गिर गया....बाल खुले कर लिए ......लिपस्टिक लगा ली.... रात को देर तक घूम लिए. सुबह देर तक सो लिए, किसी के कंधे पर हाथ मार ताली पीट ठहाका लगा लिया तो ये हमारे घरों से लुढ़कती बाहर सड़क तक चली जाती है और बाहर तो लोग खड़े ही रहते हैं इन्हें रौंदने. उनके जूतों के तलों में कीलें लगी होती हैं. जो हर अहसास को क्रूरता से रौंद डालती हैं.... लहूलुहान कर देती हैं...... सबसे बड़ी बात, इन्हें बचाना सिर्फ लड़कियों का काम होता है. लड़के तो इसे अपनी जेब में लिए घूमते हैं.... जरा सी चूं-चपड़ की ...... रेतो गर्दन. इन्होंने लड़कों के पास जाना ही छोड़ दिया. अब हमीं इनकी देखभाल करते हैं.

हमारा वह पचीस-तीस लोगों का कुनबा, जिसमें पांच-सात हम सेवादारी होते थे, दिन भर उनके भूख की व्यवस्था करनी होती थी. दिन भर ही नहीं रात को भी. आपने कभी ‘राजभोग’ थाली खाई है? दसियों चीजें होती हैं उसमें. खाते-खाते पेट भर जाता है, मन नहीं भरता. ये भूख ऐसी ही कुत्ती चीज है... इसके पेट में मनुष्य से लेकर साम्राज्य तक सब समा जाते हैं. यह सबको मार के ही खुद जिंदा रहती है. हम वही राजभोग थाली थे. क्या मजाल कुछ रखना भूल जाएँ उसमें.... सब रख देते थे, हाथ-पैर, होंठ-गर्दन, अगला-पिछला धड़, सब. मन अंदर की अंधेरी खोह में लंबी-लंबी साँसें लेता रह जाता था..... शामत आ जाती थी. हम उसी रंग के कपडे पहनते थे जो हमारे पुरुषों को अच्छे लगते थे. हमारा अपना कोई रंग न था. हम छोटी-बड़ी, टेढ़ी-मेढ़ी थैलियाँ थे, जिनमें वे अपनी मनचाही चीजें रखते और निकालते थे. इसी को मिट्टी में लिथेड़ते थे, इसी में से चीजें निकालकर खा जाते थे. दुनिया भर के रंगबिरंगे थिगड़ों की बनी थैलियाँ. एक फट गई, दूसरी बना ली. कभी-कभी पहचान के लिए वे कुछ गहने भी टांग देते थे इन थैलियों के हैंगरों पर. हिचकियों के साथ जब वे बजते थे, हमारी हिचकियाँ किसी को सुनाई नहीं देती थीं. हमको भी नहीं. हमें बचपन से ही अभिनय करना सिखा दिया जाता है. जब हम रोना चाहते हैं, हम हंस रहे होते हैं. जब हम हँसना चाहते हैं.....? कब हँसे थे हम...सचमुच की हंसी..... याद आ जाएगा तो बताती हूँ....फ़िलहाल थैलियों के हिलने की ही याद काफी है.

एक पिछला पन्ना

फिर?

फिर बच्चे हुए. उनके आने से मुझे जीवन का मकसद मिला. मेरी थैली में कुछ सिक्के खनके. पहली बार मुझे इस थिगड़ी सी देह की अमीरी का अहसास हुआ. उन्हें दूध पिलाते समय मुझे अपनी यह जिस्मी थैली भी बड़ी पवित्र लगने लगी. इसमें से महक उठ रही थी. जीवन की महक. अब मैं इसे बड़ा साफ़-सुथरा रखने लगी. कोई इसे मिट्टी में लिथेड़े अब नहीं सहा जाता था. देह खुली तो मुंह भी खुला. मुंह खुला तो जिम्मेदारी बढ़ी. अब इस राजभोग थाली को बड़ा भी बनाना है.... अब इसमें कुछ और पेट भी शामिल हुए हैं. फिर आपसी जंग से एक दिन कुनबा टूट गया. ताकत के इस खेल में जिसकी जितनी सामर्थ्य थी अपनी थाली लेकर चला गया, अपनी थैलियों में बहुत कुछ भर कर चला गया. कोई राजभोग बना रहा, कोई रोटी साग में सिमट आया. कुछ के पास उतना भी नहीं था. मैंने अपनी थाली खाली देखी तो मेरे बदरंग भी सफ़ेद पड़ गए. तुमने सफ़ेद पंछी देखे हैं, दिन भर चुग्गे की तलाश में. दाना चुन-चुन कर अपने बच्चों के मुंह में डालते हैं और उन्हें उड़ना भी सिखाते है. मैं चिड़िया बन गई और अपना अस्तित्व बचाने के साथ-साथ मैंने अपने बच्चों को उड़ना भी सिखाया. जहाँ से मेरे बच्चे अपने-अपने आसमानों की ओर उड़ान भर सकें. और वे उड़ गए.

पिछला पन्ना

‘तुम यहीं रह गईं?’

‘उड़ने वाला सिर्फ खुद उड़ सकता है. अपने साथ किसी दूसरे को नहीं उड़ा सकता. जीवन का यही नियम है.’

‘और तुम?’

‘और मैं? हा..... हा.....हा.....ये पूछ कौन रहा है? इस औरत को तो मारकर फेंक दिया था मैंने.... पर तू कमबख्त कौन है जो जिंदा बच गई. मारा तो तुम्हें भी था बल्कि सबसे पहले तुम्हें ही मारा था. दफना भी दिया था भीतर की कीचड़ में. बड़ी जिजीविषा है तुझमें... बेशरम कहीं की...... सांस अभी तक चल रही है.’

और अब ?

‘अब है क्या कुछ मेरे लिए?’

‘तू भूखी.... तू क्या मांग रही है.....तू तो अब बड़ी हो गई है. बच कैसे गई तू? मेरा ‘मैं’..... बता तुझे क्या चाहिए?’

‘मैं तो बरसों से भूखी हूँ. मैं बरसों से एक ऐसे मनुष्य की तलाश में हूँ, जिसकी गंध से मैं जान सकूँ उसके पास बहुत-कुछ है और वह तुम हो. तुम तो हरा-भरा बगीचा हो. फलों-फूलों से लदा खूब भरा हुआ और झुका हुआ कि कोई आए, उसमें से कुछ तोड़कर अपनी भूख मिटाए.’

‘मुझे किसी ने बताया ही नहीं.’

‘कोई और क्यों बताए.... ये तो तुम्हें खुद जानना है. खुद को भी खाद-पानी मौसम मिट्टी की जरूरत होती है. हम इंसान खुद को देना भूल जाते हैं, हमारा सारा आकर्षण बाहर पर टिका है. क्या कभी अपनी आवाज़ सुनाई देती है?’

‘मैं तो लड़की होने का अभिशाप........’

‘शट’प..... खुद पर तरस मत खाओ. तुम्हें जैसा जीवन दिया गया, तुमने स्वीकार किया, संघर्ष नहीं किया. जीवन सिर्फ स्वीकार नहीं संघर्ष भी तो है. यथास्थिति से ऊपर उठने का संघर्ष. खुद को साबित कर सकने का संघर्ष. किस युग में ऐसा हुआ है कि लड़कियां ऊपर उठकर नहीं आईं? खुद तो उठो ही उनको भी उठाओ जो तुम्हें नीचे धकेलते हैं क्योंकि वे भी अपनी लीक से बंधे हैं, अपनी आदतों-संस्कारों से. उनमें भी ऊपर उठने का साहस नहीं है. जब एक पेड़ फलता-फूलता है, समूचे जंगल की फिजा बदल जाती है. हवाएं गीत गाने लगती हैं...बादल झूमने लगते हैं. उठो....दौड़ो....उडो... तुममें भी पंख उगाने का सामर्थ्य है. खटखटाओ अपना द्वार....प्रगट हो खुद में से खुद....’

हां.... मैं सुन रही हूँ....सुन रही हूँ तपती मरुभूमि के नीचे बहुत नीचे से आती झरने की आवाज़. वह यहीं है.....मैं उतारती हूँ अपनी सीमाओं को पुराने कपड़ों की तरह..... अब मैं खुद हूँ अपनी अनंत संभावनाओं के साथ..........

जया जादवानी / रायपुर