mahadwipiy vistar ki kavita in Hindi Book Reviews by कृष्ण विहारी लाल पांडेय books and stories PDF | जीवन में महाद्वीपीय विस्तार की कविता

Featured Books
  • नज़र से दिल तक - 5

    अगले हफ़्ते ही first-year students को हॉस्पिटल block में पहल...

  • Where Are We Heading in the AI Age?

    Introductionठीक है… सोचिए, अगर सरकार का कोई काम अब इंसानों क...

  • The Demon Catcher - Part 5

    "The Demon Catcher", all parts को प्रतिलिपि पर पढ़ें :,https:...

  • हमराज - 13

    आका की बात सुनकर ज़ेबा चौंक गयी और बोली, " क्या, क्या कह रहे...

  • अदाकारा - 20

    अदाकारा 20*"मुन।मैं क्या कहता हूँ।अगर हम उस लड़के से एक बार...

Categories
Share

जीवन में महाद्वीपीय विस्तार की कविता

जीवन में महाद्वीपीय विस्तार की कविता

समकालीन, वर्तमान अथवा आज जैसे काल विभाजक शब्दों से समय की एक अवधि का बोध तो होता है पर ये शब्द समयके निश्चित आयाम का सीमांकन नहीं करते। वे भौतिक रूप से संख्यापरक शब्द हैं भी नहीं। ‘आज’ शब्द अपने लाक्षणिक अर्थ विस्तार में ऐसे पूरे प्रस्तुत समय को समेट लेता है जिसमें अतीत का उतना हिस्सा समाया है जिसकी संगति आज के साथ जुड़ी हुई है। यह आज कुछ वर्षों का भी हो सकता है और कई दशकों का भी। समय के परिमाप से अधिक वह उस संवेदन और उन सरोकारांे से पहचाना जाता है जो हमारे अनुभवों में वर्तमान की तरह उपस्थित हैं। ’’आज’’ सिर्फ बीते हुए कल के आगे का समय नहीं है। उससे विगत के परिवर्तन की चेतना भी व्यक्त होती है। स्थितियों के बदलाव की यही विभाजक रेखा आज को कल से अलग करती है। इस आधार पर कोई भी आज अविचल नहीं होता। वह विगत होकर नये काल के लिये जगह छोड़ देता है। यह बात सामाजिक विवेचन पर भी लागू होती है और साहित्य के विमर्श पर भी।

आज की कविता पूरी जीवन्तता के साथ अपने समय को समग्रता में व्यक्त कर रही है। यह कविता जीवन और संसार को यथार्थ दृष्टि से देखने के कारण पूरे परिदृश्य को उसकी वास्तविकता में समझने का प्रयास करती है। यदि आज की कविता में गढ़े हुए आदर्श, अभिजात चरित्र चमत्कारी अर्थ के सुभाषित और रोमानी चित्र नहीं हैं तो उसका कारण है कि हमारा समय इतना जटिल, क्रूर, बाजारू, अमानवीय और मूल्यहीन हो गया है कि सभी संस्थान और व्यवस्थाएं ही नहीं बल्कि आस्थाएं भी अविश्वसनीय होने लगी हैं, अविश्वसनीय ही नहीं, क्षुद्र और उग्र भी।

साहित्य अपने समय की स्थितियों का भाषिक अनुवाद नहीं होता लेकिन यह भी सच है कि वह उनसे ही रचनात्मक संवेदना ग्रहण करता है। जो समय हमारी चेतना में नीचे उतरा है उसमें हमने बहुत तेजी से आज़ादी और लोकतंत्र के प्रति मोहभंग से लेकर राजनीति की सत्ताकामिता, पूँजीवाद का भ्रष्ट विकास, भूमंडलीय बाजार का उपभोक्तावाद, आर्थिक अपराध, आतंक, हिंसा, दहशत, अपात्रों के अभिषेक और हर उदात्त के अवमूल्यन के कारण अविश्वसनीयता का विकसित होता हुआ समाज देखा। साम्प्रदायिक आक्रामकता के नये उभार ने समाज को ऐसे शिविरों में बांट दिया जहाँ आत्मिक सान्त्वनाओं के बदले उत्तेजक नारे गढ़े जाने लगे। सामाजिक संश्लेषण की प्रक्रिया पुनः उग्र होते विभाजनों से सहम गयी। पूँजीवादके अनिवार्य उत्पाद के रूप में व्यक्तिवाद ने जन्म लिया। क्रय-विक्रय की मंडियों में नैतिक सम्बन्ध और रिश्ते नाते निर्वसन खड़े होने लगे। कला और संस्कृति की सूक्तियां उद्धरणचिह्नों में बन्द रह गयीं। हिंसा में नया रोमांच और मनोरंजन ढूँढा जाने लगा।

इस परिवेश से विचलित और द्रवित होकर अपनी भावभूमि निर्धारित करती आज की कविता को एक ओर यह संवेदना व्यक्त करनी थी दूसरी ओर इस सबके बाबजूद जीवन में उल्लास, उम्मीद और मानवीय कोमलताओं को बचाये रखना था। प्रेम के जीवन सिरजते अनुभवों को रोमानी वायवीयता और भावनाविहीन दैहिकता से अलग ऐन्द्रिय भाषा देनी थी और क्वथनांक तक पहुँचते जीवन के ताप को मानवीय सम्बन्धों के शीतल छींटे देने थे। दूसरे शब्दों में आज की कविता को अपनी पक्षधरता तय करनी थी। जाहिर है उसने प्रतिपक्ष की भूमिका चुनी, प्रतिरोध और प्रतिकार के घोषणापत्र के साथ। पौलैण्ड की कवयित्री विस्लावा शिम्बोर्स्का ने ‘‘हमारी सदी’’ कविता में गुजरती सदी के बारे में लिखा है-

‘‘कितनी ही चीजें थीं जिन्हें इस सदी में होना था/ पर नहीं हुई/ और जिन्हें नहीं होना था हो गई/ पहाड़ों और घाटियों से उठ जाना था आतंक और भय का साया/ इससे पहले कि झूठ और मक्कारी हमारे घर को तबाह करते/ हमें सच की नींव डाल देनी थी/ कुछ समस्याएं थीं जिन्हें हल कर लेना था/ मसलन भूख और लड़ाइयाँ/ हमें बेबसों के आँसुओं और सच्चाई जैसी चीजों के लिये/ अपने दिल में सम्मान जगाना था/ लेकिन ऐसा कुछ न हुआ।’’

(‘सदी के अन्त में कविता’ पुस्तक से उदधृत)

शिम्बोर्स्का का यह अनुभव सिर्फ उसका नहीं पूरी दुनिया का सच है और आज का कवि इन विविध सरोकारों के प्रति पूरी तरह सचेत है। रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर नागार्जुन, मुक्तिबोध और त्रिलोचन जैसे कवि अपने समय की संवेदना का जो पाठ तैयार कर रहे थे उसे बाद के कवि और प्रखरता तथा विस्तार दे रहे हैं । पिछले दो दशकों में कविता के क्षेत्र में विपुलता और गुणवत्ता की दृष्टि से जो कवि रचनारत हैं उन सबके नाम गिनाना न तो आसान है न सम्पूर्ण। फिर भी चन्द्रकान्त देवताले, नरेश सक्सेना, विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, विष्णु नागर, राजेश जोशी, जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, ज्ञानेन्द्र पति, भगवत रावत, अरूण कमल, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, एकान्त श्रीवास्तव, कुमार अंबुज, देवी प्रसाद मिश्र, कात्यायनी, अनामिका, बद्रीनारायण, बोधिसत्व, पवन करण आदि कवियों का भरा पूरा संसार है और उनसे भी युवतर पीढ़ी सक्रिय है।

आज की कविता का सीधा सम्बन्ध समाज, जीवन और उसके यथार्थ से है। शम्भुनाथ लिखते हैं कि कोई अच्छी कविता समाज से तटस्थ नहीं रह सकती। कवि अपने समय और समय की चीजों की आँखों में आँखे डालकर ही समय और इन चीजों के पार के संसार को पकड़ सकता है। इसके ठीक विपरीत उन कवियों की रचना दृष्टि है जो कविता में स्वायत्तता का पक्ष लेते हुए कहते है कि सामाजिक चेतना की स्थूलता में कविता के बने बनाये प्रारूप में कविता के लिये बहुत कम जगह बचती है। इन्हीें दो भिन्न काव्य दृष्टियों से आज की कविता के सरोकार और उसका सौन्दर्य बोध निर्धारित होता है। यथार्थ-बोध से जुड़ी कविता और सौन्दर्यनुभूति पारंपरिक या रूढ़ न होकर व्यापक और आन्तरिक है। यह कविता अस्तित्व के लिये रोज जूझती जिन्दगी के संघर्ष में सौन्दर्य देखती है। वह एकान्त श्रीवास्तव की कविता की पसहर झड़ाने वाली स्त्री के श्रम का सौन्दर्य भी हो सकता है और ऋतुराज की कविता की बोझ उठाती औरत की पीठ का भी। यहाँ सौन्दर्य नया अध्यात्म रचता है- ‘कोई बूढ़ा आदमी जब खेत में पानी मोड़ता है तो लगता है ब्रह्मा धरती की किताब बांच रहे हैं।’ यहाँ जीवन में प्रेम और सौन्दर्य का निषेध नहीं है। यह कविता तो सौन्दर्य को जीवन से जोड़ कर उसके प्रतिमानों को व्यापकता देती है जहाँ जीवन में से सौन्दर्य निकलता है, प्रसाधन प्रतियोगिताओं में से नहीं। यहाँ प्रेम व्यक्तिगत जल-प्लावन भी है और पूरे परिवेश को अपने उल्लास में समेट लेने वाला उत्सव भी-

‘मैं प्रेम करता हूँ/ आकाश और नीला हो जाता है/ सूर्य कुछ और चमकदार/ धरती कुछ और सुन्दर/ उसके घने काले केशों की छाँह में/कितने उद्विग्न द्वीप मेरे स्वप्न के/ सोये हुए हैं/ वह करवट बदलती है/ और लुढ़क जाती हैं ऋतुओं की शीशियाँ हवाओं में /फूट पड़ते हैं खुशबुओं के झरने/ मौसम अब कोई भी हो/ मेरे लिये बसंत है।’ (एकान्त श्रीवास्तव) यह अनुभूति का ही अन्तर है कि कभी कविता में रोमानी मान लिये गये शब्द ’’केश’’ और ‘‘छाँह’’ फिर जीवन्त हो उठे हैं। बद्रीनारायण ने तो प्रेमपत्र शीर्षक से प्रेम पर अदभुत तीव्रता की कविता लिखी थी जिसमें प्रेम को धरती की सबसे कीमती वस्तु माना था-‘ प्रलय के दिनों में/ सप्तर्षि मछली और मनु/ सब वेद बचायेंगे/ कोई नहीं बचायेगा प्रेमपत्र/ कोई रोम बचायेगा/ कोई मदीना/ कोई चाँदी बचायेगा/ कोई सोना/ मैं निपट अकेला/ कैसे बचाऊँगा तुम्हारा प्रेमपत्र/’

आज की कविता इस अर्थ में अधिक जनतंत्रात्मक है कि विशिष्ट नहीं बल्कि सामान्य लोग इसके नागरिक हैं। इसीलिये इस कविता की दुनिया का भूगोल बड़ा है। इसमें पृथ्वी के संदर्भ हैं, लोक राग हैं, अपनी रची खुशियां हैं और विश्वकोष जैसी विराटता है जिसमें सबसे अधिक शब्द भूख, शोषण, अन्याय और विवशता के समानार्थी हैं। इस कविता ने अभी तक बहिष्कृत और तुच्छ समझी जाने वाली चीजों को प्रतिष्ठा दी है और वह भी पूरी गरिमा के साथ। कात्यायनी कहती हैं- ‘बेहद मामूली चीजों से भरी इस कविता को ले जाकर मामूली लोगों के घर रख आऊँगी/ सभ्य सुसंस्कृत लोगों की नजरों से छिपाकर।’

एक बड़ी दुनिया की वस्तु होने के कारण ही इस कविता में इतने अधिक व्यक्ति और चरित्र हैं। यह कविता अपने ही दौर की रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ती है। एक समय बच्चे, माँ, पिता, चिड़िया, पेड़ आदि के प्रयोगों की जो रूढ़ि बन गई थी उसे तोड़कर इधर उन्हें फिर संवेदनात्मक बनाया गया है। राजेश जोशी ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं’ को हमारे समय की सबसे भयानक उक्ति मानते है और सवाल करते हैं कि किताबों और गेंदों के समय को काम पर क्यों देना पड़ रहा है। उनकी ही एक और कविता ‘भीख माँगने वाले बच्चे’, ऋतुराज की ‘कचरा बीनने वाले बच्चे’ और ‘उडना सिखाओ’ तथा बोधिसत्व की ‘शोक मनाने दो’ जैसी कविताओं में बच्चे अपने करूण यथार्थ के साथ प्रस्तुत हैं।

पवन करण की स्त्रीपरक कविताओं ने आज की कविता को नयी भावभूमि दी है। स्त्री के रूप में माँ, बेटी, बहिन के मन के प्रेम और काम की स्वाभाविक और संभव हलचलों को पवन करण ने यथार्थ और मर्यादा के जिस सन्तुलन से पढ़ा है वह हिन्दी कविता में नया है। वर्जनाओं और काम विरोधी अस्वाभाविक नैतिकताओं के समाज में स्त्री को उसकी कामनाओं का हक दिलाकर पवन करण ने नयी तरह से स्त्री विमर्श किया है। ’’प्यार में डूबी माँ’’ कविता में विधवा माँ के प्यार को देखती बेटी को उसके उदासी भरे जीवन से निकल आने की खुशी है-‘ इन दिनों मैं उसे प्रेम करते ही नहीं/ अपने प्रेम को छिपाते और बचाते भी देख रही हूँ/ और देखे तो सही वह मेरे सामने/ ऐसा अभिनय करती है/ जैसे मुझे उसके प्रेम के बारे में कुछ पता ही नहीं है।’’

ठीक यही दौर था जब वैश्विकता, भूमंडलीयता अन्तर्देशीयता भौतिक रूप से हमारे सामने आयी और जीवन पर प्रभाव के रूप में उसने अपनी भूमिका शुरू की। बाजार इस निकटता का माध्यम बना। इस कविता ने विषय के रूप में इस तरह के सामाजिक मुद्दों को भी उठाया और अनुभूति के आंतरिक संसार की पूरी विविधता और जटिलता को भी प्रस्तुत किया। कविता के सरोकारों का यह विस्तार चमत्कृत करता है। संवेदना की तीव्रता के साथ आलोचनात्मक तेवर इस कविता की पहचान है।

पिछले दो दशकों में साम्प्रदायिक असहिष्णुता और हिंसा का त्रासद अनुभव समाज का कठोर यथार्थ है। मनुष्यता के आदर्श भुलाकर धर्म के नाम पर जो डरावना वातावरण बना है उस पर आज के कवियों ने गहरी पीड़ा और रोश के साथ लिखा है, लीलाधर जगूड़ी लिखते हैं- ‘हत्यारे के पास करने को हैं कई वारदातें/ कई दुर्घटनाएं/देने को हैं कई जलसे कई समारोह कई व्यवस्थाएँ विरोध और कई शोक सभाएँ/ मगर अब तो वह विचार भी देने लगा है/ पहले विचार की हत्या के साथ।’ इस कविता के आलोचनात्मक रूख में इतना साहस है कि वह रूढ़ आस्थाओं की निरर्थकता के प्रति प्रश्नात्मक है। इस दायरे में अध्यात्म और ईश्वर भी है। ऋतुराज इस संदर्भ में बहुत बेचैन और तर्कयुक्त है- मैं घृणा कर सकूँ दूसरों से/आंतकित कर सकूँ उन्हें ताकि निर्द्वन्द्व जी सकूँ/ अत्याचार कर सकूँ तुम्हारे नाम पर/ अनन्त अजन्मा अनादि होते हुए भी ईश्वर/तुम्हें कठपुतलियों से खेलना क्यों पसन्द है ?’ निरंजन श्रोत्रिय का व्यंग्य है कि ‘ ईश्वर है इसीलिये तो बस लुढकने से बच गई/ बच्चा स्कूल से सकुशल लौट आया/षड़यंत्रों के बीच बच गया जीवन/रसातल को नहीं गई पृथ्वी अभी तक।’

जीवन के महाद्वीपीय विस्तार की विशदता और विविधता की परिक्रमा करती यह कविता अच्छे दिनों की उम्मीद नहीं छोड़ती। समय कितना भी त्रासद हो लेकिन वीरेन डंगवाल का भरोसा है कि उजले दिन जरूर आयेंगे। अरूण कमल ने एक परिचर्चा में कहा था कि ‘कविता निर्बलतम का पक्ष है, जिसका कोई नहीं उसकी कविता है’। अक्षरों के बीज बोती यह कविता हरे भरे पेड़ों की संभावनाएं जगाती हैं।