Paramparagat in Hindi Moral Stories by Deepak sharma books and stories PDF | परम्परागत

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परम्परागत

परम्परागत

अपने इंटर कॉलेज की साथिन अध्यापिकाओं के साथ स्टाफ़-रूम में बैठी मैं समोसे खाने जा ही रही थी कि एक नवयुवती अन्दर आयी| उसकी आयु चौबीस और अट्ठाइस के बीच कुछ भी हो सकती थी| उसका कद मंझला था और रंग सांवला| शक्ल बहुत साधारण थी मगर उसने साड़ी बहुत सुन्दर व कीमती पहन रखी थी| कम-अज़-कम दो अढ़ाई हज़ार की ज़रूर रही होगी|

हम सभी अध्यापिकाएँ समोसे छोड़ कर उसकी साड़ी की ओर देखने लगीं|

“एक्सक्यूज़ मी”, वह मिसिज़ दत्ता के पास रुक गयी, “क्या कान्ता भारद्वाज यहाँ मिलेंगी?”

“हाँ बताइए,” मैं चौंक कर उठ खड़ी हुई, “मैं ही कान्ता हूँ.....”

“ज़रा बाहर आइए, प्लीज़,” उसने भेद-भरे स्वर में कहा और दरवाज़े की ओर मुड़ ली|

“मैं विद्या हूँ,” जैसे ही मैं उस तक पहुँची, वह बोल उठी, “आपके भाई.....”

“मैं जानती हूँ,” मैंने कहा, “भैय्या ने आपके बारे में मुझे बता रखा है.....”

उसकी आँखें चमक उठीं और वह धीरे से मुस्कुरा दी| उसके होंठ कुछ हिलने को हुए पर फिर कुछ कहते-कहते या पूछते-पूछते रुक गए|

मैं काफ़ी उतावली सी हो आयी, हालाँकि वह पहली लड़की नहीं थी जिसकी आँखें भैय्या के विचार-मात्र ही से चमक आयी थीं| भैय्या के सम्पर्क में जितनी भी लड़कियाँ आई थीं, वे सभी ही मेरे आगे-पीछे होती रही थीं- पहले उसके नोट्स, को लेकर, फिर उसकी कविताओं को लेकर और अब उसकी नौकरी को लेकर|

“क्या आप मेरे साथ खाना खाने बाहर चल सकेंगी?” हमारे स्टाफ़-रूम के बाहर खड़ी एक नीली कार की ओर बढ़ते हुए उसने मुझसे पूछा|

“क्यों नहीं?” मैं उत्सुक हो आयी| अपने हॉस्टल का खाना मुझे बेहद नापसन्द भी था|

“मेरे बारे में सूरज ने क्या बताया था आपसे?” कार में उसके साथ मेरे बैठते ही वह अधीर हो आयी| हड़बड़ाहट की सीमा तक|

“बहुत कुछ,” मैंने उसे छेड़ा|

“क्या-क्या?” उसकी आवाज़ लरज़ ली| सकुचाहट के संग|

“यही कि मसूरी में कुछ महीने आपने उसके साथ आई.आर.एस. की ट्रेनिंग इकट्ठे ली थी, कि वहाँ ‘नदी प्यासी थी’ वाले नाटक में आपने उसके साथ नायिका की भूमिका की थी, कि आजकल आप यहीं लखनऊ के आयकर विभाग में अफ़सर हैं.....”

“और तुम्हें कुछ नहीं बताया?” उसकी आवाज़ में झुंझलाहट चली आयी|

“बताया है| सब बताया है,” मैं हैरान थी उसे झुंझलाहट किस बात को लेकर हो रही थी|

ऐसी झुंझलाहट तो मेरी क्लासमेट किरण चड्ढा के स्वर में भी नहीं रही थी, जिसने लगातार दो साल तक मुझे अपने घर पर दोपहर का खाना खिलाया था क्योंकि हमारा घर यूनिवर्सिटी से बहुत दूर पड़ता था और आई.ए.एस. की तैयारी कर रहे सूरज भैय्या की पत्नी बनने का उसका सपना अभी टूटा नहीं था|

“इधर रेस्तरां में बैठते हैं,” फ़ाइव स्टार एक विशाल होटल के पोर्टिको में खड़े एक वैले को पार्किंग के लिए अपनी कार सुपुर्द करने के बाद विद्या ने मेरा हाथ पने हाथ में ले लिया|

“जहाँ आप कहें,” उस होटल में मैं पहली बार कदम रख रही थी|

“आओ,” लाउन्ज पार कर हम रेस्तरां के अन्दर दाख़िल हुईं|

“उधर उस कोने में बैठते हैं| वहाँ दो तीन मेज़ें खाली हैं| और फिर हमारी बातचीत कोई उधर सुन नहीं पाएगा.....”

“हाँ, क्यों नहीं?” उसके साथ मैं भी उस कोने की ओर बढ़ चली|

“आप शाकाहारी तो नहीं हैं न?” बैरे के सलाम ठोकते ही विद्या ने मुझ से पूछा|

“नहीं” मैं कुछ आतंकित सी हो आयी, “मैं शाकाहारी ही हूँ.....”

“तो फिर टमाटर का सूप सही| साथ में मलाई-कोफ़्ता, पालक-पनीर, उड़द की सूखी दाल और अनानास का रायता चलेगा?” उसकी आवाज से मुझे लगा, वह मेरा रौब-दाब छीनी चली जा रही है जिससे मैं बाहर खोमचे वाले से अपनी साथिनों के साथ भेलपूरी खाने के बाद गोल-गप्पों का ऑर्डर दिया करती हूँ|

“चलेगा,” मैंने हामी भर दी| आई.ए.एस. भाई की बहन थी मैं!

“पर वॉट अ पिटी! सूरज तो मांस-मछली पर मर-मिटता है| विशेषकर काली मिर्च वाला चिकन और पौमफ्रे मछली..... तो उसे बहुत ही पसन्द है.....”

मैं चौंक ली| भैय्या ने कब से वह सब खाना शुरू किया था? विद्या पहली लड़की थी जो मुझ से ज़्यादा उसकी पसन्द की जानकारी रखती थी| वरना वह जानकारी तो चॉकलेट दिलवातीं, ठंडे पेय पिलवातीं, फ़िल्म ले जातीं उन जिज्ञासु लड़कियों को मैं ही तो दिया करती थी|

“और सूरज क्या कहता था मेरे बारे में?” उसका स्वर बैरे के जाते ही फिर धीमा पड़ गया| वह अकड़ जो उसकी आवाज़ में बैरे को ऑर्डर देते समय आ मिली थी, एकदम लुप्त हो गयी थी|

“और भी बहुत कुछ” मैं हँसी| पैरों तले वही धरती जो मुझे अभी अभी खिसकती नज़र आ रही थी, मज़बूत हो उठी| विद्या इनकम टैक्स अफ़सर होगी तो दफ्तर में होगी| मेरे सामने वह लड़की पहले थी, जिसे हर समय अपने प्रेमी की बातें करने या सुनने में रस मिलता था| मिस वीणा जोशी भी तो मेरी प्रोफेसर रही होने के बावजूद भैय्या के आई.ए.एस. में आते ही मुझसे दबने लगी थी| बल्कि मुझे अपने पास बुला कर भैय्या के बचपन ही से पढ़ाई में तेज़ होने और मैडल जीतने के किस्से बड़े शौक से सुनने भी लगी थी| और जब कभी भैय्या अपनी ट्रेनिंग के दिनों में लखनऊ मेरे पास आते तो वह हम भाई बहन को अपने घर पर दावत देना कभी नहीं भूलती थीं|

“और तुम्हें कुछ खास भी बताया सूरज ने?” विद्या अधीर हो उठी|

“बताया है सब बताया है,” मैं असमंजस में पड़ गयी| ख़ास ऐसा भला क्या रहा होगा जो भैय्या ने मुझे नहीं बता रखा?

“बताया है न कि हम जल्दी ही शादी करने वाले हैं?” उसकी घोषणा के विजय भाव ने मुझे दया से भर दिया| बेचारी सरोज थापा भी तो यही सोचा करती थी| केवल इसलिए कि भैय्या ने अपनी पहली पांच प्रेम-कविताएँ उसे सम्बोधित कर लिखी थीं| मूर्ख यह नहीं जानती थी प्रेम-कविताएँ लिखना तथा प्रेम करना दोनों अलग-अलग मामले हैं|

“पर क्या आपके माता-पिता एक ब्राह्मण लड़के से आपकी शादी होने देंगे?” बरबस उमड़ रही अपनी हँसी पर लगाम लगाती हुई मैं बोली|

“सन् २०१६ में आप ऐसी बात पूछ रही हैं कि हँसी आती है| एक ब्राह्मण लड़का एक बनिया लड़की से जब प्रेम का दावा कर सकता है तो फिर शादी क्यों नहीं?” उसकी आवाज़ कठोर हो आयी| और बैरे के तभी आ जाने से उसका चेहरा और भी कठोर व रौबदार हो आया|

और पहली बार मुफ़्त की उस दावत का मुझे भरपूर स्वाद न आया|

खाने के बाद उसने जब फ़िल्म जाने का प्रोग्राम बनाना चाहा तो मैंने उसे साफ़ मना कर दिया| उसे विदा देते ही भैय्या को फ़ोन लगाया मगर उनसे बात हो नहीं पायी|

अगली छः, सात मुलाकातों तक भी उसका व्यवहार मुझसे कठोर बना रहा|

फिर भी वह मेरे कॉलेज जब जब आती मुझे बाहर घुमाना व खाना खिलाना नहीं भूलती|

अपनी साथिन अध्यापिकाओं पर भी मेरा रौब-दाब बढ़ गया| एक इनकम-टैक्स अफ़सर यों मेरे आगे-पीछे हो रही थी, हर तीसरे-चौथे दिन मुझे मिलने आ रही थी- यह क्या साधारण बात थी? हालाँकि इस बीच भैय्या मुझे बता चुके थे अपनी शादी वह मुझे ब्याहने के बाद ही करने वाले थे|

पहली मुलाकात से पन्द्रह बीस दिन बाद यानी अपनी नवीं मुलाकात के दौरान मैंने पाया विद्या कुछ ज़्यादा ही उत्साहित थी, “साड़ियों में तुम्हें कौन सा रंग सबसे ज़्यादा पसन्द है कान्ता?”

“है तो पीला मगर आप क्यों पूछ रही हैं? भैय्या ने शादी की तारीख पक्की कर दी, इसलिए?” मैंने तीर-तुक्का जमाया|

“इतना भरोसा करते हैं तुम पर?” उसने मुझे अंक में भर लिया, “वरना मुझसे यही कहा था अपनी सिविल मैरिज करने के बाद ही शादी की बात खोलेंगे.....”

“आप भूल रही हैं भैय्या मुझसे कुछ नहीं छिपाते,” अपनी उत्तेजना मैं छिपा ले गयी| इतना बड़ा धोखा? ऐसा अन्याय? मुझे झूठा वचन दिया था भैय्या ने? तिस पर जानते नहीं थे क्या? हमारे पिता लीक पर चलते ही नहीं थे, लीक पीटते भी थे|

“तुम्हें उन कस्बापुर निवासियों से अलग जो जानते होंगे?” विद्या ने हमारे परिवार के लिए अपना यही मुहावरा गढ़ रखा था क्या?

यहाँ यह बताती चलूँ हमारे पिता कस्बापुर ही में रहते हैं| वहीं कस्बापुर में हमारा पैतृक मकान है, पैतृक बरतनों की दुकान है| जबकि पिछले तीन साल से मैं लखनऊ में अपनी नौकरी के कारण रह रही थी|

“मैं अब कस्बापुर की कहाँ रही?” मैंने ठीं-ठीं छोड़ी| उसका और विश्वास जीतने की ख़ातिर|

“असल में सिविल मैरिज का यह प्रस्ताव मेरे पापा की ओर से ही आया है| वह न्यायिक सेवा में हैं और कानूनी कारकुन होने के कारण शादी में भी कानून को कारामद करने में विश्वास रखते हैं.....”

“और आप दोनों की शादी जल्दी करवाने के लिए आतुर हैं?” मैंने दोहरी चाल पकड़ी| पूरे विवरण हासिल करने ही थे मुझे!

“आतुर क्या? मैं उनकी इकलौती सन्तान हूँ और आज तक जो भी मैंने चाहा है, उन्होंने वह सब मुझे उपलब्ध करवाया है| और सबसे बड़ी बात, सूरज उन्हें भी उतना ही पसन्द है जितना मुझे| एक तो उसे आई.ए.एस. में हमारे ही प्रदेश का कैडर मिला है और फिर वह भी मुझे उतना ही चाहता है जितना मैं उसे चाहती हूँ.....”

“केवल भैय्या ही क्यों? मैं भी तो आपको बहुत चाहने लगी हूँ.....” मैंने कान काटा| क्यों उसे जान लेने देती मेरा कलेजा जल रहा था और उसे ठंडा करने के लिए मुझे पिताजी को तत्काल भैय्या के पास भेजना होगा? ब्राह्मण वंश की परम्पराओं की रक्षा का भार अपने कोमल कंधों पर मैं स्पष्ट अनुभव कर रही थी|

“इसी खुशी में तुम्हें मैं आज उस प्रदर्शनी में ले जाना चाहती हूँ जहाँ देश भर की रेशमी साड़ियाँ सजी हैं.....”

प्रदर्शनी की पीले रंग की एक रेशमी साड़ी जब मुझे अपनी ओर पुकारने लगी तो मैं उसी की ओर बढ़ ली| विद्या ने भी साड़ी की मनोकामना अविलम्ब भांप ली और चुपचाप उसे एक लिफ़ाफ़े में बन्द करवा कर मेरे हाथ में थमाने लगी, “यह तुम्हारे लिए है, कान्ता.....”

“नहीं, नहीं,” मैंने औपचारिक रूप से कहा और लिफ़ाफ़ा थाम लिया| ले लेने में क्या हर्ज था? उस दिन के बाद विद्या मुझे कहाँ मिलने वाली थी? और अगर कभी मिलती भी तो मुझे देखकर मुँह मोड़ लेती| पहचानने से इन्कार कर देती| और इतने दिन जो मैं रस लेकर उसे इतना कुछ बताती रही थी, उस परिश्रम व समय का मूल्य इस साड़ी के मूल्य से कम था क्या?

मुझे कोई ग्लानि नहीं कचोट रही थी| बल्कि एक संतोष था कि अब भैय्या उससे शादी नहीं करेंगे| समाज में रहने वाले हम लोगों के लिए अनिवार्य ही तो था कि जहाँ कहीं प्रेमावेग से समाज की परम्पराओं को धक्का पहुँचते देखें, वहीं प्रेम का गला घोंट दें| जहाँ कहीं असम्भव सपने फूटते देखें, वहीं आँखें फोड़ दें..... जहाँ कहीं लीक से बेलीक चलने वाले लोग नया रास्ता बनाने लगें, उनके कदम वहीं रोक दें|

बताना न होगा, पिताजी भैय्या को समझाने में सफल ही रहे तथा मुझे दिया गया वचन भैय्या ने बखूबी निभाया| मुझे ब्याहने के बाद ही अपना ब्याह रचाया| वह भी परम्परागत|.....

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