Janjeevan - 1 in Hindi Poems by Rajesh Maheshwari books and stories PDF | जनजीवन - 1

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जनजीवन - 1

हे राम!

इतनी कृपा दिखना राघव, कभी न हो अभिमान,

मस्तक ऊँचा रहे मान से, ऐसे हों सब काम।

रहें समर्पित, करें लोक हित, देना यह आशीष,

विनत भाव से प्रभु चरणों में, झुका रहे यह शीष।

करें दुख में सुख का अहसास,

रहे तन-मन में यह आभास।

धर्म से कर्म, कर्म से सृजन, सृजन में हो समाज उत्थान,

चलूं जब दुनिया से हे राम! ध्यान में रहे तुम्हारा नाम।

प्रभु दर्शन

मन प्रभु दरशन को तरसे

विरह वियोग श्याम सुन्दर के, झर-झर आँसू बरसे।

इन अँसुवन से चरण तुम्हारे, धोने को मन तरसे।

काल का पहिया चलता जाए, तू कब मुझे बुलाए,

नाम तुम्हारा रटते-रटते ही यह जीवन जाए।

मीरा को नवजीवन दीन्हों, केवट को आशीष,

शबरी के बेरों को खाकर, तृप्त हुए जगदीश।

जीवन में बस यही कामना, दरस तुम्हारे पाऊँ।

गाते-गाते भजन तुम्हारे, तुम में ही खो जाऊँ।

माँ

अंधेरी रात थी

घनघोर बरसात थी

बिजली कड़क कर दहला रही थी

हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था

बिजली भी गायब हो चुकी थी

घुप अंधेरे में वह उठी

दबे पांव मेरे पास आई

कोमल हाथों से मुझे छूकर ही

सब कुछ समझ गई

दरवाजा खोलकर भीगती हुई

चली गई

कुछ देर बाद वह लौटी

मुझे दवाई खिलाई और

अपने भीगे कपड़े सुखाने चली गई।

उसे न खाने की सुध थी

न पीने की

पिछले तीन दिनों से वह

मेरी सेवा कर रही थी

वह मेरी माँ थी

मेरी महान माँ!

पथिक

वह पथिक

थका-हारा

भूखा-प्यासा

अपनी ही धुन में चलता-चलता

कच्चे रास्ते पर चलता हुआ

चौराहे पर जा पहुँचा

चारों ओर थे

भ्रष्टाचार, बेईमानी, मिलावटखोरी और रिश्वतखोरी के

चार अलग-अलग पक्के सपाट रास्ते

पर उसकी मंजिल तो सच्चाई थी

इन पर चलकर

उस तक

नहीं पहुँचा जा सकता था

वह बढ़ गया ईमानदारी की

ऊबड़-खाबड़ पगडण्डी पर

सूनी-सूनी धूल भरी

न छाया न पानी

और न ही कोई हमराही

धुंधले-धुंधले पैरों के निशान बता रहे थे

कभी कोई गया होगा इस राह से,

वह भी चलते-चलते

किसी तरह पहुंच ही गया

सच्चाई के गन्तव्य तक।

तभी सपना टूट गया,

वह उठकर बैठ गया,

लग रहा था वह चौराहा

ना जाने कहाँ गायब हो गया ।

संस्कारधानी

आँखों में झूमते हैं वे दिन

हमारे नगर में

गली-गली में थे

साहित्य-सृजनकर्ता

संगीत-साधक

विविध रंगों से

विविधताओं को उभारते हुए चित्रकार

राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत

देश और समाज के

निर्माण और उत्थान के लिए

समर्पित पत्रकार

साहित्य, कला, संस्कृति और समाज के

सकारात्मक स्वरूप को

प्रकाशित करने वाले अखबार

और थे

इन सब को

वातावरण और संरक्षण देने वाले

जन प्रतिनिधि

जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन में

होता था

नई पीढ़ी का निर्माण

पूरा नगर था एक परिवार

और पूरा देश जिसे कहता था

संस्कारधानी।

सृजन की वह परम्परा

वह आत्मीयता

और वह भाई-चारा

कहाँ खो गया?

साहित्य, कला, संगीत और संस्कार

जन-प्रतिनिधि, पत्रकार और अखबार

सब कुछ बदल गया है।

डी.जे. और धमालों की

कान-फोड़ू आवाजों पर

भौंड़ेपन और अश्लीलता के साथ

कमर मटका रही है नई पीढ़ी

आम आदमी

रोजमर्रा की जिन्दगी

मंहगाई और परेशानियों मे

खो गया है,

सुबह से शाम तक

लगा रहता है काम में

कोल्हू का बैल हो गया है।

साहित्य-कला-संगीत की

वह सृजनात्मकता

उपेक्षित जरूर है

पर लुप्त नहीं है।

आवश्यकता है उसके

प्रोत्साहन और उत्साहवर्धन की।

काश कि यह हो पाए

तो फिर हमारा नगर

कलाधानी, साहित्यधानी और

संस्कारधानी हो जाए।