jeevan ke sapt sopan - 4 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | जीवन के सप्त सोपान - 4

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जीवन के सप्त सोपान - 4

जीवन के सप्त सोपान 4

( सतशयी)

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अर्पण-

स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में

सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

आभार की धरोहर-

जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)

मो.9981284867

आत्मिक उन्नति के लिए,धैर्य और संतोष।

ध्यान धारणा गुरु चरण,उन्नति के मद पोश।।

श्रृध्दा और विश्वास से,प्रेमा भक्ति पाए।

भगवन लीला जान के,कृपा पात्र बन जाए।।

औरो के गुण देख लो,निज के अवगुण देख।

मधुर वचन है औषधि,हो निरोग पथ नेक।।

लोभ,मोह,माया तजो,गुरु मंत्र कर जाप।

मोक्षधाम का रास्ता,मिलै आप ही आप।।

अहं भाव को त्याग कर,मैं-मैं,में मिल जाए।

ध्यान गुरु के चरण में,धरा मोक्ष हो जाए।।

छल द्वेशों को छोड़के,मुँह माया से मौड़।

कहाँ रहा संसार तब,गुरु से नाता जोड़।।

गुरु आज्ञा शिरधार कर,रहो मौज के साथ।

बेड़ा होगा पार ही, धीरज बेड़ा -हाथ।।

पलक झपाओ ध्यान में,मन में प्रभु गुणगान।

तज के आपा भाव को,निज को गुरु ठिग मान।।

आत्म शान्ति का हेतु है,इच्छाओं का त्याग।

सारे भटकावें मिटें, पावत है बड़- भाग।।

अगर किसी ने द्वेश बस,ऊँच-नीच कह दीन।

तुम भी वैसे मत बनो,संत,पंथ को चीन।।

नियमों का पालन करै,जो गुरु के दरबार।

गुरु मुख होकर रहे नित,है सत सेवककार।।

सब विकार को त्याग के,मनमति मुक्ति होय।

गुरु वाणी कुर्वाण हो,क्यों दुर्लभ गति खोय।।

सत्य न त्यागों कभी भी,प्राण भले चलि जाए।

सत मार्ग के मरण में,हानि नहीं कोऊ पाए।।

औरौ की उन्नति लखे,जा मन दुःख विशेष।

वह संसारी जीव है,शास्त्र पुराणों लेख।।

स्वपनों के संसार में,जो रमता दिन-रात।

सुख तो पाता है नहिं,जीवन ठोते जात।।

होगा अन्तर्मुखी जब,तब झूठा संसार।

भोग पदारथ दुःख है,करले जरा विचार।।

बन जाओगे के राम के,तजो अगर संसार।

क्यों उलझन में पड़े हो,करलो उससे प्यार।।

सत्य सनातन से रहा,सत्य-सत्य ही जान।

सत्य कभी मिटता नहीं,वह खुद ही पहिचान।।

भवसागर से पार चहे,बिन साधन जो लोग।

बुध्दिमान या मूर्ख है, ग्रसे अनैको रोग ।।

मन मुखियों के मपल से,गुरु मुख छप्पड़ धन्य।

यहाँ न सुख की नींद है,वहाँ सुख वास अन्नय।।

विष्ठा-कीड़ा ने कभी, जाना फल का स्वाद।

विषयी कब सुन सका है,भक्ति-ब्रह्म स्वर नाद।।

कहीं कभी कुछ मिलेगा,भिकमंगों के द्वार।

क्यों अपनापन खो रहा,ले गुरु चरण पखार।।

माया-छाया जानिए ,उसे पकड़ने दौड़।

वह पीछे तेरे चलै,जब ले मुँह को मोड़।।

गुरुमुख होजा बाबरै,सब झँझट मिट जाए।

नियति तुम्हारे सामने,हाथ जोड़कर आए।।

सब पदवी संसार कीं ,भटकाती है जीव।

इसी द्वनद की आजतक,कोई न पाय़ा सीव।।

अयश यंत्र ही दौड़ते,ज्यौं चुम्बक आधार।

गुरु शक्ति इससे अधिक,आकर्षण का प्यार।।

सदगुरु से पा सकोगे,सकल मोक्ष का द्वार।

तट-वट बंधती नाव से ,कैसे होगे पार।।

सब तत्वों का तत्व है,विश्लेषक गुरु एक।

आज तलक संसार में,दूजी गढ़ी न मैख।।

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तृतीय- विमुक्त पथ-

जीव जगत में आनकर,करले हरि का गान।

सभी तरफ से हट करो,मालिक से पहचान।।

दुःख औषधी गुरु शब्द है,करले निज उपचार।

सुरति बने निर्मल जभी,सुखमय हो संसार।।

मोह आदि त्यागे बिना,परमात्मा मिल जाए।

ऐसा जो चाहे जो कोई,क्या उसको कहाँ जाए।।

प्रभु से जो चाहो मिलन,कर तो सच्चा प्रेम।

वो रीझे है उशी से, जिसके निर्मल नेम।।

सांसारिक दुःख देखकर,प्रभु जन नहीं घबराए।

शांन्ति और धीरज धरै,भगवन के गुण गाए।।

आए है किस वास्ते,कभी दिया क्या ध्यान।

प्रभु के दर पर जाए के,क्या दोगें पहिचान।।

अपने प्रेमी का सदा ,प्रभु रखते ख्याल।

निज की वानि न त्यागते,रहते सदां निहाल।।

प्रभु की इच्छा में सदा,अपनी इछ्छा जोड़।

नहीं चलाओ स्वयं की,सभी उसी पर छोड़।।

गुरु मुख हो,मिल जाएगा,सब तीर्थ का लाभ।

फिर भटकावा काए का,सुमिरो गहरे चाव।।

नेति-नेति सबने कहा,गुरु का गुणानुवाद।

गुरु चरणों की रज चखो,जिसका गहरा स्वाद।।

गुरु नाम जो जपत है,नाम जाप सिर मौर।

चिंता गम उसको कहाँ,को गुरु सा है और।।

यदि सदगुरु के ध्यान में,मन डूबे भरपूर।

श्रेष्ठ खजाना पा गए,गुरु कृपा का नूर।।

सदगुरु के दरबार में, नहिं कोई अंधेर।

समय पाए सब होत है,हो सकती है देर।।

जो कुछ भी तुझको मिला,सब मालिक की दैन।

अपना कुछ समझो नहीं,है इसमें सुख-चैन।।

दुःख निशा के जात ही,सुख का होता भौर।

इक दूजे सहचर सगे,क्यों करता है शोर।।

कुम्भकार गुरु रुप है,प्रेम ताड़ना बीच।

अंदर से दे सहारा,तड़-तड़ बाहर पीट।।

सभी समय सब ठौर पर,जब प्रभु तेरे साथ।

क्यों घबड़ाता जीव तूँ,गहि चल प्रभु का हाथ।।

टेढ़ी-मेढ़ी रास्ता, गुरु उपवन की जान।

बिरले ही पहुचें वहाँ,सास्वत सत्य प्रमाण।।

गुरु की भक्ति कठिन है,यह भी बात ,प्रमाण।

चौरासी के कष्ट से,कर तुलना अग्यान।।

ईषर्या बड़ बीमारी है,कैंसर,टी.वी. छोटि।

बिना त्याग सुख है नहीम,कर ले सब कुछ नोट।।

अधिक बोलना ठीक नहिं,कम बोलन है ठीक।

गहरे बनते,अधिक सुन,यह सत-पंथी लीक।।

गुरु आज्ञा पालन किए,मिलती उसकी मौज।

अपना कर्तव्य कीजिए,शांत साधना रोज।

खाकसार मारग उचित,जलते संत अनंत।

चाकर वन सुख शार का,इससा और ना पंथ।।

संसय भ्रम जहाँ पर मिटैं,गुरु मौज पहिचान।

कीट,भ्रंग जानै नहिं,करले आप समान।।

वैद्ध दे औषधि, मगर, रोगी करै प्रयोग।

यही भाव गुरु भक्त का,मिट जाते सब रोग।।

है असार,मन भक्ति पथ,गुरु भक्ति पथ सार।

गुरु मति रतन्न साजिए,मन गति रतन असार।।

मन पर रहै नियंत्रण,नित्य प्रार्थना ध्यान।

आश्रय ले गुरुदेव का,चलते पंथ सुजान।।

सत्पत जिसने गह लिया,वहीं बड़ा बड़ भाग।

देख दृश्य प्रहलाद का,जला न पाई आग।।

दीन देखता ज्यों जगत, उसे न देखे कोय।

सिध्द बना,पा रतन यह,जाग न जीवन खोए।।

प्रेम,नीति,युक्ति,विनय,श्री आज्ञा के साथ।

भक्ति पथ,पंचम रतन,सुफल यात्रा जात।।

जो सदगुरु के ध्यान को भूले नहीं क्षण एक।

आदि अंत उसका नहीं, ऐसे सुख को लेख।।

माया जाल से बच सके,सदगुरु शब्द की ओट।

जीवन सार्थक होएगे,कर मन-कागज नोट।।

मालिक से मिलना चहो,कर प्यारो से प्यार।

उनके मत अनुसार ही,प्रभु दर्शन का सार।।

लाख करोड़ों में कहीं,होता बिरला कोए।

मालिक से बातें करै,इक पल दूर न होए।।

घृणा,घृणा से मिलै, प्रेम, प्रेम से पाव।

क्रोध तजे सुख ऊपझे,जीवन अमृत भाव।।

प्रभु नाम के जाप बिन,नहीं होगा निस्तार।

सच्चा ज्ञानी है वही,जिसको गुरु से प्यार।।

सदगुरु रस चाहो पिवन,कर विषयों का त्याग।

एक जगह कब रह सके,रवि-रजनी,मन जाग।।

प्रभु को जो भजना चहो,हल्का भोजन पाव।

वह भी सदगुण पूर्ण हो,गुरु शरण में जाव।।

गुरु मुख जब हो जाओगे,नहीं कष्ट आभास।

वो मालिक है सभी का,रहता सब के पास।।

सदगुरु नाम अधार जप,अहंकार निर्मूल।

सुरति गुरु से जोड़ ले,मत कर कोई भूल।।

करो गुरु से याचना,सत संगति दे साथ।

शरण उन्हीं होउ जब,पकरि उबारै हाथ।।

विषय विकारों से विरति,पाओ आतम ज्ञान।

सुख अनुभूति पाओगे,तज सारे अभिमान।।

सुरति शब्द में जब जुड़े,लखो अलौकिक खेल।

अन्तरमन हो जागृति,कर सतगुरु संग शैल।।

सदगुरु की सेवा विना,सभी अखारथ जान।

बारि लगे मथने सभी,क्या घृत मिले सुजान।।

जो वर्षों में नहीं हुए, क्षण में होते जान।

मालिक की जब हो कृपा,अब भी कर पहिचान।।