Aakhiri Mill in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | आखि़री मील

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आखि़री मील

तरबूज लाऊं क्या मां. पिछली रात ही से तेज़ गरमी महसूस कर रही थीं और उन्होंने दूध तक न पिया था ।

ठीक है. ले आओ. मां ने कोई उत्साह न दिखाया ।

तरबूज़ पिछली शाम भाई लाया था ।

मां को ठंडा तरबूज़ अभी भी बहुत पसन्द है. लाते ही भाई ने मुझे तरबूज़ दिखाया था ।

लाओ, मैं फ्रि़ज में रख आती हूं. मैं ने तरबूज़ की ओर हाथ बढ़ाए थे ।

तुम मां के पास बैठो । तरबूज़ फ्रि़ज में पहुँच जाएगा ।’’

भाई और मैं जब छोटे ही थे तो घर में तरबूज़ के आगमन को धूमधाम से उत्सव की तरह सकारा जाता था।

उन दिनों हमारे पास फ्रि़ज न था । केवल पांच किलो की समाई वाला एक छोटा आइस-बॉक्स था जिसमें रोज़ सुबह-शाम ज़रूरत के मुताबिक वर्फ़ लगायी जाती थी ।

बाबूजी अकसर छुट्टी से एक दिन पहले तरबूज़ लाया करते ।

रात-भर पटसन में लिपटा तरबूज़ आइस-बॉक्स की शीत-लहरों के संग अन्तर्निवास करता और अगले दिन सुबह के सर्वोत्तम पल वही रहते जब मां एक बड़ी थाली में तरबूज़ धर कर हमें पुकारती. आइए. तरबूज़ देखा जाए...’’

बाबूजीभाई और मैं मां के पास तत्काल पहुंच लेते ।

मां जादुई वेग से तरबूज़ की लम्बी तरतीबवार फांकें तराशती और देखते-देखते जरबूज़ के दस्तांदाज़ बीज तरबूज़ के मोसल गूदे से पृथक हो लेते । तरबूज़ कई बार मीठा न भी रहता फिर भी जब-जब हम तरबूज़ के ठंडे चिक्कण टुकडे़ मुंह में रखते हमें मुंह में अविच्छिन्न मधु रस का सा स्वाद ही मिलता ।

भाई के लिए तरबूज़ पर पहली छुरी मैं ने ही चलायी ।

एक छोटी फांक साफ़-सुथरी करके मैं मां के पास आयी तो देखा मां को झपकी लग गयी थी ।

उठ कर देखो माँ. कितना अच्छा तरबूज़ है. मैं ने मां की ठुड्डी के नीचे गुदगुदी की ।

हां...आ...मां जग गयीं !

लो थोड़ा तरबूज़ लो. मैं मां के ऊपर झुकी ।

तरबूज़ के पहले टुकड़े ने ही मां की अरूचि भगा दी और शीघ्र ही प्लेट खाली हो गयी।

और लांऊ. मैं ने पूछा ।

तरबूज़ मीठा है. मां ने होठों पर जीभ फेरी ।

थोड़ा और लो. मां ने कहा ।

तुम मेरा बहुत ख्याल रखती हो. मां मुस्करायीं ।

तरबूज़ की दूसरी प्लेट तैयार करते समय मैं अकस्मात रोने लगी ।

कहीं कुछ भी असामान्य न घटा था फिर भी किसी अप्रकटित अकत्य के खटके ने बढ़ कर मुझे अपने बझाव में कस लिया ।

क्या बात है निन्दी. मेरे फ्रि़ज दोबारा खोलने पर भाभी सतर्क हो लीं ।

मां को तरबूज़ अच्छा लग रहा है. भाभी की उपस्थिति मात्र से मेरा उद्वेग नियंत्रित हो चला ।

हां. मीठा है. भाभी ने साफ़ हो चुका एक टुकड़ा चखा ।

मैं ने और फांक नहीं काटी ।

वैसे ही प्लेट मां के पास उठा लायी ।

लो. मैं ने मां का कंधा छुआ. तरबूज़...’’

मेरे बाद भी इसी तरह आती रहना. मां का स्वर कांपा. तुम्हारे बाबूजी का जी बहुत हल्का है । ऊपर से बहादुर बनते हैं, पर वैसे बहुत जल्दी घबरा जाते हैं -’’

तुम कहीं नहीं जाओगी. मैं ज़ोर से रो पड़ी. यहीं रहोगी बस...’’

क्या हुआ बाबूजी बाथरूम में शेव कर रहे थे । तुरन्त हमारे पास चले आए ।

मां जाने की बात कर रही हैं. हिचकियों के बीच मैं ने कहा ।

सुबह-सुबह शुभ बात सोचनी चाहिए न कि यों दिल तोड़ने वाली बाबूजी ने मां का माथा सहलाया कुछ और नहीं तो हमारा ही ख्याल करो । हमारी ख़ातिर ही मज़बूत बनो और मज़बूत ख्याल दिल में लाओ-’’

अब मेरे वश में कुछ नहीं रहा मां रोने लगीं. मैं ने बहुत दिन बहादुरी दिखा ली । मज़बूती दिखा ली । अब बहादुर बनने की बारी आप लोगों की है....’’

माँ का संकल्प तथा आत्मसंयम वास्वत में ही उदाहरणीय रहा था । दो वर्ष फ़ालिज के एक हमले निष्क्रिय बना दिया था. तिस पर भी मां घबरायी न थीं । उनके सामने यही प्रकट भी किया जाता रहा था. वह धीरे-धीरे सम्पूरित स्वास्थ्य लाभ ग्रहण कर ही लेंगी तथा उनका शरीर पुनः समुचित रूप से अपना शासन संभाल लेगा । डाक्टरों के बताए गए सभी व्यायाम वह तत्परतापूर्वक करती रही थीं और समय से पहले ही उन्होंने अस्थायी रूप से थोड़ा-बहुत चलना-फिरना भी प्रारम्भ कर दिया था ।

हां. पिछले सप्ताह दहलीज़ पार करते समय उनका कदमताल ज़रूर गड़बड़ा गया था और वह गिर कर अचेत हो गयी थीं ।

निन्दी को बुला लीजिए. चेतना लौटने पर उन्हों ने बाबूजी से आग्रह किया था ।

लीला तुम्हें मिलना चाहती है. शीघ्र चली आओ. थोड़ी आनाकानी के बाद बाबूजी ने मुझे कह ही दिया था और मैं पति व दोनों बच्चों को अपनी सास के सुपुर्द कर अविलम्ब यहां पहुंच गयी थी ।

आज आठ बजे खबरें नहीं सुनीं. भाई ने आ कर टेलिविज़न चला दिया ।

खबरें सुनने की मां को पुरानी आदत थी ।

तरबूज़ लो. मेज़ पर से तरबूज़ वाली प्लेट उठा कर भाई ने तरबूज़ का एक टुकड़ा मां के मुंह में रख दिया ।

बहुत मीठा है. मां ने भाई का दिया तरबूज़ का टुकड़ा सहज रूप में स्वीकारा ।

अच्छा है. भाई हंसा ।

उसने एक और टुकड़ा मां की ओर बढ़ाया ।

अब तुम लो. मां ने भाई का हाथ थपथपाया. मैं पहले भी खा चुकी हूं-’’

बाबूजी आप लीजिए. भाई ने बाबूजी के हाथ प्लेट थमा दी.

मेरे लिए रश्मि दूसरी फांक काट लाएगी-’’

पहले लीला खाएगी. बाबूजी ने लाड़ से मां के मुंह में एक और टुकड़ा रखा ।

एक टुकड़ा तुम भी लो. मां ने भाई से कहा इसमें बीज नहीं हैं-’’

मां जानती थीं भाभी तरबूज़ से बीज पृथक नहीं करती थीं ।

हां तरबूज़ मीठा है. भाई ने मां की बात रख ली ।

पहले की तरह मां के मनोयोग - भरे मनुहार पर उपद्रव नहीं किया ।

निन्दी को भी दो मां ने कहा ।

बाबूजी आप यह लीजिए.प्लेट में अब एक ही टुकड़ा बचा था. मैं एक फांक और काट लाती हूं -’’

तुम यह ले लो. बाबूजी की आंखें डबडबायी रहीं. मैं बाद में खा लूंगा...’’

मैं अभी और तरबूज ले कर आता हूं.भाई जाने को हुआ. मां भी अभी और लेंगी-’’

नहीं बेटा अब मैं कुछ नहीं लूंगी. मां ने प्रतिवाद किया ।

यह कैसे हो सकता है.

भाई मुस्कराया.यह तरबूज तो मैं तुम्हारे लिए ही लाया था-’’

तुम्हारे बाबूजी को भी तरबूज़ बहुत पसन्द है.मां फिर रोने लगीं.उनके लिए भी तरबूज़ लाते रहना-’’

ऐसा क्यों कहती हो मां. भाई ने मां की कुहनी दबायी.अभी तो तुम्हें भी कई और तरबूज़ खाने-खिलाने हैं...’’

नहीं बेटा,मैं अब बचूंगी नहीं मां ने कहा- उस दिन नयी नौकरानी पड़ोस में कह गयी है- बड़ी मां का जी रखने को उनके घरवाले उनका इलाज करा रहे हैं वरना उन की बीमारी तो ला-इलाज है । वह अब बचेंगी नहीं....’’

माँ का कदमताल नहीं उसी दिन ही तो नहीं लड़खड़ाया था

वह बकती है.भाई ने मां की कुहनी फिर दबायी-जब डाक्टर कहते हैं तुम ठीक हो जाओगी तुम ठीक हो भी रही हो-’’

भाई के बाकी शब्द उसकी रुलाई ने ढंक लिए ।

दोपहर तक मां का बुखार तेज़ हो आया जो शाम होते-होते बढ़ गया ।

रात को डाक्टर भी बुलाया गया पर मां के बुखार पर काबू नहीं पाया जा सका और वह मृत्यु को प्राप्त हो गयीं ।

यह तरबूज तुम्हारी किस्मत का था.इसे ले जाना. अगले दिन बाथरूम में हाथ धोते समय मैं ने भाभी को नयी नौकरानी से बात करते सुना ।

तरबूज़ क्या अब तो मैं बहुत कुछ लूंगी.नयी नौकरानी दबे स्वर में ठठायी ।

बेमौका बात छोड़ तरबूज ले कर बस चलती बन. भाभी झल्लायीं ।

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