Ek tha Thunthuniya - 17 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | एक था ठुनठुनिया - 17

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एक था ठुनठुनिया - 17

17

उड़ी, उड़ी रे पतंग

ठुनठुनिया को सबसे मुश्किल काम लगता था पतंग उड़ाना। उसे आसमान में उड़ती हुई रंग-बिरंगी पतंगें देखना जितना अच्छा लगता था, उतनी ही परेशानी होती थी खुद पतंग उड़ाने में। जब भी वह हुचकी, पतंग-डोरी लेकर जोश से भरकर मैदान में पहुँचता तो या तो पतंग उससे उड़ती ही नहीं थीह या फिर उड़ाते-उड़ाते वह फट जाती थी। ठुनठुनिया उदास हो जाता था। सोचता, शायद मैं पतंग उड़ाना कभी न सीख पाऊँगा।

एक दिन ठुनठुनिया ने मन को पक्का कर लिया, चाहे जो हो, पतंग उड़ाना तो सीखना ही है।

उसने माँ से दो रुपए लिए। आठ आने की पतंग खरीदी, डेढ़ रुपए का माँजा। माँजा चरखी पर चढ़ाया और बस, पतंग तैयार करके घर के सामने वाले मैदान में आ गया। वहाँ वह पतंग उड़ाने की कोशिश करने लगा, पर पतंग थोड़ा-सा ऊपर जाती, फिर नीचे आ जाती। ठुनठुनिया साधने की कोशिश करता तो बुरी तरह फड़फड़ाने लगती थी।

ठुनठुनिया निराश हो गया। सोचने लगा, क्या करूँ, क्या नहीं! इतने में ही उसे मनमोहन अपनी खूब बड़ी-सी नीली पतंग और मंजा लिए आता हुआ दिखाई दिया। मनमोहन पतंग उड़ाने में उस्ताद था। सबसे ऊँची उसी की पतंग उड़ी थी और आसपास कोई उसकी पतंग नहीं काट पाता था।

ठुनठुनिया ने उसे पास बुलाकर कहा, “अरे मनमोहन, मेरी पतंग तो उड़ ही नहीं रही। जरा ठीक से छुड़ैया तो देना भाई...!”

मनमोहन ने बेमन से छुड़ैया दी, पर ठुनठुनिया पतंग सँभाल ही नहीं पाया। वह फिर चक्कर काटकर जमीन पर आ गिरी।

“तुम जरा एक बार उड़ा दो न इसे! फिर तो मैं खुद साध लूँगा।” ठुनठुनिया ने मनमोहन से अनुरोध किया।

“ना जी, ना, मुझे अपनी पतंग उड़ानी है, देर हो रही है। अगर तुमसे पतंग नहीं उड़ती, तो क्या जरूरी है कि तुम उड़ाओ ही।...तुम दूसरों को देखो और मजा लो। कोई जरूरी तो नहीं कि हर आदमी हर काम कर ले!” कहकर मनमोहन अपनी पतंग और चरखी लेकर आगे चल दिया।

ठुनठुनिया अपना-सा मुँह लेकर रह गया। आज उसे अपने आप पर जितना गुस्सा आ रहा था, उतना पहले कभी नहीं आया था। ‘हाय रे मैं! एक जरा-सी पतंग नहीं उड़ा सकता। मैं सचमुच किसी काम का नहीं हूँ।...ठलुआ, एकदम ठलुआ!’ कहकर ठुनठुनिया अपने आपको धिक्कार रहा था।

ठुनठुनिया का चेहरा उतर गया था और वह उदास-सा खड़ा था। इतने में उसे रामदीन चाचा आते दिखाई दिए। पास आकर बोले, “क्यों रे ठुनठुनिया, कुछ परेशान-सा लग रहा है?”

ठुनठुनिया ने जब से रामदीन चाचा को भालू बनकर डराया था, तब से वह शर्म के मारे उनसे नजरें चुराता था। पर रामदीन चाचा ने आज खुद आकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया, तो ठुनठुनिया समझ गया कि उन्होंने उस दिन वाली शरारत के लिए उसे माफ कर दिया है।

रामदीन चाचा के पूछने पर ठुनठुनिया ने बेझिझक होकर अपनी परेशानी बताई तो वे बोले, “ला दे मुझे पतंग, इसमें क्या मुश्किल है!”

रामदीन चाचा ने पतंग-डोरी अपने हाथ में ली और ठुनठुनिया को छुड़ैया देने के लिए कहा। छुड़ैया देते ही पतंग हवा में उड़ी और उड़ते-उड़ते आसमान में यह जा और वह जा। ठुनठुनिया देखकर तालियाँ बजा-बजाकर नाचने लगा।

रामदीन चाचा न सिर्फ पतंग को शानदान ढंग से उड़ा रहे थे, बल्कि साथ-ही-साथ ठुनठुनिया को पतंग उड़ने के गुर और बारीकियाँ भी समझाते जा रहे थे। शुरू में छुड़ैया देने के बाद पतंग को कैसे साधना है...फिर ऊपर जाने पर कहाँ ढील देनी है, कहाँ डोर खींचनी है। पतंग एक तरफ झुकने लगे, तो क्या करना है? कोई पतंग पेंच लड़ाने आए, तो कैसे बचना है...या फिर पेंच लड़ाकर दूसरे की पतंग कैसे काटनी है? एक-एक कर सारी बातें रामदीन चाचा ने बड़े प्यार से समझाईं।

“ले, अब तू खुद उड़ा।” कहकर रामदीन चाचा ने पतंग की डोर ठुनठुनिया को पकड़ा दी।

पहले तो ठुनठुनिया को लगा कि वह पतंग को सँभाल नहीं पाएगा। पतंग जरा-सा एक ओर झुकती तो उसे लगता, अब गिरी, अब गिरी! पर रामदीन चाचा बीच-बीच में बढ़ावा देते, “ठुनठुनिया, जरा ढील तो दे...शाबाश, बहुत अच्छे! अब खींच, अब जरा इधर को झुका, ऐसे...!” और ठुनठुनिया को लगता, ‘अरे वाह! मैं पतंग उड़ा सकता हूँ...सचमुच उड़ा सकता हूँ।’

ऐसे ही काफी देर ठुनठुनिया पतंग उड़ाता रहा तो रामदीन चाचा बोले, “अरे! अब तो तू होशियार हो गया। मैं अब चलूँ!”

ठुनठुनिया बोला, “रुको चचा, अभी पतंग उतारते समय दिक्कत आएगी, तब तुम्हीं सँभालना। बस, थोड़ी देर और उड़ा लूँ, फिर उतारते हैं।”

अभी ये बातें चल ही रही थीं कि रामदीन चाचा चौंके। बोले, “ठुनठुनिया, होशियार! देख तो, यह नीली पतंग आ रही है पेंच लड़ाने को! लगता है, मनमोहन की पतंग है।”

ठुनठुनिया डरकर बोला, “अब तो पतंग तुम्हीं सँभालो चाचा। मनमोहन तो खासा उस्ताद है। मेरी पतंग बचेगी नहीं।”

“अरे, बचेगी कैसे नहीं!” रामदीन चाचा बिगड़कर बोले, “हम जो तेरे साथ हैं। भला किस माई के लाल की हिम्मत है कि तेरी पतंग को काट गिराए। बस, तू हिम्मत से उड़ाए जा और जैसा मैं कहूँ, वैसा कर।”

इससे ठुनठुनिया को बड़ी हिम्मत बँधी। बोला, “ठीक है चाचा, अब मैं घबराऊँगा नहीं, चाहे कुछ हो जाए।”

और सचमुच रामदीन चाचा जो-जो दावँ-पेंच बताते, ठुनठुनिया झट से उन्हें आजमा लेता और यों उसकी पतंग बड़े आराम से बल खाते हुए उड़ी जा रही थी।

जब मनमोहन की नीली पतंग काफी पास आ गई तो रामदीन चाचा बोले, “ठुनठुनिया, होशियार! अब यही खतरे का समय है। तू जरा-सी अपनी पतंग को मनमोहन की पतंग के नीचे ले आ। और फिर होशियारी से घिस्सा देकर डोर काट दरे। जल्दी कर, वरना फिर तेरी पतंग गई।...”

ठुनठुनिया ने सचमुच बड़ी चुस्ती दिखाई और मनमोहन की पतंग के पास आते ही, नीचे से इतनी होशियारी से और इतनी जल्दी उसका माँजा काट दिया कि मनमोहन तो कुछ समझ ही नहीं पाया। उसने जब अपनी पतंग को कटकर दूर जाते देखा तो हक्का-बक्का हाकर बोला, “ओह!”

मनमोहन की समझ में नही आ रहा था कि ठुनठुनिया को आज कौन-सा जादू मिल गया कि मुझ जैसे उस्ताद की उसने पतंग काट डाली। उधर खुद ठुनठुनिया को समझ में नहीं आ रहा था कि उसे हुआ क्या है!

मजे की बात तो यह है कि मनमोहन की पतंग कटते ही ठुनठुनिया को घेरने के लिए एक के बाद एक चार पतंगें आईं। जब तक सब सोच रहे थे कि भला ठुनठुनिया जैसे नौसिखिए से क्या पेंच लड़ाना! पर ठुनठुनिया ने जब मनमोहन को पटकी दी तो उससे दो-दो हाथ करने के लिए एक के बाद एक चार पतंगें आईं। और ठुनठुनिया पर कुछ ऐसा जादू सवार हुआ कि उसने कोई पंद्रह मिनट के भीतर एक-एक कर चारों को धूल चटा दी।

हालाँकि टिंकू की साँप जैसी लहरीली, काली पतंग काटने में उसे पसीने आ गए! पतंग क्या थी, बिल्कुल साँप की तरह झपटती और फुफकारती थी। एकदम साँप की तरह कहीं से भी ‘सर्र’ से निकल आती थी, ‘सर्र’ से चली जाती थी।...खुद ठुनठुनिया घबरा रहा था। पर उस पतंग को भी आखिर उसने काट ही दिया।

देखने वाले गुस्से और अचरज के मारे होंठ चबा रहे थे, पर ठुनठुनिया के मन में जरा भी घमंड नहीं था। उत्साहित होकर बोला, “रामदीन चाचा, यह मेरा नहीं, सब तुम्हारा ही कमाल है। पता नहीं, ऐसे बढ़िया गुर तुमने कहाँ से सीखे कि देखो तो, सब पानी माँग रहे हैं!”

इतने में मनमोहन अपनी चरखी पकड़े हुए, सिर झुकाए वहाँ से निकला। उसे उदास देखकर ठुनठुनिया बोला, “मनमोहन, जरा इधर तो आओ।”

मनमोहन पास आया और झेंप मिटाने के लिए बोला, “अरे ठुनठुनिया, तुम तो इतनी अच्छी पतंग उड़ाते हो। सुबह झूठ-मूठ ही मुझसे कह रहे थे न कि मुझे पतंग उड़ाना नहीं आता!”

“सचमुच सुबह तक नहीं आता था। यकीन करो, यह तो रामदीन चाचा ने सिखाया है...!” ठुनठुनिया ने रामदीन चाचा की ओर इशारा करते हुए रोमांचित स्वर में कहा।

मनमोहन को यकीन नहीं हुआ। बोला, “एक दिन में तुम कैसे इतने बड़े उस्ताद हो गए?”

“यही तो खुद मुझे ताज्जुब है!” ठुनठुनिया बोला, “बस, रामदीन चाचा के पास कमाल के गुर हैं। उन्होंने ही मुझे यह कला सिखा दी। खैर! आओ, अब मिलकर पतंग उड़ाएँ।”

रामदीन चाचा बोले, “ठीक है, अब तुम दोनों मिलकर पतंग उड़ाओ। मैं चला।”

और सचमुच ठुनठुनिया और मनमोहन मिलकर पतंग उड़ाने लगे तो दोनों को खासा आनंद आया। ठुनठुनिया ने हुचकी सँभाली और मनमोहन ने उसकी पतंग से एक-एक कर तीन पतंगें और काट डालीं। फिर एक पतंग और आई, तारे जैसी शक्ल वाली, जो बड़ी तेजी से चक्कर काट रही थी। उससे ठुनठुनिया ने पेंच लड़ाया और जीत गया।

अब तक अँधेरा हो चुका था। ठुनठुनिया के कहने पर मनमोहन ने धीरे-धीर पतंग उतारी और माँजा लपेटकर दोनों वापस चल दिए।

ठुनठुनिया ने देखा, उसकी पतंग किनारे से थोड़ी फट गई है। डोर भी एक-दो जगह घिस्सा लगने से कमजोर हो गई थी। पर यह भी कमाल था कि पतंग कटी नहीं। ठुनठुनिया ने प्यार से अपनी पतंग को चूम लिया। बोला, “वाह, आसमान में ठुनठुनिया का झंडा लहरा दिया, आज तो इस छबीली ने!”

देखकर मनमोहन खूब ठठाकर हँसा। दोनों अब पक्के दोस्त बन गए थे।