Ek tha Thunthuniya - 23 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | एक था ठुनठुनिया - 23

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एक था ठुनठुनिया - 23

23

घर आया बेटा

जिस समय मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया का हाथ पकड़े हुए घर आए, गोमती की हालत बुरी थी। पिछले सात-आठ दिन से उसे बुखार आ रहा था, जो उतरने का नाम न लेता था। अब तो कमजोरी और चक्कर आने के कारण उसका उठना-बैठना भी मुहाल था। बस, चारपाई पर पड़ी रहती थी सारे-सारे दिन। थोड़ी-थोड़ी देर बाद पानी मुँह में डाल लेती। अभी दो-तीन रोज पहले डॉक्टर से दवाई तो लाई थी, पर खाने का मन ही न होता था। एकाध पुड़िया खाई, बाकी दवाई उसके सिरहाने पड़ी थी।

शरीर से ज्यादा पीड़ा और कष्ट उसके मन में था। रह-रहकर सोचती थी, ‘एक ही बेटा है। वो भी जाने किन-किन चक्करों में फँसा हुआ है। इतनी भी परवाह नहीं कि माँ जिंदा भी है या मर गई? इसी ठुनठुनिया पर कितनी आस लगाए बैठी थी, पर...!’

सोचते ही गामती की आँखों से आँसू टप-टप टपकने लगे।

आज दिन-भर उसने कुछ नहीं खाया था। केवल अपने लिए खाना बनाने का मन ही न होता था। वैसे भी कभी-कभी पड़ोस की शीला चाची के यहाँ से आ जाता तो एकाध रोटी खा लेती, नहीं तो भूखी ही रहती थी।

मास्टर अयोध्या बाबू के साथ बेटे को आते देखा तो गोमती को पहले तो यकीन ही नहीं हुआ। फिर सारे शरीर में झुरझुरी-सी छा गई। एकाएक उसकी आँखों से झर-झर आँसू झरने लगे। वह खुद नहीं जानती थी कि ये आँसू दु:ख के हैं या खुशी के। शायद खुशी ही ज्यादा थी।...पर इनमें कहीं दुखी मन की यह आह और शिकायत भी थी कि “बेटा ठुनठुनिया, तूने अपनी माँ का अच्छा खयाल रखा। कहा करता था—माँ, माँ, तुझे मैं कोई कष्ट न होने दूँगा। पर देख, तूने खुद क्या किया?”

गोमती ने कहा नहीं, पर उसके चेहरे पर गहरे दु:ख और विह्वलता के भाव थे। रह-रहकर छलकते आँसू जैसे सारी कहानी कह रहे थे। फिर उसके शरीर की जो हालत थी, उसे देखकर ठुनठुनिया सिहर उठा। बोला, “माँ, माँ, तू ठीक तो है ना?...ऐसी कैसे हो गई?”

गोमती ने कुछ कहा नहीं, बस उसे अपनी छाती से चिपका लिया और गीले स्वर में बोली, “मैं ठीक हूँ बेटा। बस, तू वादा कर कि मुझे छोड़कर अब कहीं नहीं जाएगा। वरना...मैं अब तुझे न मिलूँगी!”

“मैं वादा करता हूँ माँ...मैं वादा करता हूँ, तुझे छोड़कर कहीं न जाऊँगा!” कहता-कहता ठुनठुनिया रो पड़ा।

फिर बोला, “माँ, तेरा सपना था कि मैं खूब पढ़ूँ-लिखूँ...पढ़-लिखकर कुछ बनूँ! मैं वादा करता हूँ कि अब मैं खूब दिल लगाकर पढूँगा। तेरी याद हर रोज आती थी माँ, पर मैं सोचता था, खूब पैसा कमाकर ले जाऊँ, ताकि तेरे कष्ट मिट जाएँ। ये तो मास्टर जी एक दिन मिल गए और मुझे घर ले आए, वरना तो माँ, मैं तुझे खो देता...!”

अब गोमती का ध्यान मास्टर अयोध्या प्रसाद जी की ओर गया। बोली, “मास्टर जी, आपने सचमुच मेरे प्राण बचा लिए। मेरा बेटा घर लौट आया, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए।”