Two Acres Land in Hindi Moral Stories by Vishram Goswami books and stories PDF | तीन बीघा जमीन

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तीन बीघा जमीन

तीन बीघा जमीन

सायं ढलने लगी थी, खेतीहर किसान अपने खेतों से लौटने लगे थे, चरवाहे भेड़ - बकरियों, गाय- भैंसों के झुंड लिए जंगल से वापसी कर रहे थे, कच्चे दगडों में उनके खुरों से बालू के कण हवा के साथ ऊपर उठ रहे थे, सूर्यास्त के बाद ऊपर से जैसे अंधेरा कण-कण बनकर नीचे की ओर सरक रहा था, आकाश धूमल सा हो चला था, आभास ही नहीं हो रहा था कि धूल के कणों की वजह से या रात्रि के अंधेरे की चादर धीरे-धीरे सरकने की वजह से । परिंदे अपने घौंसलों की ओर लौटने लगे थे और पेड़ों में उनकी चहचाहट अनजाने से संगीत की धुन गुंजित कर रही थी । इस सब से अनजान हरपाल अपने कच्चे घर की बाहरी तिबारी ( कच्चा मिट्टी का छप्पर वाला बैठक कक्ष ) के साथ लगे हुए चबूतरे पर नीम के पेड़ के नीचे अपनी मुंडी घुमाते हुए मिट्टी के बर्तन वाला बनाने वाले चाक के किनारे पर बने छिद्र पर ध्यान एकाग्रचित्त कर रहा था और पास रखे हुए लकड़ी के कीले को उस में फंसा कर , फिर दोनों हाथों से कीले को पकड़कर तेजी से चाक घुमाने का प्रयास कर रहा था, उसकी तन्मयता को देखकर लगता था कि घूमते हुए चाक की गति में मानो उसे कोई मधुर तान सुनाई दे रही थी, तभी तो ऊपर से पेड़ में पक्षियों का कलरव तनिक भी उसका ध्यान भंग नहीं कर रहा था, फिर तेज गति से चाक घूमने के बाद, कीले को एक तरफ रख देता और चाक पर रखे हुए मिट्टी के लोंदे से विधाता की तरह विभिन्न प्रकार के मिट्टी के बर्तनों को आकार देता, रचना पूर्ण होने पर कलाई में लिपटे धागे से उस बर्तन को शेष मिट्टी के लोंदे से अलग कर, जमीन पर रखता जा रहा था । तिबारी में पड़ी चारपाई पर लेटा हुआ पिता रेवड़ राम कुम्हार हुक्का गुड़गुड़ा रहा था और हरपाल की ओर बड़े ही सुकून भरे नेत्रों से देख रहा था और अपने पुत्र के मेहनती और कर्तव्यनिष्ठ होने पर मन ही मन गौरवान्वित महसूस कर रहा था। रेवड़ राम कुम्हार जिसे गांव में सभी 'रेबड़ा ' कहते थे , साधारण सी संतोषी जिंदगी बसर कर रहा था । पत्नी धपली के अलावा, तीन पुत्र हरपाल , रामपाल , धनपाल और दो पुत्रियां गंगा और जमुना थी । उन दिनों गांव में शिक्षा का रुझान तो बढ़ रहा था और अमीर - गरीब सभी के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाया करते थे । साहूकार, जमीदार, कृषक, मजदूर सभी के बच्चे पढ़ने जाते थे और सभी पढ़ाना चाहते थे, किंतु सबके पढ़ने के मकसद जैसे अलग-अलग थे । इक्का-दुक्का धनी लोगों के बच्चे शहर में भी पढ़ते थे। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले चाक की गोलाई की भांति रेवड़ राम की दुनिया बहुत छोटी थी । उसे बाहरी दुनिया के बारे में ना तो ज्यादा जानकारी थी, ना कभी खोज- खबर रखने की आवश्यकता महसूस की। बड़े बेटे हरपाल को आठवीं तक पढ़ाया, फिर जल्दी से विवाह कर दिया और कमाने का साथी बना लिया। हरपाल को पता ही नहीं चला कि कब गृहस्थी का सारा बोझ धीरे-धीरे सरक कर उसके कंधों पर आ टिका था। एक आज्ञाकारी पुत्र की भांति हरपाल ने सारे परिवार की जिम्मेदारी के बोझ को उठाने में कभी ना नुकर नहीं की, ना कोई शिकवा, न केवल खुद के बारे में चिंता रखने वाली संकीर्ण सोच, उसके परिवार की परिभाषा में केवल पत्नी नहीं आती थी, मां- पिता, भाई -बहन सभी अत्यंत महत्वपूर्ण थे । पढ़ने में रुचि होने के बावजूद वह स्वयं आगे पढ़ाई नहीं कर सका, इसका उसको मलाल तो था, किंतु माता-पिता से शिकायत नहीं, बल्कि छोटी सी उम्र में ही जिम्मेदारियों ने उसे परिपक्व बुद्धि वाला उम्र दराज व्यक्ति बना दिया था। मन में सोचता था कि वह पिताजी के साथ हाथ नहीं बटाएगा तो परिवार कैसे चलेगा। पारिवारिक आमद स्रोतों के रूप में तीन बीघा जमीन थी जो रेवड़ राम के दादा को किसी रियासतदार ने बख़्शीश में दी थी और मिट्टी के बर्तन, घड़ा, मटकी, कुल्लड़, सुराही, गुल्लक बनाना, जो उन दिनों ग्रामीण परिवेश में काफी उपयोग आते थे । हरपाल अधिक शिक्षा प्राप्त ना करने के बावजूद अपने छोटे भाई - बहनों को पढ़ाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था और पिताजी से बार-बार कहता , "कक्कू, हम मिलकर खूब मेहनत करेंगे और छोटों को खूब पढ़ाने की कोशिश करेंगे , उनकी शिक्षा ही हमारे परिवार की तकदीर बदल सकती है, आज पढ़ाई का जमाना है।" कक्कू , भावुक हो कर संक्षिप्त सा उत्तर देता, " हां बेटा ।" जी हां, पिताजी को सभी बच्चे 'कक्कू' शायद काका जी का संक्षिप्त रूप, कहकर संबोधित करते थे । हरपाल बहुत जोश खरोश के साथ काम करता , थोड़ी सी जमीन संभालने के साथ-साथ अन्य जमीदारों की जमीन आधे बांटे पर ले लेता और फिर सुबह -शाम मिट्टी के बर्तन बनाने में कक्कू की मदद करता। उन दिनों मिट्टी के भांडों से भी ठीक आमद हो जाती थी । गांव में शादी समारोह में कुल्लड़, सुराही, मटके खूब काम आते थे । उसकी पत्नी व बड़ी बहन गंगा भी उसके काम में पूरी मदद करती थी। समय तेजी से गुजरता जा रहा था। रेवड़ राम को गंगा , जमुना की शादी की चिंता सताने लगी। "देख भाई हरपाल, सुण, अबकी आखातीज तक गंगा जमुना को ब्याह को इंतजाम देखनो पड़ेगो।" "कक्कू अभी पढ़ने दो ना।"। "कांई पढ़बादे, सोले की होगी गंगा, या साल 12वीं कर लेगी आपणी सकूल सू, पाछे वैसाख तांई ब्याह कर देंगा और दोनों बहनों को एक साथ ही निपटा देंगा।" " अरे कैसी बात करते हो, अभी जमुना तो सातवीं में ही पढेगी, अभी बारह की भी ना हुई है।" "अरे तो ब्याह ही तो करणो है, ससुराल बाद में गोंणो करके भेज देंगा । बेटा दोनों को एक संग हो जाएगो तो आपणों खर्चो बचेगो।" "फिर आने वाले वैशाख की आखा- तीज को दोनों बहनों की शादी कर दी गई। रेवड़ राम ने अपनी औकात से ज्यादा पैसे खर्च किए। रामधन सेठ जी से भी ₹10000 दो टका का ब्याज पर उधार लिए। हरपाल ने पिताजी को पूरे भरोसे के साथ सहयोग दिया और हिम्मत दिलाई कि दोनों बहनों की एक साथ शादी कर रहे हैं ,दो रुपये ज्यादा लग जाएंगे तो कोई बात नहीं और मेहनत करेंगे धीरे-धीरे सब चुक जाएगा ।विवाह के बाद हरपाल पर कमाने का अधिक दबाव बढ़ गया । घर खर्च के अलावा सेठ जी को हर महीने ब्याज के रूप में रुपए देने पड़ते थे । दोनों छोटे भाइयों की पढ़ाई का खर्च, हरपाल तो किसी विषय की ट्यूशन भी लेना चाहता था, उन दिनों ट्यूशन& कोचिंग का ज्यादा प्रचलन नहीं था, गांव में तो बिल्कुल भी नहीं, केवल इक्का-दुक्का गणित, अंग्रेजी जैसे विषयों में कुछ छात्र ही अलग से किसी मास्टर जी से ट्यूशन लेते थे, किंतु हरपाल उनकी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आने देना चाहता था और पिताजी से कहता-। " कक्कू थोड़े ही दिनों की बात है, देखना अपने रामपाल, धनपाल जल्दी ही पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी पकड़ेंगे, फिर अपने परिवार के दिन एक झटके में बदल जाएंगे ।" ऐसे में खर्चा और बढ़ गया, हरपाल की पत्नी को दो लड़कियों रुकमणी, सुखमणी के बाद लड़का पैदा हो गया। सामाजिक पास- पड़ोस और रिश्तेदार कुआं पूजन कर सामूहिक भोज के लिए दबाव डालने लगे । पिताजी बोले - "भाई हरपाल अब या तो करणो पड़े गो, तेरा छोरा को कुओं पूजणो ही है, कोई हल्को खाणो कर देंगा।" "कक्कू हमारे ऊपर पहले से ही शादी का कर्ज है, फिर रामपाल, धनपाल की पढ़ाई का खर्च भी है, कुआं पूजन ऐसा काम नहीं कि धिकेगी ना?" " तो कांई भी काम ऐसो कोणी भाई, पण माणस कांंई मान- इज्जत कू ही तो जीवे समाज में, म्हारी भी कांई बिरादरी में इज्जत रह जावेगी।" हरपाल की पत्नी कमली ने भी ताना दिया,- " सबका काम होगा, मेरे और मेरे बच्चों के लिए ही रुपए नहीं है इस घर में।" " ऐसा क्यों कहती हो? तुम मुझसे अलग हो क्या और रामपाल, धनपाल हमसे अलग हैं क्या ? वह भी तो अपने बच्चे जैसे ही हैं, कमली हमारे दिन बदलने की कोई सूरत नहीं है, सिवा उनकी शिक्षा के और ढंग की नौकरी के।" हरपाल समझाते हुए बोला । "अरे संत महात्मा जी किस दुनिया में रहते हो, जमाना बदल रहा है पढ़ लिख कर तुम्हें रोकड़े देने नहीं आएंगे, तुम्हारे बच्चे जैसे भाई।" कमली ने फिर तंज किया ।आखिर में हरपाल की इच्छा नहीं होती हुए भी कार्यक्रम कुआं पूजन करना पड़ा, सेठ जी से ₹5000 और लेने पड़े। हरपाल कर्ज के बोझ में दब गया , अब तो सिर्फ काम ही काम, ना दिन का पता, ना रात का, कोल्हू के बैल की तरह हर दिन खपता जा रहा था, तब जाकर कहीं घर खर्च और ब््ज्् ब्याज की पूर्ति हो पाती थी और इस तरह दो साल निकल गये। सेठ जी का मूलधन तो आधा भी नहीं चुका, क्या करें ? कैसे करें ? हरपाल को कुछ समझ नहीं आ रहा था, ऊपर से कक्कू का शरीर भी जवाब दे रहा था, अब इतनी मेहनत नहीं कर पाता था, फिर घर के लिए एक बड़ी समस्या पैदा हो गई, यू समझे कि परिवार के लिए एक कठिन चुनौती थी । रामपाल की गांव की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी, और धनपाल भी कुछ ऐसे विषय पढ़ना चाहता था, जो गांव के स्कूल में नहीं थे । उनको आगे अध्ययन के लिए शहर कैसे भेजा जाए ? रकम का इंतजाम कहां से हो? पिताजी ने साफ इंकार करते हुए कहा - "देखो बेटाओ, हम शहर को खर्चो कहां सू ल्यायंगा ? तुम कांई और तरीकों देखो पढ़बा को, काई प्राइवेट परीक्षा भी तो देवें या हरपाल की मांई देखो, सारा हाड़-मांस खड़ा काड़ा कर दिया , फेर भी पार मां पड़ रही है।" रामपाल और धनपाल दोनों चुप थे किंतु कक्कू की ओर शिकायत भरी ऐसी निगाहों से देख रहे थे मानो कह रहे हो कि इसमें उनका क्या कसूर था, किंतु बोल नहीं पा रहे थे। हरपाल के दिमाग ने भी जैसे काम करना बंद कर दिया था, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहे? क्या करें ? पुनः कक्कू बोला,-" भाई देखो थम दोनू भी अब हरपाल का काम में हाथ बटाओ, म्हारो तन तो अब घनों काम को रहयो णा, तब कांई गृहस्थी को गाड़ो ढंग हूं चालेगो।" "कक्कू एक ही तो सपना देखा था कि छोटों को खूब पढ़ाएंगे, इनका जीवन कामयाब हो गया तो अपनी दशा अपने आप सुधर जाएगी।" आखिर हर बार सोच कर बोला। " फिर तू ही बता हरपाल खांसू इंतजाम करा पईसान को? सेठ जी तो और पिसा उधार देबा सूं रिहया?" कक्कू बोला । "कक्कू जमीन गिरवी रखकर तो कुछ पैसे दे सकते हैं ।" "तीन बीघा जमीन है वा भी गिरवी रख दें, कांई हूं कमायेगा, खायेगा ?"। "कक्कू खेती करने को तो बांटे जमीन ले लेंगे, इनकी पढ़ाई छूटी तो फिर जिंदगी की पटरी छूटी, दो-तीन साल निकाल देंगे फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा ।" हर पाल की पत्नी के बदन में जैसे आग लग गई और वह हरपाल को खा जाने वाली नजरों से घूरने लगी और भड़ास निकाली ,- "उसके बाद या घर को भी गिरवी रख देना ।" मन ही मन हरपाल की सज्जनता, भ्रातृ- प्रेम और दरियादिली को जानती थी किंतु उसकी भलमानुषी में उसको अपना अंधकारमय भविष्य नजर आ रहा था और इसीलिए उस पर गुस्सा आ रहा था। आखिर हरपाल का दृढ़ आग्रह सबको को स्वीकार करना पड़ा। दोनों भाई हरपाल के गले से लिपट गए , उनको देखकर पिता रेवड़राम, मां धपली में भी जोश आ गया कि और कड़ी मेहनत करेंगे। दोनों ने कमली के पैर पकड़कर उसको भी मना लिया। तीन बीघा जमीन सेठ जी को गिरवी रखकर तीन साल तक आवश्यकता अनुसार ₹20000 किस्तों में उधार देना तय हुआ, जिस पर जमीन गिरवी रखने के कारण एक टका ब्याज तय किया, जो किश्त लेने की तारीख से शुरू होना था और जमीन पर खेती करने का हक सेठ जी का, जो उसने आधे बांटे पर वापस हरपाल को दे दी थी। हमारे भारतीय समाज में रिश्तो का भी अजीब दस्तूर है ना, भावनाएं मिले ना मिले रेल की पटरियों के स्लीपरों की भांति जकड़े हुए रखते हैं और रिश्तो का मान रखना हमारी सनातनी परंपरा है, दिल से बेशक हमें कबूल ना हो किंतु इस रिश्ते निभाने की सनातनी परंपरा में चूक नहीं होनी चाहिए और यह हम से अनेकों काम ऐसे भी करवा लेती है जो हमारी क्षमता में नहीं है या जिनको हम करना ही नहीं चाहते, किंतु ऐसे भारतीय रिश्तो में जब दिली भावनाओं का भी आलिंगन हो और अपनेपन का अहसास हो तो एक दूसरे के लिए ही त्याग और समर्पण की सीमाऐं नहीं होती ।हरपाल का भी अपने भाइयों से स्वाभाविक, निश्चल प्रेम था और मानो अपने अरमानों को वह उनके रूप में पूरा करना चाहता था। दोनों भाइयों को स्वयं शहर छोड़ने गया । समाज के छात्रावास में प्रवेश दिला दिया ताकि कुछ कम खर्च हो, आवश्यकता कि छोटी- मोटी चीजें खरीद कर दिलवादी, कुछ सामान बर्तन आदि तो घर से ही ले आए थे और ₹2000 रामपाल के हाथ में पकड़ा आया था। आते समय पिता रेवड़राम और मां धपली ने मितव्ययता का खूब पाठ सिखाया था और मन लगाकर पढ़ाई करने को कहा था। हर पाल का जीवनयापन और कठिन हो गया, चारों परिवार के सदस्य अपनी क्षमता से बहुत अधिक मेहनत करते, हरपाल ने आठ- दस बीघा खेत जमीदारों से आधे बांटे पर ले लिया था, जिसमें सारा परिवार पिलटा रहता था, रेवड़ा के शरीर में दम नहीं होने के बावजूद, सुबह से रात तक मिट्टी के बर्तन बनाता था, बीच-बीच में चारपाई पर पड़ जाता, फिर खड़ा होता और लग जाता, घर में एक भैंस थी जिसका थोड़ा बहुत दूध हरपाल के बच्चे ही पीते थे, बाकी बूंद बूंद मां दूधिया को बेच देती थी ताकि दो पैसे आ जाए और किसी तरह गिरवी जमीन छूट जाए, किंतु इतना करने के बावजूद भी ब्याज की पूरकश मुश्किल से पड़ती थी, बर्तन बेचने और दूध बेचने से घर खर्च मुश्किल से चल पाता था, बीच-बीच में कक्कू की दवाई लेकर आनी पड़ती थी । रामपाल, धनपाल महीने-बीस दिन में आते तो उनको भी कुछ देना पड़ता था, फसल का पैसा तो साल में दो बार ही आता था, जिससे खाने को अन्न मिल जाता और छात्रावास -मैंस की फीस भर दी जाती, कम पड़ता तो दो-तीन हजार की किस्त और सेठ जी से ले ली जाती, किंतु हरपाल की हिम्मत नहीं टूटी, सभी अच्छे दिनों की उम्मीद में संघर्ष कर रहे थे। यह आशा और उम्मीद की किरण भी भगवान ने ऐसी बनाई है कि जब तक दिखती रहती है, आदमी का संबल बनाए रखती है, अंदर से नहीं टूटता है, चाहे उसका शरीर टुकड़ों में खपता रहे, मानसिक रूप से मजबूत रहता है, और जूझता रहता है। उम्मीद की किरण टूटी तो समझो जीवन की जो डोर छूटे। ऐसी ही कुछ खयाली उम्मीदों पर हरपाल और उसका परिवार जी जान से खप रहा था और रात को जब आंखें बंद होती तो सपनों में ही शकून की जिंदगी जी लेता था। वक्त गुजरता जा रहा था किंतु हरपाल के परिवार के लिए मानो वक्त के पहिए की रफ्तार धीमी चल रही थी, वर्ष, महीने, सप्ताह, दिन जैसे बहुत लंबे हो गए थे, हरपाल को लगता कि भाइयों की पढ़ाई का वर्ष पूरा क्यों नहीं होता, किंतु यह तो हमारी मनोदशा का ही आकलन है ना, वक्त तो निर्बाध गति से चलता ही रहता है । एक वर्ष, दो वर्ष, पूरे हुए, हरपाल से सेठ जी का ब्याज भी चुकता नहीं हो पाता था, सेठ जी ब्याज पर ब्याज चढ़ाकर मूल रकम में जोड़ देते थे । खैर इस कठिन साधना के तीन वर्ष पूरे हुए, रामपाल स्नातक हो गया और मेहनत के साथ भाग्य ने भी साथ दिया छ: माह भी नहीं बीते होंगे, उसको एक बैंक में क्लर्क का पद पर नौकरी मिल गयी। कक्कू, मां और भाई हरपाल की खुशी का ठिकाना नहीं था, मानो उनके ख्वाबों की दुनिया जमीन पर उतर आई थी। अब सारी मुरादें जैसे एक साथ पूरी करने का वक्त आ गया था, जैसे बरसों से बीमार चारपाई में पड़ा कोई मरीज अचानक स्वस्थ हो गया, और बाहर निकलकर एकदम सारी दुनिया देखना चाहता हो। रेवड़ा सारे गांव में खुशखबरी देता फिर रहा था कि उसका बेटा सरकारी मुलाजिम हो गया है। दोनों भाई पहले माह का वेतन लेकर शहर से गांव आए तो हनुमान जी के मंदिर में सवा पांच किलो लड्डू का प्रसाद चढ़ाकर मोहल्ले में बांटा गया। सभी खुश थे। हरपाल के जीवन की थकान भी मानो समाप्त हो गई थी। वह भविष्य की योजनाएं बनाने में डूब गया, लेकिन ख्वाबों की दुनिया इतनी आसानी से हकीकत का रूप कहां लेती है । सभी आज एक आंगन में बैठे थे । रेवड़ राम बोला,-" भई रामपाल, भगवान ने म्हारी सुण ली, अब कई चैण को सांस आयो है।" " हां, कक्कू ।" "अब या भाई हरपाल कू भी थोड़ो आराम दयो, देख कोणी रहया जवानी में आधो बूढो लागे ।" "हां कक्कू, थोड़े दिन और बस या धनपाल को नर्सिंग कॉलेज में ऐडमिशन दिलवा दिया है बस तीन साल में इसकी भी पढ़ाई पूरी हो जाएगी और नौकरी लग जाएगी ।" "भाई सेठ जी को करजो बढ़तो जा रहेयो है, अब म्हारोर शरीर चुक ग्यो, ब्याज की भी पार ना पड़े या हरपाल का टाबरन कू देख रहया हो, ढंग का एक जोड़ी कपड़ा कौणी पहरबाकू।"। " वो तो ठीक है कक्कू, मैं मना कहां कर रहा हूं, जितना बचेगा हर महीना सेठ जी की रकम चुकाता रहूंगा।"। हरपाल चुपचाप सारा वार्तालाप सुन रहा था और कमली संदेहास्पद निगाहों से हरपाल की ओर देख रही थी। " बस भाई रामपाल मारिया जमीन के टुकड़े को सेठ जी से छुड़वा दें , अब यो छुड़ाना म्हारे काबू में नहीं है।" हरपाल ने आग्रह पूर्वक शब्दों में इजहार किया । "हां भाई साहब, पूरी कोशिश करेंगे।" रामपाल धनपाल दोनों वापस शहर लौट गए। कुछ महीनों में ही हरपाल को यथार्थ की तपती जमीन दिखाई देने लगी, जैसे स्वप्न देखते हुए किसी सोते हुए प्राणी की नींद उचट जाने से ख्वाब अधूरा रह गया हो। रामपाल दो-तीन महीनों में एक-दो दिन के लिए गांव आने लगा । कहता कि बैंक की नौकरी में छुट्टी नहीं मिलती और कुछ रुपए के हाथ में रखकर जाता, जिनसे सेठ जी के ब्याज की किस्त भी बमुश्किल चुक पाती। कक्कू बोला, "भाई रामपाल, ईयां तो सेठ जी को करजो उतरणो कोनी, ब्याज ही चुकाता रहवांगा कांई?"। " क्या करूं कक्कू? धनपाल की पढ़ाई का खर्चा भी तो है और फिर हम दोनों का शहर में रहने का खर्च, मकान भी किराए पर ढंग का लेना पड़ा, हमारे ऑफिस के लोग आते-जाते रहते हैं, कुछ सलीके से रहना पड़ता है।"। "वा तो दिख रहयो है भाई पण या हरपाल का सलीका कूं भी देखो, या को और बाड़कान को खाबों पहरबा को सलीको भी देखो।" "कक्कू जितने पैसे बचते हैं, ला कर दे देता हूं और थोड़े दिन की बात है, धनपाल की भी नौकरी लग जाएगी।"। हरपाल की समझ जवाब देने लगी थी। उसको भगवान ने सीधा सरल जज्बाती बनाया था। वह क्या कहे, बोला -"देख भाई रामपाल, सेठ जी की रकम घणी होगी या तू ही देख कैसे पार पड़ेगी, म्हारी म्हारा बालकन की तो बाद में देखेंगे , हमारी जमीन छुड़ा दे, बस भाई।" " चिंता मत करो भाई साहब।" कहकर रामपाल चुप हो गया। किंतु कहने मात्र से चिंता कहां खत्म होती है, हरपाल दिनोंदिन सूखता जा रहा था, शायद रामपाल घणा होशियार निकल गया था, शायद उसने निजी खर्चों के लिए कुछ बचाना शुरू कर दिया था, पता नहीं , किंतु हरपाल तन मन से चुकता ही चला जा रहा था । इधर रामपाल के लिए बिरादरी से पढ़ी -लिखी लड़कियों के अच्छे अच्छे रिश्ते आने लगे थे। कई तो कक्कू के पास गांव में न आकर, सीधे विवाह का प्रस्ताव लेकर रामपाल के पास शहर ही चले जाते थे। रामपाल को सीधे इस तरह उसके पास आना बुरा भी नहीं लगता था। वह शायद अपने आप को लड़की का चयन और लड़की के परिवार वालों का मूल्यांकन करने के लिए घरवालों से बेहतर मानता था । इस तरह दो ढाई साल और गुजर गये। रामपाल भी शादी से पहले धनपाल की पढ़ाई से निवृत होना चाहता था । उसकी नर्सिंग का प्रशिक्षण पूरा हो गया। रामपाल ने अपने लिए एक स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण अच्छे पैसे वाले घर की लड़की का चयन कर लिया। गांव आकर घर वालों को इस बारे में पूरी जानकारी दी तो कक्कू और धपली का मुंह लटक गया । उनका रिश्ता चयन करने में रोब दिखाने का अरमान धरा की धरा रह गया। कक्कू बोला,- " भाई रामपाल तू तो घणों बड़ो हो ग्यो है, सारा फैसला लेबा लाग ग्यो , म्हारे लायक कोई काम हो तो बता दीज्यो, ब्याह में कांई करणो है, कब करवा को फैसलों करयो है?" " कक्कू अगले महीने तक धनपाल की पोस्टिंग भी हो जाएगी, वो लोग तीन -चार महीने बाद देव उठने पर शादी की कह रहे हैं।"। " इतनी जल्दी किंया परबंद हो ग्यो भाई?"। " उसकी तुम चिंता मत करो, मैं और धनपाल सब कर लेंगे ।" बेटा ब्याह सू पहली लड़की देखबा और गोदभरावणी भी करवा को कांई विचार है?" मां धपली बोली। " मां लड़की मैंने देख ली है और बाकी सभी काम शादी के समय हो जाएंगे, अनावश्यक खर्च करने की जरूरत क्या है?" हरपाल किंकर्तव्यविमूढ़ सा हुआ चुपचाप सुन रहा था और पत्नी कमली के उलहानों भरी नजर मानो उसको चुभ रही थी। सोच रहा था कि यह रामपाल कितनी जल्दी बड़ा हो गया, जिसको पीठ पर बैठाकर मेला दिखाने ले जाता था और एक पेंसिल की मांग भी उसको आकर करता था, किसी बच्चे के साथ खेलने के लिए भी उससे पूछता था, उसने विवाह जैसा बड़ा फैसला अकेले ले लिया, उसने दिखाने तक के लिए नहीं पूछा, शादी की व्यवस्थाओं का प्रबंध करने लायक ही नहीं है वह , तभी तो रामपाल ने उसका नाम तक नहीं लिया , कमली की बातें उसे कटु सत्य सा लगने लगी। धनपाल की भी किसी दूसरे शहर के सरकारी अस्पताल में पोस्टिंग हो गई । दोनों भाइयों ने मिलकर विवाह समारोह की सभी आवश्यक चीजें खरीद ली, कपड़े, गहने, सामूहिक भोज हेतु सामग्री, आदि। हलवाई और टेंट का सामान भी शहर से ही तय कर लिया था । हरपाल व कक्कू की किसी मदद की जरूरत नहीं पड़ी । शायद उनको मदद के लायक समझा ही नहीं या वास्तव में वह मदद ही क्या कर सकते थे। धन तो उनके पास था नहीं, केवल तन खपा सकते थे, लेकिन उनकी बुद्धि व समझदारी पर पढ़े-लिखे भाइयों को ज्यादा भरोसा नहीं था । आखिर शादी एक अच्छे परिवार की लड़की से थी तो उसके अनुकूल स्तर भी जरूरी था, रामपाल ने दिमाग में पहले से ही योजना बना ली थी, और सारी व्यवस्थाओं का उसने इंतजाम कर लिया था। खुद के, दुल्हन के कपड़ों पर खूब खर्च किया, धनपाल भी अपने लिए खर्च करने में समर्थ था, किंतु मां और भाभी के लिए एक- एक साड़ी, कक्कू के लिए एक धोती- कुर्ता, हरपाल के लिए एक जोड़ी कुर्ता- पजामा और तीनों बच्चों के लिए एक -एक जोड़ी कपड़ों को वह बमुश्किल खरीद पाया था। "भाई साहब शादी का खर्चा बहुत बढ़ गया है, फिर भी मैं सभी के लिए नए कपड़े ले आया हूं, शादी में पहनने को तो चाहिए ही ।" "अरे रहने देता ना रामपाल, सारा खर्च भाई तू ही कर रहा है, मेरे पास तो मेरी शादी का कोट रखा था और तेरी भाभी और मां कौन सा बारात में जाएंगी।" बोलते हुए हरपाल की आंखों में पानी छलक गया, मानो वेदना जबरदस्ती आंखों के रास्ते बाहर आ गई। आज रिश्तो के मूल भी सामर्थ्य के अनुसार कितनी आसानी से बदल जाते हैं ना, जिनके पास सामर्थ्य है, सारा समाज उन से अपना रिश्ता जोड़ने लग जाता है, जिले के लोग भी उसको गांव का और गांव के लोग उसके परिवार के बन जाते हैं। और सामर्थ्यहीन व्यक्ति से तो परिवार के लोग भी किनारा कर लेते हैं, खून के रिश्ते भी बेमानी से प्रतीत होने लगते हैं, वह भी उसे अजनबी सा बना देते हैं । लोगों को उसकी बुद्धि या अनुभव पर भी यकीन कहां रहता है ? जज्बात और सच्ची संवेदनाएं रखने वाले लोग मानो भगवान ने बनाने ही कम कर दिए हैं। विवाह का कार्यक्रम संपन्न हो गया । गांव वालों को सामूहिक भोज भी दिया गया। शादी में लड़की वालों की तरफ से दिया गया सारा सामान, रामपाल ने वहीं शहर में रखवा लिया था और जो रोकड़ मिली, खुद ने संभाल ली । बहू भी बस दो दिन के लिए शादी के दिन गांव आई थी, उसके बाद दोनों भाई सारा सामान ठिकाने लगाकर नौकरी पर चले गए। रामपाल अपनी पत्नी के साथ शहर में रहने लगा और धनपाल अपनी नौकरी वाले शहर में। कक्कू, धपली, हरपाल और उसका परिवार ठगे से वहीं रह गए । उनको शादी की उमंग का अहसास ही नहीं हुआ, मानो किसी मैरिज होम वाले हो और उनके यहां शादी समारोह हुआ हो दो दिन बाद मैरिज होम खाली। इस विवाह समारोह कार्यक्रम ने कक्कू और हरपाल को आत्मिक रूप से तोड़ दिया। उम्मीदों की किरण कहीं अंधकार में डूबती सी नजर आने लगी । सपनों की दुनिया मानो उजड़ गई थी। हकीकत का सामना करने की हिम्मत टूट चुकी थी । किसी बागवान की भांति, जिसने खून पसीना कर, अपना सब कुछ दाव पर लगाकर बाग तैयार किया हो और किसी तूफानी झक्कड़ से सारे पेड़ पौधे उखड़ गए हो । हरपाल की मनोदशा बिल्कुल वैसी ही थी। धीरे-धीरे रामपाल, धनपाल ने गांव आना बिल्कुल कम कर दिया। जब आते तभी कक्कू और हरपाल तीन बीघा जमीन का रोना रोने लगते, जिसमें उनको कोई विशेष रूचि नहीं थी । हरपाल ने तो जैसे सब्र ही कर लिया था और दोनों से कुछ कहना ही छोड़ दिया था। अब वह ब्याज भी नहीं चुका पता था , इसलिए उसने जमीन का खोना तय मान लिया था, लेकिन कक्कू अड़ जाते और दोनों को भला-बुरा कहते, जिसका शायद ही उन पर कुछ असर पड़ता। कक्कू बहुत बीमार रहने लगा। गांव में दवा- दारू से कुछ राहत नहीं मिली तो हर पाल ने रामपाल के पास शहर जाकर बड़े अस्पताल में दिखाने की हिम्मत जुटाई। जैसे- तैसे पता पूछते हुए उसके घर पहुंचे, तो रामपाल ने बड़े अस्पताल में दिखाने की योजना बनाई , किंतु कक्कू मन में कुछ और ही ठानकर रामपाल के पास गए थे,बोले, - " भाई रामपाल, म्हारी दवा- दारू तो फेर देख लीज्यो, पहले सेठ जी को करज चुकाबा की सोच, और जीते जी म्हारी जमीन सेठ जी सू छुड़वादे।"। " कक्कू, जमीन कहां जा रही है, पहले स्वस्थ तो हो जाओ, जमीन भी छूट जाएगी।"। "णा भाई, अब घणी जीवा की वांछा कौनी है, आखिरी सांस लेबा सू पहली, मैं जमीन लेकर हरपाल को सौंप दूं , नहीं तो मरबा पाछे भी म्हारी आत्मा दुख पावेगी।"। "कक्कू पहले इलाज करवा लो, फिर देख लेंगे ।"हरपाल बोला। "णा भई णा, मैं कोई दवा णा लूंगा, णा यहां सू जाऊंगो, या रामपाल का घर पर ही मरूंगो, जब तक जमीन ना छूट जावे और सारो करजो णा चुका देवे।" रामपाल का सिर चकरा गया । ऐसा रूप तो उसने कक्कू कभी नहीं देखा था। अब उसे कोई बहलाने का उपाय नहीं सूझ रहा था। बोला,-" मुझे थोड़ा सा वक्त दे दो , तुम दवा लेकर गांव चलो चले जाओ ,कुछ रुपए का भी इंतजाम कर दूंगा और जल्दी ही मैं और धनपाल जमीन छुड़ाने की व्यवस्था करते हैं।"। " ठीक है भाई करो इंतजाम, जब तक मैं यहीं पड़यो रहूंगो, मुझे कोई दवा की जरूरत कोनी, मैं भीतर सूं मर रहयो हूं रामपाल!" " अरे कक्कू, ऐसा क्यों कहते हो रामपाल सही कह रहा है , कुछ तो वक्त चाहिए ना, रुपयों की व्यवस्था करने के लिए, जब तक तुम दवा दारू तो शुरू करो।" हरपाल बोला । "क्यों दिखावा करते हो भाई साहब, यूं कहो ना तुम कक्कू को यहां लाए ही इसलिए हो ,दवा-दारु तो बहाना है।" हरपाल के हृदय में मानो रामपाल के शब्दों ने कोई बड़ा सा छिद्र कर दिया । शब्द मुंह से नहीं निकल सके सिर्फ इतना बोला, - "कक्कू, यदि अस्पताल चलना है तो चलो वरना मेरे साथ गांव चलो, नहीं तो मैं जा रहा हूं ।" कक्कू ने तो मानो पहले ही अंतिम निर्णय कर लिया था और हर पाल गांव लौट गया । अब रामपाल के पास कोई रास्ता नहीं था, इस जिल्लत से पीछा छुड़ाने का ।उसने धनपाल को सारा वृत्तांत बता कर बुला लिया, आखिर दोनों को रुपयों का इंतजाम करना पड़ा, फिर औपचारिक रूप से कक्कू को अस्पताल में दिखाकर दवाई ली और दोनों भाई कक्कू को लेकर गांव आए। सेठ जी का सारा कर्ज चुकाया और तीन बीघा जमीन का टुकड़ा वापस दिलवाया। कक्कू बोले,- " बेटा हरपाल तेरे लिए घणों कुछ ना कर पायो, अब या जमीन तेरी और तेरा बाड़कान की । रामपाल और धनपाल को या की जरूरत कोनी, वैसे भी दोनों नौकर होग्या और बड़ा भी, इणसे ज्यादा उम्मीद भी मत राख ज्यों।" हरपाल चुप था, किंतु रामपाल बोला,-" कक्कू , यह क्या कह रहे हो ? जमीन पर हमारा भी बराबर का हक है, छुड़वायें हम और जमीन हरपाल की?"। " तेने छुड़वा के, कांई एहसान करयो है भाई, करजो भी तो तेरी पढ़ाई को ही है ।" "कर्ज तो बहनों की शादी से चला आ रहा है, कक्कू और फिर हमने ही तो चुकाया है।"। " कक्कू रहने भी दो, भगवान जैसा चाहेगा रह लूंगा, इतना सहा है ,अब तो आदत हो गई है, सभी का हक है।" हरपाल बोला। " णा भाई मां, जमीन तो हरपाल की ही रहेगी और तुम दोंनू थोड़ी शर्म करो, या का बाड़क कांई भीख मांगेगा ।" कक्कू थोड़ा आवेशित हो गया । रामपाल चुप हो गया, फिर थोड़ा रुक कर बोला,- " ठीक है कक्कू, लेकिन आज से बहन- बेटी के भात-पेज की सारी जिम्मेदारी, यारी रिश्तेदारी सारी भाई हरपाल के जिम्में, जमीन हमको ना चाहिए ।" "यह बात सही कह रहा है रामपाल भाई साहब।" धनपाल बोला । इस तरह तीन बीघा जमीन का मामला तय हो गया । रामपाल और धनपाल शहर लौट गए। हरपाल यूं ही अपनी गृहस्थी में हाड़ -मांस खपाता जा रहा था। कक्कू अब बहुत बीमार रहने लगा, किंतु फिर कभी दवा लेने, इलाज के लिए शहर नहीं गया। जानता था कि हरपाल के पास पैसे नहीं है और रामपाल , धनपाल के दरवाजे पर पैर नहीं रखना चाहता था । उन्होंने भी कक्कू या हरपाल के बारे में जानने की कभी चेष्टा नहीं की। दोनों भाई वापस गांव नहीं लौटे थे । आखिर रेवड़ा का अंतिम दिन आ गया । अंतिम सांस लेने से पहले पैरों में बैठे हरपाल से बोला, - " बेटा हरपाल हो सके तो म्हाकू माफ करयो, या जीवन बड़ा रंग दिखायो, तैने जिनकू अपणी जिंदगी दांव पर लगाके पढ़ायो- लिखायो, वा तेरा ना तेरा हुया, तेरा कांई वो म्हारा भी ना होया और कोई उम्मीद मत राख ज्यों, बेटा, हार ज्यो मत ,हमने विधाता सू एसो ही लिखायो है, हो सके तो तेरा बाड़कन कू अच्छा हूं पढ़ा ज्यो, तेरी मां को ख्याल राख ज्यों, अच्छा दिन आबा को तो पतो कोणी, पण भगवान सुणेगो तेरी भी कांई, बेटा तेरे ऊपर ही कांई चैन से मर रहयो हूं, अपणों ध्यान राख ज्यो।" हरपाल पैरों को दबाते हुए कातर निगाहों से कक्कू को देख रहा था, बोला, " कक्कू ऐसा क्यों बोल रहे हो, अभी तुम्हें और जीना है, अपनी रुकमणी (हरपाल की बड़ी बेटी) का ब्याह तो देखना है ।" कमली और धपली की आंखों में पानी छलक रहा था, चुपचाप बेवशी के आंसू बाहर आई थी। और कक्कू ने अंतिम सांस ले ली। रामपाल और धनपाल भी दाह संस्कार में आ गये थे, समाज को ब्रह्मभोज कराने की बात चली, किंतु रामपाल , धनपाल ने रुपए देने से मना कर दिया क्योंकि वह पहले ही यह जिम्मेदारी जमीन का मामला निपटाते समय हरपाल को दे चुके थे । हरपाल के पास पैसा कहां था और कर्ज लेने की हिम्मत भी नहीं बची थी। इसलिए केवल 12 ब्राह्मणों को भोज कराया गया। दोनों वापस चले गए। फिर एक दिन धनपाल की शादी का कार्ड आया , जिसे देखकर हर पाल की आंखें छलक गई और मां धपली फूट-फूट कर रोने लगी । हरपाल जाना तो नहीं चाहता था , लेकिन मां की भावनाओं को समझता था, इसलिए मां को लेकर दूर के रिश्तेदारों की तरह शादी में शामिल हुआ । बच्चों और पत्नी ने साफ मना कर दिया था । हरपाल के बच्चे बड़े हो गए थे। रुक्मणी के विवाह की चिंता सताने लगी । 12वीं पास किए दो वर्ष हो गए थे , आगे शहर में पढ़ाने की हरपाल की क्षमता नहीं थी । फिर सोचा साल दो साल में विवाह करना पड़ेगा ,कहां से पैसे आएंगे ? आखिर रिश्ता तय कर दिया, किंतु घर में फूटी कौड़ी नहीं। क्या करें ? कहां जाए? हरपाल को कुछ सूझता नहीं था। जमीन दोबारा गिरवी रखने की सोची, किंतु भली भांति जानता था कि वह ब्याज भी नहीं चुका पाएगा और जमीन यूं ही चली जाएगी। जमीन को मां की भांति समझता था , बेचने की सोची लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था, ऊपर से कमली के बोल और ताने उलहाने उसके ह्रदय को छलनी किए जाते थे, आखिर उसने जमीन बेचने का निर्णय कर लिया, किंतु वह अभी तक कक्कू के नाम से थी, बेचने में बहनों के अलावा रामपाल धनपाल के हस्ताक्षर भी होने जरूरी थे। हरपाल को उनके पास जाना पड़ा और अपनी बात कही , तो दोनों भाई एक सुर में बोले, - " देख भाई हरपाल, जमीन तुझको खाने- कमाने के लिए दी है, बेचने के लिए नहीं बेचोगे तो हम भी हिस्सा लेंगे।"। हरपाल सन्न रह गया कि जिनके लिए अपना जीवन स्वाहा कर दिया , उन्होंने झूठे भी मदद का आश्वासन नहीं दिया , बल्कि अपने शब्दों से मुकर कर जमीन के पैसों पर लालची निगाह गड़ा दी । जी मैं तो आया कि उनका सिर फोड़ दे और खुद भी मर जाए , लेकिन बच्चों की कल्पना कर धैर्य रखा और चुपचाप सोचता हुआ वापस लौट आया। जमीन के भाव भी बढ़ गए थे आकर सेठ जी के पास गया और ₹50000 लेकर गिरवी रखा और बेटी का विवाह संपन्न कर दिया। विवाह उपरांत आज कच्चे कोठे(कक्ष) की छत पर रात्रि को सोता हुआ आकाश को निहार रहा था, लाखों तारे टिमटिमा रहे थे, लेकिन रात्रि के अंधकार को दूर नहीं कर पा रहे थे, उसे आकाश बिल्कुल शून्य की भांति नजर आ रहा था, इस अंधेरी रात की तरह उसकी जिंदगी कितनी काली थी, कि कभी अंधकार छट ही नहीं पाया, उम्मीदों पर जीता रहा जो कभी पूरी नहीं हुई , उस समय कहीं विधाता को खोज रहा था जिसने उसके जीवन की ऐसी दयनीय पटकथा लिखी थी, उससे पूछना चाहता था कि उसका क्या कसूर था? क्या उसने पूरी मेहनत और ईमानदारी से काम नहीं किया? रामपाल धनपाल और जमीन के बारे में सोच कर हृदय भर आता था। आज भी उसे इंतजार है कि काश! फिर वह दिन आ जाएगा जिस दिन सेठ जी का कर्ज चुक कर जमीन उसकी होगी।