Mujahida - Hakk ki Jung - 17 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 17

Featured Books
  • The Omniverse - Part 6

    அடோனாயின் கடந்த காலம்அடோனா திரும்பி தனது தோற்றத்தின் ஒரு மறை...

  • The Omniverse - Part 5

    (Destruction Cube) அழித்த பிறகு,ஆதியன் (Aethion) பேய்கள் மற்...

  • The Omniverse - Part 4

    தீமையின் எழுச்சி – படையெடுப்பு தொடங்குகிறதுதற்போது, டீமன்களு...

  • அக்னியை ஆளும் மலரவள் - 12

     மலரியின் அக்கா, ஸ்வேதா வருவதைப் பார்த்து, “நீயே வந்துட்ட, எ...

  • அக்னியை ஆளும் மலரவள் - 11

    “நீ கோபப்படுற அளவுக்கு இந்த ஃபைலில் அப்படி என்ன இருக்கு?” என...

Categories
Share

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 17

भाग 17
नुसरत ने आते ही शबीना के हाथ से काम ले लिया, जिसे वह तल्लीनता से कर रही थी। वह सेवईयों के लिये मेवें काट रही थी। नुसरत ने अपने हाथ से खिसका कर प्लेट अपनी तरफ कर ली और खुद मेवें काटने लगी, शबीना मुस्कुरा कर किचिन के दूसरे काम निबटाने लगी। नुसरत ने कई बार कहा- "भाभी देखना राज करेगी हमारी फिज़ा।" इस बात पर शबीना मुस्कुरा भर दी। उसे लगा था कहीँ नजर न लग जाये और फिर नुसरत के बड़बोलेपन से भी गुरेज था उसे, वह जानती थी नुसरत को छोटी से छोटी बात जताने की आदत है। इसलिये वह चुप ही रही।
बातों ही बातों में नुसरत ने बता दिया था कि 'ज़हेज का सामान भले ही कम हो मगर महँगा हो, उम्दा क्वालिटी का हो।' शबीना ने भी कह दिया- "नुसरत हम अपने जानिब से सब बढ़िया ही कर रहे हैं। बाकि जैसी खुदा की मर्जी, वह जैसा करवायेगा हम करेंगे।"
"आप ठीक कह रही हो भाभी जान, हम जानते हैं आपका दिल कितना बड़ा है? इसमें कोई शक सुब्हा नही है फिर भी हमने तो बस आगाह किया है। उधर आरिज़ भी शौकीन मिजाज है। वह फिज़ा को भी कोई कमी नही होने देगा। बस हमारा तो कहना इतना भर है कि हमारी कहीँ-से-कहीँ तक गिरनी नही चाहिये।" नुसरत ने यकीन से कहा।
"नुसरत, हमें यकीन है वो लोग यकीनमंद लोग हैं। फिज़ा की इच्छाओं की कद्र करेंगे। आरिज़ की तालीम के बारे में और हमें ये भी यकीन है कि वह फिज़ा की सी.ए. की तालीम की भी कद्र करेगा और उसे आगे बढ़ने से नही रोकेगा।" शबीना ने भी उतने ही यकीन से जवाब दिया।
दोनों ही खुश थीं। यकीनमंद थीं। अगर न होती तो ये रिश्ता भी न होता। फिज़ा की तालीम, उसके ख्वाब, शबीना की जिन्दगी में बहुत अहमियत रखते थे। इसीलिये वो हर बार फिज़ा के लिये तर्सज़दा हो जाती थी।
दो-चार मर्तबा फोन पर आरिज़ से शबीना की बातचीत हो चुकी थी और इसीलिये वह आरिज़ के अख़लाक़ से बहुत मुतास्सिर थी। इतनी ज्यादा कि वह आरिज़ की तारीफ हर किसी से करने लगी थी। फिज़ा के नसीब पर फक्र करने लगी थी।
नुसरत ने बताया - "भाभी जान, आरिज़ फिज़ा से मिलना चाहता है।"
"नही-नही नुसरत, फिज़ा के अब्बू को ये कभी भी मंजूर नही होगा और हम उनके खिलाफ जाकर कोई भी काम नही कर सकते।" शबीना ने सिरे से बात को नकारते हुये कहा।
"ठीक है भाभी जान, मैं कह देती हूँ आरिज़ से। वैसे तो हमने भी उसको यही बोला था, फिर भी सोचा एक बार आपसे बात कर लूँ।" नुसरत ने यूँ तो उनकी बात से रजामंदी जताई थी मगर अन्दर ही अन्दर उसे ये फिक्र सता रही थी कि कहीं आरिज़ नाराज़ न हो जाये और उसके सामने उसकी किरकिरी न हो जाये, कि नुसरत कि बात की अपने मायके में कोई कीमत नही है।
नुसरत जिस काम से आई थी वह तो नही हुआ लिहाजा वह चली गयी। चूकिं उसका घर ज्यादा दूर नही था इसलिये शबीना ने रिक्शा मँगवा दिया था। जाते-जाते नुसरत फिज़ा के वो सभी दुपट्टे भी साथ ले गयी जिन पर पिको और तुरपाई होनी थी। शबीना को भी ऐसा करके कुछ बोझ हल्का लगा था। नुसरत बेशक शादी होकर अपने घर चली गयी थी मगर मायके से उसका लगाव कम नही हुआ था। खान साहब ने अपनी दोनों बहनों को एक भाई नही बल्कि वालदेन की तरह प्यार दिया था। जिसका अहसास उसे था। शबीना के काम में हाथ बँटा कर नुसरत को बहुत अच्छा लगा था।
अमान ने अपने लिये महरुन रंग की शेरवानी पसंद की थी और वह जब से लेकर आया था कई मर्तवा उसे लगा कर देख चुका था। इससे पहले कभी शेरवानी नही पहनी थी उसने, इसलिये वह इसे लेकर बहुत जोश में था।
पूरा घर सज गया था। तैयारियां भी अमूमन पूरी हो चुकी थी। फिज़ा ने भी आज पारलर जाकर प्री ब्राइडल लिया था। ब्लीचिंग, बैक्सिग, हेयर स्पा, फेशियल और जाने क्या-क्या। सब ब्यूटि एक्सपर्ट ने अपने हिसाब से किया था। उसके दोनों हाथों पर मेहँदी लग गयी थी, जिससे वह और भी खूबसूरत दिखाई दे रही थी। चेहरे पर लाज और जिस्म में नजा़कत, निकाह से पहले की खुशबू महक रही थी।
ज्यादातर मेहमान आ चुके थे। बच्चों का शोर, कभी मेहमानों की मेहमाननवाजी तो कभी फूल वालों, बैंड वालों का आना-जाना लगा हुआ था। कैटर भी बाहर से बुलाये गये थे। हर चीज का इन्तजाम उम्दा किस्म का था। मुमताज खान को फिक्र थी तो इस बात की, आखरी वक्त में कोई कमी न रह जाये। अपने जानिब से वो जी जान से लगे हुये थे।
शादी का दिन आ ही गया था। अभी तक तो वह खुश थी ख्यालों में खोई हुयी थी मगर शादी का दिन आते ही उसे घबराहट होने लगी थी। सुबह से ही फिज़ा अफ़सुर्दा थी। आज उसे वाकई अपने वालदेन को छोड़ कर जाने का अहसास होने लगा था। जिससे उसका दिल भरने लगा। कभी उसका दिल आरिज़ से मिलने को बेकरार हो जाता तो अगले ही पल अम्मी, अब्बू और अमान को छोड़ने का गम उसे गमजदा कर देता। हर लड़की की जिन्दगी में ये इम्तहान का वक्त आता है जहाँ से वो पीछे देखती है तो उसे अपनी जड़े छूटती दिखाई पड़ती हैं और आगे एक अनजान रास्ता होता है जिस पर उसे बस चलना होता है। किसी के पीछे-पीछे। मंजिल कैसी होगी? ये उसे नही पता होता।
वक्त आ गया था। फिज़ा दुल्हन के रानी रंग के जोड़े में बहुत खूबसूरत लग रही थी। एकदम जन्नत की हूर।
बड़े ही शानोशौकत से निकाह पढ़ा गया। पूरे शहर में इस शादी की चर्चा हो रही थी। लोग दाँतो तले ऊँगली दबा रहे थे। हर तरफ उनकी शानो-शौकत और लजीज खाने के चर्चे थे। शादी में करीब पन्द्रह सौ लोगों का इन्तजाम था। मुर्ग मुसल्लम और कबाब के लिये हैदराबाद से खानसामे बुलाये गये थे। इसके अलावा शहर के सबसे मँहगे और तारीफे काबिल खानसामें भी शामिल थे। तो दूसरी तरफ शाकाहारी खाने का भी उम्दा इन्तजाम था। सजावट देख कर किसकी आँखें नही चुँधिया थी? मुमताज खान ने अपनी दौलत पानी के माफिक बहाई थी। जिस लान में शादी का इन्तजाम था वह सबसे बड़ा और शानदार लान था। हर किसी के बस का नही था उसे लेना। बहुत सारे लोग तो इसलिये भी आये थे कम-से-कम इस शादी में शरीक होने के बहाने वो शहर के इस शानदार लाॅन को भी देख लेगें।
ये शादी कोई आम शादी नही थी। शहँनशाही शादी थी। जहाँ दौलत और मेहमान नवाजी दिल खोल कर लुटाई गयी थी।
विदाई का वक्त आ गया था और सभी खूब रोये थे। नुसरत फूफी, चमन खाला, अमान और शबीना जार-जार रोये। ननिहाल से मामू जान जो फिज़ा को बहुत चाहते थे, आँखों में आँसू भर-भर घूमें थे। मगर खान साहब की आँखों से आँसू का एक कतरा भी न निकला। वह तो गुम से हो गये थे। जितना मुश्तैदी से उन्होने काम किया था फिज़ा के जाते ही उतने ही निढ़ाल हो गये थे। अन्दर ही अन्दर उन्हें फिज़ा के जाने का गम सता रहा था।
विदाई भी हो गयी।
फूलों से सजी हुई सफेद रंग की सिडान गाड़ी से उतर कर फिज़ा ने अपने नये घर में कदम रखा था। यह गाड़ी मुमताज खान की ख्वाहिश का नतीजा थी और आरिज़ मियाँ की चाहत भी थी। इसीलिए इसको बुक करवाते वक्त आरिज़ का ही नाम दिया गया था।
ऊँची हील के सुनहरे सैंडिल में फिज़ा के पैर थकने लगे थे, लिहाजा घर की औरतों ने उसे अन्दर जाकर कुछ देर आराम करने का मशवरा दिया। उसे एक ऐसे कमरें में ले जाया गया जो अन्दर की तरफ था और एकदम एकान्त में। जैसे ही वह उस सामान से भरे हुये बड़े से कमरें में पहँची, छोटे-छोटे बच्चों ने उसे घेर लिया। सब के सब उसे देख कर खुश हो रहे थे। कोई उसे भाभीजान पुकार रहा था तो कोई चाची जान। उनका इस तरह प्यार से पुकारना फिज़ा को बहुत अच्छा लगा। वह आहिस्ता से जमीन पर बिछे हुये गद्दो पर बैठ गयी। सबसे पहले उसने सैंडल उतार कर फेंके उसके बाद दुपट्टा भी सरका दिया। दर असल इतना भारी भरकम शरारा और जेवर उसे सँभालना मुश्किल हो रहा था ऊपर से रात भर जागने की थकान थी सो अलग। वह सभी बच्चे उसके इर्द-गिर्द बैठे हुये थे। कोई उससे सट कर बैठा था तो कोई उसके दुपट्टे को छूने का ख्वाहिश मंद लग रहा था। नये सजे धजे मेहमान से नज़दीकी की चाहत लाजमी थी। फिज़ा भी उनमें घुल मिल गयी।
क्रमश: