Wajood - 28 in Hindi Fiction Stories by prashant sharma ashk books and stories PDF | वजूद - 28

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वजूद - 28

भाग 28

अविनाश आनन-फानन में अपने अधिकारी से कहता है कि उसे एक जरूरी काम आ गया है, इसलिए वो अगली ट््रेन से आ जाएगा। इतना कहने के बाद वो तुंरत ही स्टेशन से बाहर निकलता है और दुकानदार द्वारा बताई जगह पर पहुंचता है। अविनाश दुकान पर पहुंचते ही दुकानदार से पूछता है कहां है वो आदमी ?

दुकानदार उसे एक बेंच की ओर इशारा करते हुए कहता है कि वो बैठा है साहब।

पर वहां कोई नहीं था।

दुकानदार ने फिर कहा अरे अभी तो यही बैठा था अचानक कहां चला गया ?

अविनाश ने कहा अरे जल्दी बताओ कहां गया वो ?

पता नहीं साहब अभी पांच मिनट पहले तो यही बैठा था। आपका इंतजार करते हुए मैंने उसे दो समोसे और दे दिए थे, ताकि वो यहां बैठकर खाता रहे, पता नहीं अब कहां गया ? दुकानदार ने कहा।

अच्छा ये बताओ कितनी देर पहले उसे देखा था ? अविनाश ने फिर दुकानदार से प्रश्न किया।

साहब 4 या 5 मिनट हुए होंगे। मेरी दुकान पर अचानक पांच लोग आ गए और मैं उन्हें सामान देने लगा। इतनी सी देर में पता नहीं कहां गया वो ? दुकानदार ने फिर कहा।

अविनाश शंकर को तलाश करने के लिए एक ओर चला गया। उसने उसे काफी तलाश किया पर शंकर एक बार फिर उसकी पहुंच से दूर हो गया था। देर शाम तक अविनाश शंकर को तलाश करता रहा फिर वह निराश होकर लौट गया। स्टेशन पहुंचकर उसने अपनी ट््रेन पकड़ी और फिर चला गया। ट््रेन में बैठे-बैठे वो सोच रहा था कि शंकर उसकी आंखों के सामने था फिर भी वो उसे अपने साथ नहीं ला सका। चंद घंटों के समय के बाद वो अपने पुलिस थाने पहुंच चुका था। उसमें दिमाग में अब भी शंकर की बात ही घूम रही थी। शंकर की जो हालत उसने देखी थी वो उसकी आंखों के सामने से हट नहीं थी। वो बार-बार एक ही बात दोहरा रहा था शंकर कहां चले गए तुम। तुम मेरे सामने थे पर मैं तुमसे मिल भी नहीं पाया। काश उस वक्त मैंने जीप रूकवा ली होती तो इस समय तुम मेरे साथ होते।

अविनाश चाह कर भी उस पल को भूल नहीं पा रहा था और वो शंकर के लिए काफी दुखी भी हो रहा था। एक बार फिर शंकर उसी शहर में पहुंच गया था। करीब पांच दिनों तक उसने शंकर को उस शहर की लगभग हर सड़क पर तलाश किया था पर इस बार भी अविनाश को निराशा ही हाथ लगी थी। शंकर उसे नहीं मिला था। अब वह यह सोच रहा था कि हो सकता है शंकर किसी दूसरे शहर या गांव में चला गया हो। इसलिए पांच दिन बाद वो फिर से अपने शहर लौट आया था।

अविनाश का अंदाजा लगभग सही था। शंकर उस शहर को छोड़ चुका था और पास के ही एक शहर में पहुंच गया था। इन कुछ दिनों में शंकर की हालत और भी ज्यादा खराब हो गई थी। उसके शरीर पर चोटों के निशान तो थे ही अब वो और भी कमजोर नजर आ रहा था। कुछ देर चलने के बाद ही वो बैठ जाता था। थकान कुछ कम होने के बाद वो फिर से चलने लगता था। खाने की दुकान देखकर वो वहां खाने की मांग करता था कोई उसे डपटकर भगा देता था तो कोई उस पर तरस खाकर कुछ दे देता था। शंकर के शरीर में अब इतनी ताकत नहीं बची थी कि वो सामान चुराकर भाग सके, इसलिए अब वो मांगकर ही अपना गुजारा कर रहा था। रात होने पर सड़क पर ही कहीं भी सो जाता था और सुबह होते ही वो फिर से चलने लगता था।

ऐसे ही रूकते चलते मांग कर कुछ खाते, रात सड़कों पर बिताते हुए वो अपने गांव की दिशा की ओर ही बढ़ रहा था। इस दौरान वो कुछ गांवों से भी होकर गुजरा था। गांव के लोगों ने उसकी कुछ मदद भी की थी मतलब उसे पीने के लिए पानी दिया, खाने को भरपेट भोजन भी दिया। किसी ने उसे ओढ़ने के लिए कंबल दिया तो किसी ने पानी की बोतल दे दी थी। किसी ने उसे पुराने कपड़े भी दिए। शंकर ने एक बड़े से थैले में यह सारा सामान रख लिया और फिर चल पड़ा था।

कोई 15 दिन गुजर चुके थे। शंकर हर कदम के साथ अपने गांव की ओर बढ़ रहा था। शायद शंकर अब उस रास्ते को पहचान नहीं पा रहा था, यदि पहचानता तो शायद वो उस नहीं आता। या हो सकता है कि उसे अपने गांव, अपने भैया हरी और भाभी कुसुम की याद आ रही हो इसलिए वो अपने गांव की ओर आ रहा था। शंकर इतना कमजोर हो चुका था कि लगभग हर 100 मीटर की दूरी पर वो बैठ जाता था। इस कारण उस शहर से उसके गांव का रास्ता लंबा होता चला जा रहा था।

दूसरी ओर अविनाश अब भी शंकर के लौट आने का इंतजार कर रहे थे। वहीं गांव के लोग अब शंकर को लगभग पूरी तरह से भूला चुके थे। अब किसी काम के लिए वे लोग शंकर को याद नहीं करते थे। गांव अब उस तबाही के बाद पूरी तरह से सामान्य हो चुका था। शंकर काफी दिनों तक चलने के बाद आखिरकार अपने गांव के पास आ पहुंचा था। उसे गांव के बाहर वहीं बड़ा शंकर जी का मंदिर नजर आया। उसने एक बार गांव की ओर देखा और फिर मंदिर की ओर देखा। फिर मंदिर में अपनी उसी पुरानी जगह पर जाकर बैठ गया था। कुछ ही देर में थकान के कारण उसे नींद लग चुकी थी।

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