Andhayug aur Naari - 2 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | अन्धायुग और नारी--भाग(२)

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अन्धायुग और नारी--भाग(२)

वो अपनी सखियों संग नृत्य करने मंदिर के मंच पर आई और मैं उसकी खूबसूरती को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया,फिर उसने जब नृत्य करना प्रारम्भ किया तो वहाँ उसे देखने वाले जितने भी पुरूष थे वें अपनी पलकें ना झपका सकें,चूँकि उस जमाने में घर की स्त्रियाँ को इन सब समारोह में शामिल नहीं किया जाता था, स्त्रियों के लिए ऐसी जगहें ठीक नहीं मानी जातीं थीं,ऐसी जगह केवल पुरूषों की अय्याशियों का ही अड्डा होतीं थीं,क्योंकि पुरुष यहाँ आकर अपनी मनमानियांँ कर सकते थे और जब कोई रोकने टोकने वाला ना हो तो पुरूष स्वतन्त्र होकर अपने भावों का प्रदर्शन करते थे....
तो अन्य पुरुषों की भाँति मैं भी उसका नृत्य एकाग्रचित्त होकर देख रहा था,मैं सच कहूँ तो अपनी सत्रह बरस की आयु तक मैंने कभी इतनी सुन्दर स्त्री नहीं देखी थी ,उसके अंग प्रत्यंग से मधु टपक रहा था और मेरे चाचा सुजान सिंह की तो उसे देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं थीं,उसने वस्त्र ही कुछ इस प्रकार के धारण किए थे जिससे कि वो और भी अधिक कामुक लग रही थी,मैं और मेरे चाचा सुजान सिंह हम दोनों सबसे आगें वाली पंक्ति में ही बैठे थे तो हम उसे और भी अच्छी तरह देख सकते थे,उसकी भाव-भंगिमाएंँ सच में मोहित करने वालीं थीं,वो बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रही थी लाल रंग के परिधान में,दोनों गालों को उसके बालों की लम्बी लम्बी लटें छू रहीं थीं,कानों में झुमके,गले में सात लड़ियों वाला मोतियों का हार था,बाजुओं में मोतियों के बाजूबन्द,कलाइयों में सोने की चूडियाँ,पतली कमर जो खुली हुई थी और नाभि को छूती हुई एक पतली सी सोने की कमरबंद पहन रखी थी उसने,उसके महावर लगे पैंरों में घुँघरू बँधे थे,
उस देवदासी की भाव भंगिमा देखकर सब हतप्रभ थे,वो मोरनी की तरह थिरक रही थी,बिजली सी स्फूर्ति थी उसके भीतर और नृत्य करते समय जो तेज उसके मुँख पर चमक रहा था वो उसके भीतर के आत्मविश्वास को दरशा रहा था,वो देवदासी केवल देवों के लिए नृत्य नहीं कर रही थी,वो वहाँ मौजूद उन सभी पुरूषों के लिए नृत्य कर रही थी,जिनमें से कोई ना कोई उसे आज रात पसंद करके मंदिर के पुजारी से अनुमति लेकर अपनी वासना को शान्त करने वाला था और जब उसका नृत्य खतम हुआ तो मेरे चाचा सुजान सिंह अपनी जगह से गायब हो गए और मैं उन्हें यहाँ वहाँ ढूढ़ने लगा क्योंकि रात काफी हो चुकी थी और हवेली जाने वाला रास्ता काफी सुनसान था,मेरी अकेले हवेली जाने की हिम्मत ना थी....
तभी मैं अपने चाचा सुजान सिंह को खोजते खोजते मंदिर के पीछे वाले आँगन में जा पहुँचा,जहाँ कतार से छोटी छोटी कोठरियाँ बनीं थीं जिनके द्वार बहुत छोटे थे और उनमें किवाड़ लगें थे,ऐसा लगता था कि जैसे वें सभी देवदासियाँ उन्हीं कोठरियों में रहतीं थीं,आँगन में एक कुआँ था जो सभी उस कुएँ का पानी उपयोग में लातीं होगीं,आँगन में कोई भी दिया या मशाल नहीं जल रही थीं,अँधेरा था वहाँ,वो तो ईश्वर की कृपा थी जो चाँद की रौशनी आँगन में पड़ रही थी,जिससे मुझे डर नहीं लग रहा था,तभी मैनें देखा एक कोठरी के किवाड़ खुले थे और वहाँ से दिए का उजियारा आ रहा था...
मैं उस कोठरी के नजदीक पहुँचा तो मुझे अपने चाचा सुजान सिंह की आवाज़ सुनाई दी,चाचा कह रहे थे....
"बहुत खूबसूरत हो तुम! पहले तो मैनें तुम्हें इस मंदिर में नृत्य करते कभी नहीं देखा",
"वो तो मुझे मालूम है ठाकुर साहब कि मैं बहुत खूबसूरत हूँ,खूबसूरत ना होती तो क्या मुझे कोई देवदासी बनाता और रही मेरे इस मंदिर में आने की बात तो मैं अभी पिछले हफ्ते ही अपने गाँव के मंदिर से यहाँ लाई गई हूँ",वो देवदासी बोली...
"वैसें नाम क्या है तुम्हारा?",मेरे चाचा सुजान सिंह ने पूछा....
तब देवदासी बोली...
"मेरा नाम मेरे माता पिता ने ना जाने क्या रखा था,क्योंकि ना तो मुझे मेरे माता पिता याद हैं और ना ही उनका दिया हुआ नाम मुझे याद है,वें मुझे पाँच साल की उम्र में ही गाँव के मंदिर में छोड़ गए थे,ना जाने उनके ऊपर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी जो उन्होंने मुझे मंदिर में देवदासी बनाकर छोड़ दिया,तो मंदिर के पुजारियों ने मुझे नृत्य की शिक्षा दिलवाकर पूर्ण देवदासी बना दिया और उन्होंने मेरा नाम तुलसीलता रख दिया,तब से सब मुझे इसी नाम से पुकारते हैं",
"बहुत अच्छा नाम है तुम्हारा",मेरे चाचा सुजान सिंह बोले...
"ये सब छोड़िए ठाकुर साहब! पहले ये बताइए कि आप यहाँ किसलिए आए हैं,बिना मतलब के देवदासी के द्वार पर कोई पुरूष अपने पग नहीं धरता",तुलसीलता बोली.....
"अब तुम पूछ ही रही हो तो अपने मन की बात मैं कहे ही देता ,तो बताओ आज रात मेरे साथ मेरी हवेली चलोगी",मेरे चाचा सुजान सिंह ने तुलसीलता से पूछा...
"वो क्यों भला"?,तुलसीलता ने पूछा...
"अब इतना भी मत बनो,तुम तो ऐसे जता रही हो जैसे कि तुम्हें कुछ मालूम ही नहीं है",मेरे चाचा सुजान सिंह बोले....
"इसमें बनने वाली क्या बात है ठाकुर साहब! हर चींज का दाम होता है तो वैसें ही मेरे इस यौवन और रूप का कितना दाम लगाते हैं आप,वो दाम दे पाऐगें आप मुझे जो मैं माँगूगीं",तुलसीलता बोली...
"मुझसे दाम की बात कर रही हो तुलसीलता!,मैंने ना जाने कितनी ही हुस्न की मलिकाओं को दाम देकर खरीदा है ,फिर तुम क्या चींज हो,तो बताओ क्या दाम है तुम्हारे इस यौवन और रूप का,जरा मैं भी तो सुनूँ",चाचा सुजान सिंह बोलें...
"तो क्या आप मुझे सदैव के लिए अपनी दुल्हन बना सकते हैं",तुलसीलता बोली...
"ये कैसीं बातें कर रही हो?,तुम जैसी जूठन को मैं अपनी जीवनसंगिनी बना लूँ,जो ना जाने किस किस पुरुष के साथ अपनी रातें गुजारती है,कहीं दिमाग़ तो खराब नहीं हो गया है तुम्हारा",चाचा सुजान सिंह बोलें...
"बस! इतनी सी बात पर मुझसे इतना बिगड़ गए आप,मैं तो केवल मज़ाक कर रही थी,अरे! मज़ाक भी नहीं समझते आप!",तुलसीलता बोली...
"अगर ये मज़ाक था तो ठीक है माँफ करो मुझे,तो बोलो चलोगी मेरे साथ मेरी हवेली,केवल मुझे अपनी एक रात दे दो,मैं तुम्हें मुँहमाँगें दाम दूँगा",चाचा सुजान सिंह बोलें....
"जी! तो चलिए,मैं तैयार हूँ,लेकिन दाम आपको अभी और इसी वक्त चुकाने होगें",तुलसीलता बोली...
"हाँ...हाँ...क्यों नहीं"
और फिर ऐसा कहकर चाचा सुजान सिंह ने नोटों का बण्डल तुलसीलता को दे दिया,फिर तुलसीलता ने उस नोटो के बण्डल को अपने लोहे के सन्दूक में रखकर उसे ताला लगाया और उसकी चाबी अपने साड़ी के पल्लू में बाँध ली और जब मुझे लगा कि वें दोनों बाहर निकलने वाले हैं तो मैं कुएँ की चारदीवारी की ओट में दूसरी तरफ जाकर छुप गया,जहाँ से वें दोनों मुझे नहीं देख सकते थे फिर दोनों कोठरी से बाहर आए और तुलसीलता ने अपनी कोठरी के दरवाजों पर भी ताला लगाया और उसकी चाबी भी अपने पल्लू में बाँध ली और रात के अँधेरे में वो चाचा सुजान सिंह के साथ हवेली की ओर चल पड़ी....

क्रमशः....
सरोज वर्मा...