Dwaraavati - 8 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 8

Featured Books
  • فطرت

    خزاں   خزاں میں مرجھائے ہوئے پھولوں کے کھلنے کی توقع نہ...

  • زندگی ایک کھلونا ہے

    زندگی ایک کھلونا ہے ایک لمحے میں ہنس کر روؤں گا نیکی کی راہ...

  • سدا بہار جشن

    میرے اپنے لوگ میرے وجود کی نشانی مانگتے ہیں۔ مجھ سے میری پرا...

  • دکھوں کی سرگوشیاں

        دکھوں کی سرگوشیاںتحریر  شے امین فون کے الارم کی کرخت اور...

  • نیا راگ

    والدین کا سایہ ہمیشہ بچوں کے ساتھ رہتا ہے۔ اس کی برکت سے زند...

Categories
Share

द्वारावती - 8


महादेव की आरती में घंटनाद करने के पश्चात उत्सव वहाँ से चला गया था। समुद्र के मार्ग पर चलते चलते वह उसी स्थान पर आ गया जहां उसे बाबा मिले थे। वह एक स्थान पर बैठ गया। सामने असीम समुद्र तथा उनकी लहरें। एक लयबध्ध ध्वनि उत्सव को सुनाई दे रही थी।
‘वह कहती थी कि इस ध्वनि में कृष्ण की बांसुरी की मधुर धुन है। किन्तु मुझे तो लहरों की ध्वनि ही सुनाई दे रही है। लगता है पंडित गुल असत्य कह रही हो अथवा भ्रमित कर रही हो।’
‘इसी भ्रम के कारण ही तो तुम उसे छोड़ चले आए।’
‘मुझे नहीं लगता कि उसके पास मेरे प्रश्नों का कोई उत्तर हो, मेरे संशय का कोई समाधान हो।’
‘तुमने तो उसे अपनी समस्या बताई ही नहीं। उस पर कोई चर्चा ही नहीं की। तो कैसे मान लिया कि वह तुम्हारे प्रश्नों...।’
‘मुझे उस पर श्रध्धा ही नहीं हुई।’
‘प्रयास तो करते। बिना प्रयास के ही तुम लौट आए।’
‘मैंने अनेक महात्माओं से पूछा है, अनेक विद्वानों से पूछा है। अनेक ऋषि-मुनियों से भी पुछ लिया। सब ने मुझे निराश किया है। तो इस कथित पंडित से मैं क्या अपेक्षा रखूँ?’
‘तुम्हें याद है, इसी स्थान पर तुम्हें वह बाबा मिले थे उसने कहा था कि तुम्हारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर केवल पंडित गुल के पास है। तुम उस बाबा की बात पर विश्वास क्यूँ नहीं करते?’
‘बाबा?’ उत्सव बाबा के नाम पर खुलकर हंस पड़ा।
‘यदि बाबा सत्य कह रहे होते, मेरा उचित मार्गदर्शन कर रहे होते तो इस समय वह मेरे सामने आए, मुझे विश्वास दिलाये तो मैं मानूँ।’
उत्सव तट पर बैठे बैठे सभी दिशाओं में देखने लगा। कहीं कोई नहीं था। बाबा भी नहीं थे। वह उस बाबा की प्रतीक्षा करने लगा। लंबे अंतराल के पश्चात भी बाबा नहीं आए। वह निराश हो गया। रात्रि ने अवनि पर अपना साम्राज्य रच दिया। वह समुद्र के तट पर ही निंद्राधीन हो गया।
उत्सव ने जब निंद्रा का त्याग किया तब दिवस चढ़ चुका था। सूरज अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया था। मध्धम धूप सारे समुद्र पर तथा तट पर प्रसर चुकी थी। वह जागा, उठा तथा समुद्र पर घूमने लगा। विचारों में अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने लगा। बाबा के आने की प्रतीक्षा करने लगा।
उसने मन ही मन निर्णय कर लिया,”जब तक मुझे बाबा नहीं मिलते, मैं पंडित के पास नहीं जाऊंगा।”
बाबा की प्रतीक्षा में वह दिवस भी व्यतीत हो गया। थका हुआ उत्सव भूखा ही सो गया।
एक और दिवस उग गया। उत्सव समुद्र के तट पर बाबा की प्रतीक्षा करने लगा।
‘बाबा,आप कहाँ हो? मुझे किस दुविधा में डाल दिया। ना तो आप मिलते हो ना ही मैं पंडित गुल से मिलने जा सकता हूँ। कब तक यूं ही निरुपाय रहूँ?’
उत्सव पुन: बाबा की प्रतीक्षा करने लगा। समय व्यतीत होता रहा। सूरज पश्चिम की तरफ गति करने लगा। समुद्र की ध्वनि को सुनते सुनते उत्सव को समाधि लग गई। तभी किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। उत्सव की समाधि भंग हो गई। उसने आगंतुक को देखा।
“बाबा आप? कहाँ थे अब तक?” उत्सव खड़ा हो गया।
बाबा के मुख पर असीम शांति थी, दिव्य स्मित था।
“कैसे हो वत्स?”
उत्सव ने स्मित दिया।
“तुम गुल के पास गए थे तो लौट क्यूँ आए?”
“मुझे नहीं लगता कि वह इतनी सक्षम हो।”
“तुमने उसके हाथ का भोजन लिया था ना? कैसा था वह भोजन?”
उत्सव ने कोई उत्तर नहीं दिया।
“तुम्हारे जाने के पश्चात भी उसने तुम्हारे लिए भोजन बनाया था।” उत्सव बाबा की बात सुन रहा था।
“उसे विश्वास था कि तुम भोजन के लिए तो लौट ही जाओगे। किन्तु तुम नहीं लौटे। यहाँ भूखे रहे किन्तु उस गुल का भोजन नहीं लिया तुमने।”
“मुझे भूख ही नहीं लगी।” उत्सव ने कहा।
“आज भी उसने तुम्हारे लिए भोजन बनाया है। जाओ जाकर थोड़ा कुछ खा लो।”
“बाबा,भोजन में मेरी कभी रुचि नहीं रही। मिला तो भी, नहीं मिला तो भी।”
“किन्तु तुम्हें अपने प्रश्नों में तो रुचि अवश्य होगी।”
“जी। यही तो प्रयोजन है मेरे यहाँ आने का।”
“तो भटको मत। जाओ गुल से मिलो।”
“क्या वह स्त्री मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर देगी?”
“अवश्य देगी।”
“नहीं,भारतीय स्त्री केवल भोजन दे सकती है। प्रश्नों के उत्तर,संशय का समाधान नहीं। वह ऐसी बातों को क्या जाने?”
“तुम स्त्री को कभी उचित द्रष्टि से नहीं देख पाये वत्स। यदि उसे सम्मान दे सकोगे तो ही समाधान पाओगे। भारतीय स्त्री शब्दों से समाधान नहीं देती, अपने कर्मों से देती है।”
“वह कैसे?”
“उसे इतना तो ज्ञान है ही कि किसी भी भूख से अधिक तीव्र भूख पेट की भूख होती है। ज्ञान आदि बातें भूखे पेट नहीं की जा सकती।”
“तो क्या...?”
“आज भी जब तुम जाओगे तो प्रथम तो वह तुम्हें भोजन ही देगी, ज्ञान नहीं।”
“तो ज्ञान कब देगी? कब मेरे प्रश्नों के उत्तर देगी?”
“उचित समय पर वह भी मिल जाएगा। गुल को ज्ञान है उस समय का। तुम प्रतीक्षा करो। गुल के सानिध्य में रहा करो।”
“आप गुल के विषय में पूरा ज्ञान रखते हो। क्या गुल भी आप को जानती है?”
“गुल से ही पुछ लेना। अब तुम जाओ, समय व्यर्थ नष्ट ना करो।” बाबा ने कहा और वह चल दिये। समुद्र के भीतर चले गए।
उत्सव चल पड़ा गुल के पास।