Dwaraavati - 18 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 18

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द्वारावती - 18




18

दूसरी प्रभात को गुल उस कन्दरा पर जाकर समय से पूर्व ही खडी हो गई। केशव की प्रतीक्षा करने लगी। उसके अब्बा मछलियाँ पकड़ने लगे।
ओम् के नाद के साथ केशव आया। गुल वहीं प्रतीक्षा कर रही थी। नाद सुनते ही उसने आँखें बंध कर ली। उसके भीतर आनंद की तरंगें उठ रही थी। केशव शिला पर बैठ गया। सूर्य की तरफ़ मुख रखकर, आँखें बंध कर ओम् के जाप करने लगा। समय, हवा, समुद्र की तरंगें, कन्दरा, शिला, दिशाएँ सभी एक साथ एक ही बिंदु पर केंद्रित हो गए। गुल भी।
ओम्, ओम्, ओम् , ओम्।
“तुम यहाँ हो? क्या कर रही हो? कौन है यह छोकरा?” गुल के अब्बा चिल्लाए। सभी का ध्यान भंग हुआ। एक तंतु का तार तुट गया। समय, दिशा, तरंगें सब प्रवाहित हो गए। गुल ने आँखें खोली, केशव ने भी।
“अब्बा…?” गुल के शब्द उससे आगे कुछ नहीं बोल सके। अब्बा के क्रोधित मुख को देखकर। वह भय से ग्रस्त हो गई।
“गुल, चलो घर। तुम किसी अज्ञात से नहीं मिलोगी। कल से तुम घर पर ही रहोगी।” क्रोधित अब्बा चलने लगे, गुल भी उसे पीछे पीछे जाने लगी।
“गुल, रुको। श्रीमान जी ठहर जाओ।” केशव ने कहा। दोनों रुक गए। मुड़कर देखा, दोनों हाथ जोड़े केशव खड़ा था।
“एक क्षण के लिए रुक जाइए।” केशव दोनों के समीप गया।
“क्या है?”
“श्रीमान जी, नमस्ते। मेरा नाम केशव है। मैं यहां बैठकर सूर्य के सम्मुख ओम् मंत्र का जाप करता हूँ। यह मेरा दैनिक क्रम है। गुल ने कल मेरे इस जाप को सुना, उसे पसंद आया। आज भी वह इसे सुनने यहाँ आयी थी। यदि उसे सुनकर वह प्रसन्न होती है तो इसमें क्रोधित होने की कोई बात नहीं है।“ केशव के दोनों हाथ जोड़े हुए थे।
गुल के अब्बा कुछ क्षण केशव को देखते रहे। क्या उत्तर दें वह उसे तत्क्षण नहीं सुझा। अनिर्णय की स्थिति में खड़े रह गए।
‘मैं क्यूँ इस छोकरे पर ग़ुस्सा कर रहा हूँ? इसने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। मुझे ग़ुस्सा नहीं करना चाहिए।’ वह शांत हो गए।
“तुम सही कह रहे हो। मेरे ग़ुस्से का कारण तुम नहीं हो।”
“तो क्या आज भी कम मछलियाँ मिली?” गुल ने अब्बा को देखा, “केशव, जब मछलियाँ कम मिलती है तो अब्बा ऐसे ही ग़ुस्सा, क्या कहा था तुमने, हां क्रोधित हो जाते हैं। हैं ना अब्बू?”
अब्बा कुछ नहीं बोले।
“आप मछलियाँ पकड़ते हैं? क्या करते हैं इनका?”
“इसे बेच जो कुछ पैसा मिले उससे घर चलता है।”
“सुना है मछलीयों को मारकर उसका भोजन करते हैं, क्या आप भी ऐसा करते हैं?”
“केशव, मेरी अम्मी मछली पकाती है। कल मैं तुम्हारे लिए लेकर आऊँगी। तुम खाओगे तो …।”
“नहीं गुल, यह पाप है। किसी भी जीव की हत्या करना पाप है।”
“पाप क्या होता है, अब्बू, केशव?” गुल की आँखों में प्रश्न के साथ विस्मय भी था।
“पेट पालना पाप नहीं होता है, केशव।“ अब्बा ने कहा।
“किसी जीव की हत्या करना पाप नहीं है?”
“केशव, तुम अपना काम करो और हमे अपना काम करने दो। चल गुल, घर चल।”
गुल और अब्बा जाने लगे।
“गुल, तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया क्या?”
“कौन सा प्रश्न?”
“पाप क्या होता है? यही पूछा था ना तुमने?”
“हाँ। क्या होता है पाप?”
“रुको तो बताऊँ।”
गुल रुक गई। अब्बा को भी रुकना पड़ा।
“गुल, तुम जब इस कन्दरा पर, इस रेत पर नंगे पैर चलती हो तो पग में कभी कभी कुछ चुभ जाता है?”
“हां, ऐसा होता है। तब पैर में दर्द होता है।”
“और यदि कोई तुम्हें मार डाले तो?”
“केशव?” अब्बा केशव की बात सुनकर चिल्ला उठे। गुल की समज में कुछ नहीं आया।
“गुल, तुम्हारे अब्बा को दुःख हुआ मेरी बात से। इसी प्रकार इन मछलियों को जब हम पकड़कर पानी से बाहर रखते हैं तो वह मर जाती है। सोचो उनको कितना दुःख होता होगा?”
गुल अब्बू को देखने लगी। जैसे पूछ रही हो, ‘क्या केशव सही कह रहा है?’
अब्बा कुछ नहीं बोले। मछलियों से भरी गठरी हाथ में लिए समुद्र की तरफ़ भागे, गठरी खोल दी,सभी मछलियाँ समुद्र में बहा दी। मछलियाँ जीवित हो उठी। तरंगों के साथ समुद्र में दौड़ गई।
“केशव, आज से मैं मछलियाँ नहीं पकडुंगा। मांसाहार भी नहीं करूँगा।”
“मांसाहार क्या होता है, केशव?”
“किसी भी जीव की हत्या कर उसका भोजन करना मांसाहार होता है। तो अब आप जीवन कैसे व्यतीत करोगे?”
“बेटे, वह तो मैंने नहीं सोचा। जिस मालिक ने पेट दिया है वह कोई ना कोई रास्ता निकाल लेगा।”
“आप मेरे साथ चलो। वहाँ दूर गुरुकुल है। मैं वहीं रहता हूँ। मैं जिस गीत को गा रहा था, जिस गीत को गुल सुन रही थी वह गीत मैंने वहीं सिखा है। वहाँ हमारे कुलपति है, वह आपको कोई मार्ग बताएँगे। चलो।”
गुल तो चल पड़ी, किंतु अब्बा रुक गए।
“क्या हमारा वहाँ आना ठीक होगा? कहीं हमें…।”
“आप निश्चिंत रहिए। कुलपति बड़े दयालु है।”
“चलो यही मर्ज़ी होगी मालिक की।” अब्बा, गुल और केशव चलने लगे।
“केशव, वह गीत गाओ ना। अब्बा को भी सुनाओ।”
गुल की इच्छा पर केशव ने प्रणव नाद प्रारम्भ कर दिया।
ओम्, ओम्, ओम्, ओम्, ओम्।
मार्ग में वह यही गाता रहा। गुल के साथ अब्बा भी सुनकर प्रसन्न हो गए।
“केशव, तुम अच्छा गाते हो।” केशव के मुख पर मोहक स्मित था। गुल उस स्मित को देखती रही।
कितना सुंदर हँसता है केशव। मैं भी ऐसे ही हँसना सीखूंगी।
गुरुकुल के द्वार पर केशव ने दोनों को रोका।
“आप दोनों यहीं रहिए। मैं अभी आता हूँ।” केशव भीतर चला गया। गुल तथा अब्बा गुरुकुल को देखने लगे। गुरुकुल का द्वार छोटा सा था, किन्तु सुंदर था। द्वार पर अनेक चित्र अंकित थे। कहीं पहाड़ था, कहीं वृक्ष थे, कहीं पंखी थे। गुल को यह देख अच्छा लगा। वह उसमें समुद्र को खोज़ने का यत्न करने लगी किंतु व्यर्थ।
अब्बा ने भीतर द्रष्टि डाली। द्वार से थोड़ा कुछ दिखाई दे रहा था। कुछ बालक दिख रहे थे। सभी ने केशव की भांति ही कपड़े पहने हुए थे। सभी के माथे पर चोटी के उपरांत कोई केश नहीं थे। सभी की चोटियाँ बंधी हुई थी। प्रत्येक बालक किसी ना किसी कार्य में व्यस्त था। उसने भीतर प्रवेश करने के लिए पैर उठाए ही थे कि रोक लिए।
‘बिना पूछे भीतर नहीं जाना चाहिए। मुझे केशव के आने की राह देखनी होगी।’ वह प्रतीक्षा करने लगे।
एक अंतराल के पश्चात एक बालक आया, भीतर आने का संकेत किया। गुल और अब्बा दोनों उस बालक के पीछे भीतर गए। अब्बा बालक के पीछे चलने लगे, गुल सब देखने लगी।
“गुल, चलो।” वह अ-मन से चलने लगी।
एक कक्ष के समीप बालक रुक गया। भीतर जाने का संकेत देकर वह चला गया। संकोच से अब्बा ने तथा सहजता से गुल ने कक्ष में प्रवेश किया। केशव वहीं था। उसे देख अब्बू का संकोच लुप्त हो गया।