Dwaraavati - 37 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 37

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द्वारावती - 37


37

“अंतत: तुमने उन पंखियों को मित्र भी बना लिया, शाकाहारी भी।” केशव ने मौन तोड़ा।
“यह अर्ध सत्य है, केशव।” गुल ने प्रतिभाव दिया।
“तो कहो पूर्ण सत्य क्या है?”
“पूर्ण सत्य यह है कि पंखी मेरे मित्र बन गए है किन्तु शाकाहारी बने कि नहीं यह निश्चित करना उचित नहीं होगा। मंदिर के प्रांगण में डाले दानों को उन्होने अवश्य खाये हैं किन्तु उससे उनकी क्षुधा तृप्त नहीं हो सकती। दिवस भर कभी भी वह समुद्र से मछलियां खाएँगे, खा सकते हैं। उनका पूर्ण रूप से शाकाहारी बनना मुझे संभव नहीं लगता।”
“तुम प्रयास करती रहो, तुम अवश्य सफलता प्राप्त करोगी।”
“मेरे प्रयासों की सफलता तब होगी जब इन पंखियों की सारी जन संख्या शाकाहारी बने। यदि मैं कुछ पंखियों को पिंजर में बंद रखूँ, अनेक दिवसों तक केवल शाकाहारी भोजन ही दूँ, तब कहीं वह पंखी शाकाहारी बन सकते हैं। किन्तु वह उसी कुछ पंखियों के लिए संभव है जो पिंजर में बंद हो। इतने विशाल पंखी समुदाय को शाकाहारी बनाना संभव ही नहीं।”
“एक काम कर सकते हैं हम।यदि हम अधिक मात्रा में दाना डालें तो उतनी मात्रा में वह मछलियों का शिकार नहीं करेंगे। इस प्रकार कुछ मछलियों का जीवन रक्षण हो सकता है।”
“यह उत्तम विचार है।” गुल प्रसन्न हो गई।
“केशव, प्रात: काल में तुम कवचित ही इस मंदिर में आते हो। जब भी आते हो, बड़े विलंब से- सूर्योदय के पश्चात ही आते हो। ठीक है ना?”
केशव ने मुक सम्मति दी।
“तो आज सूर्योदय से पूर्व ही मंदिर में कैसे आ गए?”
“हाँ, मैं यह बात बताना ही भूल गया। कल गुरुजी ने एक बात काही थी।”
“कौन सी बात, केशव?”
“ऋषि मुनि सदैव ब्राह्म मुहूर्त में निंद्रा का त्याग कर देते थे तथा तारा स्नान करते थे। पश्चात उसके वह सभी पुजा, यज्ञ आदि कर्म करते थे।”
“ब्राह्म मुहूर्त का ज्ञान तो है मुझे किन्तु यह तारा स्नान क्या होता है?”
“गगन के तारे अस्त हो उससे पूर्व, तारों तथा नक्षत्रों के सानिध्य में जो स्नान्न किया जाता है उसे तारा स्नान कहते है।”
“तुमने गुरुकुल में तारा स्नान कर लिया तथा मंदिर को चल पड़े?”
“नहीं गुल। मैंने ऐसा नहीं किया। तारा स्नान किसी बंद स्नान गृह में नहीं किया जाता।”
“ऐसा क्यूँ? कहाँ होता है तारा स्नान?”
“मैंने कहा ना कि तारा स्नान तारों-नक्षत्रों की उपस्थिती में उनके सानिध्य में होता है। स्नान गृह के बंद द्वार के कारण तारों तथा नक्षत्रों का सानिध्य नहीं हो सकता। अत: तारा स्नान हमें खुले गगन के तले करना होता है।”
“तो तुमने खुले में स्नान किया? तुम्हें लज्जा नहीं आई?”
केशव गुल की बात सुनकर हंस पड़ा।
“गुल, तुम भी कभी कभी ऐसी बातें करने लगती हो कि... ।”
“यही ना कि मैं अभी अपरिपक्व बालिका हूँ।” गुल भी हंस पड़ी।
“छोड़ो चलो। हम तारा स्नान की बात कर रहे थे। ऋषि मुनियों के काल में वह किसी नदी के तट पर अपना आश्रम रखते थे। तारा स्नान इसी नदी के जल प्रवाह में किया करते थे।”
“किन्तु इस द्वारिका में ऐसी नदी कहाँ है?”
“नदी नहीं है तो क्या हुआ? यह समुद्र तो है ना?”
“तुमने समुद्र में तारा स्नान किया?”
“जी।”
“समुद्र में?”
“हाँ। समुद्र में। यदि नदी नहीं है तो क्या हुआ? समुद्र भी बहता पानी ही है ना?”
“किन्तु समुद्र तो ...।”
“खारा है किन्तु अन्य सभी जलागारों से समुद्र अधिक स्वच्छ होता है।”
“वह कैसे?”
“वह निरंतर बहता बहता रहता है। अत: इसका पानी निर्मल होता है।”
“ठीक है। किन्तु इसमें मेरे प्रश्न का उत्तर कहाँ है? यह कहो कि तुम, मंदिर कैसे आ गए?”
“मैं जब तारा स्नान कर रहा था तब मैंने तुम्हें देखा था। क्षण भर तुम तट पर रुकी थी। पश्चात तुम मंदिर की तरफ चलने लगी। मेरे मन में तभी आश्चर्य ने जन्म लिया, एक कुतूहल जागा- इतने अंधेरे में गुल मंदिर क्यूँ जा रही है? इसी उत्सुकता के कारण मैं तारा स्नान छोड़कर तुम्हारे पीछे पीछे मंदिर आ गया।”
“ओह, तो उस समय समुद्र में तुम थे?”
“जी, मैं ही था।” केशव ने स्मित किया। गुल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह दौड़ गई- घर की तरफ, अपने पदचिन्हों को भीगी रेत पर छोड़ गई।