Shuny se Shuny tak - 88 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 88

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शून्य से शून्य तक - भाग 88

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कितनी तलाश की मनु ने आशी की लेकिन उसे नहीं मिलना था, नहीं मिली ! मनु और अनन्या का मन काँपकर रह जाता| जो भी हो उन दोनों का रिश्ता अभी अधर में लटका हुआ था| आखिर समाज में उस रिश्ते की क्या अहमियत थी? 

अनन्या की मम्मी को मनु ने ज़बरदस्ती अपने पास ही रख लिया था, वे बेचारी स्वाभाविक रूप से अपनी बेटी के अधर में लटके हुए जीवन के सही ‘स्टेट्स’ के लिए चिंतित रहतीं| एक बार आशी मनु को मुक्ति दे दे या जो कुछ भी निर्णय लेना हो ले ले| इस प्रकार त्रिशंकु की भाँति लटकना बड़ा दुखद था| बेटी को जन्म देने के बाद वह माँ तो बन गई थी लेकिन पत्नी---? परिवार में स्वीकार लिया जाना एक बात होती है और समाज में स्वीकारा जाना सामाजिक दृष्टि में एक निश्चित स्थान प्राप्त करना! 

काफ़ी दिन आशिमा इन लोगों के साथ रही लेकिन आखिर कब तक वह अपने घर से दूर रहती? दीना जी के बाद सब लोग मनु के पास लगभग दो माह रहे| कोई उन्हें तकलीफ़ में नहीं देखना चाहता था लेकिन रहते भी तो आखिर कब तक? वे सब वापिस अपने घर लौट गए परंतु उन्होंने इन्हें अकेला नहीं छोड़ा, कोई न कोई इनके पास आता ही रहता| अनन्या की मम्मी को तो मनु ने क्या किसी ने भी वापिस जाने ही नहीं दिया| आखिर अपने घर में अकेली वे करतीं भी क्या? उनसे बार-बार यही कहा जाता, आखिर वे चुप हो गईं| वहाँ रहने तो लगीं लेकिन अनन्या की चिंता उन्हें लगी रहती| 

कोई तो कहीं से आशी का पता-ठिकाना बता दे, वे जाकर हाथ-पैर जोड़कर उसे किसी न किसी प्रकार मनाकर ले ही आएंगी, वे यही सोचतीं| लेकिन एक दिन सबके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मुंबई से ही एक लिफ़ाफ़ा मनु के नाम आया जिसमें तलाक के पेपर्स थे जिन पर आशी के हस्ताक्षर थे| 

“यह क्या और कैसे? ”मनु ने अनन्या को कागज़ात दिखाते हुए आश्चर्य प्रगट किया| 

अनन्या ने कागज़ों को अपने हाथ में लेकर उलट-पलटकर देखा और उसका मुँह भी आश्चर्य से खुला रह गया| वे सभी आशी के हस्ताक्षर पहचानते थे| लिफ़ाफ़ा साधारण डाक से आया था, जिस पर न भेजने वाले का नाम था और न ही फ़ोन नं हाँ, मुंबई के किसी पोस्ट ऑफ़िस की आधी मुहर दिखाई दे रही थी, आधी मुहर बरसात के पानी से जैसे पुछ सी गई थी| लिफ़ाफ़ा कोठी के गेट पर लगे बड़े से लैटर-बॉक्स में डाला गया था| लग रहा था जैसे किसी ने जान-बूझकर उसकी आधी मुहर पोंछ डाली हो| लिफ़ाफ़ा किस डाकघर से पोस्ट किया गया है, उसका तो पता चल ही नहीं रहा था| 

क्या आशी मुंबई में ही है? बड़ा प्रश्न था, न जाने कितने विभिन्न माध्यमों से आशी की तलाश हो चुकी थी| अखबार, टी.वी, पुलिस, सी.आई.डी सारे ही माध्यमों से कई महीने तक आशी के बारे में जांच-पड़ताल चलती रही थी| कुछ हाथ नहीं आया था| अब इन सबको चुप्पी साधे हुए लंबा समय व्यतीत हो गया था| अब---–अचानक? ? उस लिफ़ाफ़े में कुछ भी न था केवल तलाक के हस्ताक्षर किए हुए कागज़ के! 

कुछ देर में सबको पता चल गया था, इस बात की आशंका के साथ कि शायद आशी मुंबई में ही कहीं है| स्वाभाविक था, वह किसी को कुछ भी पता नहीं लगने देना चाहती थी इसीलिए यह नाटक खेला गया था| लिफ़ाफ़े पर स्थाई मुहर का होना और आधी मुहर का मिट जाना, एक इत्तिफ़ाक तो नहीं ही था| आशी के साथ कोई तो ज़रूर था जो उसकी इच्छानुसार उसकी सहायता कर रहा था लेकिन कौन? 

मनु ने अनन्या, रेशमा व मम्मी को बताया और तुरंत ही अनिकेत के पिता से फ़ोन पर बात की| 

“यही तो हम सब चाहते थे, मनु अब तुम सबसे पहले अपने वकील साहब के पास कागज़ लेकर जाओ| ”उन्होंने मनु से कहा| 

“लेकिन अंकल---आशी? मेरे लिए यह बहुत ज़रूरी है कि आशी का पता लगे| मैं जहाँ सबके साथ रह रहा हूँ, वह सब कुछ आशी का है| ज़रूरी है कि वह ये सब संभाले—”एक ओर जहाँ मनु के मन में तलाक के कागज़ात देखकर एक तसल्ली सी हुई थी, दूसरी ओर वह आशी के प्रति अधिक चिंतित हो गया था| 

“समझता हूँ मनु लेकिन वकील साहब के पास तो चलो| तुम निकलो, मैं अनिकेत को लेकर आता हूँ| डोंट बी सो सेंटीमेंटल, हम सबको आशी की चिंता है लेकिन तुम अपने जीवन का दूसरा पहलू भी तो देखो| ”उन्होंने गंभीर स्वर में मनु को समझाया| आखिर वे बड़े थे, अनुभवी थे, कठिनाइयों व उलझनों को मनु से बेहतर समझ सकते थे| 

सब वकील साहब के पास पहुँच गए थे| वकील साहब ने पूरी बात समझी और कहा कि मनु और अनन्या की समस्या का समाधान तो हो गया समझें लेकिन आशी मुंबई में नहीं है| इसलिए पहले सारी कार्यवाही पूरी करके बाद में उन्हें ढूँढने के लिए कुछ और प्रयास किए जाएंगे| 

“आप कैसे कह सकते हैं कि आशी मुंबई में नहीं है? ”मनु वकील साहब से अचानक ही पूछ बैठा| 

“आप लोगों को नहीं लगता कि अगर वह यहाँ होतीं तो कोई न कोई इतने बड़े इनाम के लालच में उनकी खबर लाकर न देता? मनु जी ! आज के समय में भी जहाँ लोग मुश्किल से दो समय की रोटी के लिए जूझ रहे हैं वहाँ दस लाख का इनाम कम नहीं होता| ”वकील साहब का लंबा अनुभव उनकी आँखों, चेहरे और शब्दों से बोल रहा था| 

वकील साहब दीना जी के समय से ही न जाने दोनों के तलाक के लिए कितने प्रमाण इक्कट्ठे कर रहे थे| तलाक के कागज़ात देखकर वे निश्चिंत हो गए लेकिन आशी थी कहाँ ? फिर से एक बार पूरे मुंबई और आसपास के स्थानों पर तलाश करवाने के प्रयत्न किए गए लेकिन कुछ पता नहीं चला| वकील साहब ने  कुछ फॉरमैलिटीज़ पूरी करके तलाक के कागज़ पर मनु के हस्ताक्षर ले लिए और एक कॉपी उसे देकर आशी को देने वाली दूसरी कॉपी भी और कुछ जरूरी कागज़ात के साथ अपने पास फ़ाइल करके रख ली| मनु उस पेचीदा संबंध से मुक्त तो हो गया लेकिन उसका दिल बुझा हुआ ही रहा| या तो यह काम दीना जी करवाकर जाते या फिर आशी की उपस्थिति में तो होता| वह शायद इस तलाक के लिए इतना इसरार न भी करता लेकिन उसके सामने अनन्या और बच्ची के चेहरे हर समय घूमते रहते| उनके साथ न्याय करना भी तो उसका कर्तव्य था| 

कई दिनों की चुप्पी भरी प्रतीक्षा के बाद सबने मिलकर आर्यसमाज में सीधे-सादे ढंग से मनु और अनन्या की शादी करवा दी| 

शादी के बाद भी मनु व अनन्या का मन बहुत बेचैन रहता| सबसे बड़ी बात यह थी कि मुंबई और उससे जुड़ी हुई सारी जगह तलाश कर डालीं लेकिन कोई सुराग नहीं मिला| आखिर कहाँ जा सकती थी? जब भी मनु के सामने लिफाफा आ जाता जिसमें आशी ने तलाक के कागज़ात भेजे थे, वह उसको घुमा-घुमाकर देखता रहता| कुछ तो सुराग मिले! लेकिन कोई सुराग नहीं था | समय को कौन रोक सका है? वह अपनी गति से गुज़रता जा रहा था| अब तक बच्ची का कोई नाम भी नहीं रखा गया था| उसको बिटिया कहकर ही पुकारा जाता| अब वह एक वर्ष की होने लगी थी|