Shuny se Shuny tak - 90 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | शून्य से शून्य तक - भाग 90

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शून्य से शून्य तक - भाग 90

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मनु की बात सुनकर सब एक दूसरे के चेहरे ताकने लगे| रेशमा के चेहरे पर कुछ उदासी सी उतरी जिसे आशिमा ने तुरंत ही भाँप लिया और बोली;

“ठीक है भाई, आपके सुझाव पर विचार किया जा सकता है, बस शर्त है कि बूआओं को उनके अधिकार से वंचित न किया जाए! क्यों माई लॉर्ड---? ”आशिमा ने मम्मी जी यानि सास की ओर इशारा करके कहा| 

“सौ प्रतिशत सत्य है बालिके ! ” आशिमा की सास क्या थीं उन सबकी दोस्त ही बन गईं थीं | समय आने पर वे बच्चों में बच्ची बन जातीं और ज़रूरत पड़ने पर बुज़ुर्ग बनकर सबको गंभीर सलाह देतीं| उनका स्वभाव बहुत सौम्य, सरल था और व्यक्तित्व सुलझा हुआ, शानदार ! 

इन सबमें एक ही व्यक्ति था जो मौन व गुपचुप रहता था, वे थीं अनन्या की मम्मी! वे अपने आपको वहाँ फिट नहीं पाती थीं| वे अपना अधिकार भी नहीं समझती थीं कि बेटी के परिवार के निर्णयों के बीच कुछ बोलें| दीना जी ने जिस अपनत्व से उन्हें अपने परिवार का हिस्सा बना लिया था, वह उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन जब वे ही नहीं रहे तब उनके मन में वहाँ रहने पर एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह लग गया था लेकिन उन्हें वहाँ से आखिर जाने भी तो कोई नहीं देता था| वे हर बात में चुप बनी रहतीं और यदि कोई उनसे कुछ पूछता भी तो वे केवल हल्की सी मुस्कान ओढ़ लेतीं| 

बिटिया के नामकरण व जन्मदिन की तैयारियाँ पूरे ज़ोर-शोर से शुरु होने लगीं थीं| घर भर में एक उल्लास का वातावरण  भर गया था---और सब तो हो ही जाना था बस, आशी किसी तरह मिल जाती तो--एक यही बात सबको परेशान कर रही थी जिसकी फ़िलहाल तो कोई आशा नज़र नहीं आ रही थी| 

इस जीवन की यही सबसे बड़ी व्यथा है, कोई नहीं जानता कहानी में कब, कहाँ और कैसे मोड़ आ जाते हैं| पात्र भी आते-जाते रहते हैं और जिन मार्गों से कथा गुजरती है उनमें कहीं गड्ढे आ जाते हैं तो कभी पहाड़ियाँ और कभी समतल जमीन! तात्पर्य है कि जीवन की यात्रा को समझ पाना बहुत कठिन ही नहीं बल्कि असंभव ही है| 

बिटिया के जन्मदिन की सारी तैयारियाँ समय से पहले ही पूरी हो गईं| मनु ने पूछने पर सलाह ज़रूर दी लेकिन वह बहुत उत्साहित नहीं हो सका| उसके उत्साह के थर्मामीटर का पारा ऊपर-नीचे ही होता रहा| माधो परिवार का सदस्य ही तो था जो बहुत कुछ जानता था| कितनी ही बातें ऐसी भी होती थीं जो दीना जी केवल उसके सामने ही साझा करते थे और वह उन सबको अपने पेट के समुद्र की गहराई में न जाने कहाँ धकेल देता था| दीना जी के कई मित्रों से भी केवल वही परिचित था और कई रिश्तेदारों से भी| दीना जी की अस्वस्थता के समय से कई संबंधों का मिलना, आना-जाना कम हो गया था| माधो ही था जो दीना जी को उन सबसे बात करवाता रहता था जिनसे बात करने का उनका मन हो जाता| 

आज बिटिया का जन्मदिन भी आ गया| कार्यक्रम कुछ इस प्रकार रखा गया था कि सुबह के समय यज्ञ के बाद अन्नप्राशनी का कार्यक्रम किया गया| बच्ची तो कई महीनों से अन्न का सेवन कर रही थी। इसकी कोई जरूरत नहीं थी लेकिन मनु की बहनें? उन्हें तो जब से कार्यक्रम की तैयारी शुरुआत की गई थी तबसे जैसे नींद ही नहीं आ रही थी| उनके उत्साह के तो कहने ही क्या थे? 

तय यह हुआ कि सवेरे का भोज अन्नप्राशनी और नामकरण संस्कार कोठी पर होगा और जन्मदिन का डिनर व पार्टी उस होटल में होगी जिसमें दीना जी कभी अपनी पत्नी सोनी के साथ बिटिया आशी के जन्मदिन की पार्टी किया करते थे| उन दिनों यह होटल तीन स्टार ही था जिसको बहुत बड़ा माना जाता था लेकिन इतने वर्षों के बाद यही होटल 7 स्टार हो गया था| पहले भी बड़े-बड़े समृद्ध उद्धोगपति व बड़े अभिनेताओं की पार्टियाँ इसमें होती थीं | आज भी यह बहुत ऊँचे होटलों में माना जाता था| आम आदमी उस होटल में प्रवेश के सपने ही देख सकता था| मनु को इतना खर्च करना कुछ ठीक नहीं लग रहा था लेकिन सबके सामने उसे चुप ही बने रहना पड़ता| 

माधो को अब भी बहुत कुछ याद था और भरी हुई आँखों से वह सब तैयारी करवाता रहा था| 

“इतने बड़े होटल में पार्टी रखने की क्या ज़रूरत है? ”मनु ने धीरे से कहा तो अनिकेत की मम्मी ही बोल पड़ीं थीं कि वे भी सोचती थीं कि घर पर ही सब कार्यक्रम कर लिए जाएं लेकिन माधो का कहना उन्हें ठीक लगा| सुबह घर में उतने ही परिचित होंगे जो बहुत करीब हैं लेकिन जब मनु ने दीना जी के पूरे व्यवसाय को संभाला है तब उन बड़े उद्योगपतियों को आमंत्रित करना भी जरूरी है जो सेठ जी के साथ व्यवसाय में वर्षों से जुड़े रहे हैं और आज भी जुड़े हुए हैं| वे जानती थीं कि इस प्रकार की पार्टियाँ व्यवसाय के लिए महत्वपूर्ण होती हैं| अब सब कुछ संभालना तो मनु को ही था| उनका बेटा अनिकेत अब मनु का दाहिना हाथ बन चुका था| 

दरअसल, मनु को तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था, मन उद्विग्न था और जो जैसे कह रहा था, वह बस गर्दन हिला देता था| दीना अंकल के जाने के बाद वह मुश्किल से दो बार अपने पिता डॉ.सहगल की कोठी की ओर जा सका था| बस, वहाँ वही पुराने गार्ड और माली देखभाल कर रहे थे| दीना अंकल के अचानक चले जाने से कितनी चीज़ें बदल गईं थीं| आशी के जाने से तो और भी---वह यहाँ होती तब चीज़ों को और तरह से समझा व परखा जा सकता था| उसे इस सबमें अपना कुछ भी नहीं लगता था| आखिर अपने परिवार व अपनी बेटी के लिए इतना कुछ वह कैसे कर सकता था? जबकि सब कुछ उसके ही हाथ में था किन्तु था तो सब आशी का ही| यदि वह साथ होती तब निर्णय लेना आसान था, उसे अंदर कहीं गिल्ट महसूस होती| 

अनिकेत की मम्मी-पापा और अनिकेत उसे समझाते रहते लेकिन उसका मनोमंथन ज़ारी ही रहा| खैर, जैसी व्यवस्था कर दी गई थी, मनु उसमें विनम्रता से सहभागी बना रहा था| अन्नप्राशनी और नामकरण के कार्यक्रम के समय मनु ने अपनी यथाशक्ति बहनों को बिना कुछ मांगे ही दे दिया| शॉपिंग तो उन्होंने उसी दिन से शुरु कर दी थी जब से इस कार्यक्रम के होने की शुरुआत हुई थी| 

जैसे ही यज्ञ पूरा हुआ एक और आश्चर्य की बात हुई| किसी ने लाकर मनु के हाथ में एक फ़ाइल पकड़ा दी| यज्ञ के समय भी काफ़ी अतिथि थे| मनु ने कुछ असमंजस में होकर फ़ाइल पकड़ ली लेकिन जैसे ही उस आदमी को देखने के लिए उसने चेहरा ऊपर उठाया वहाँ से वह आदमी गायब हो चुका था| मनु के पास यह भी समझने का समय नहीं था कि वह किसी से कुछ पूछ सके| उसने पास खड़े हुए किसी घर के हैल्पर को फ़ाइल पकड़ा दी कि वह बाद में उससे ले लेगा| वह थोड़ा आश्वस्त इसलिए था कि कोठी में आमंत्रित लोग ही आ सकते थे| बाद में फ़ाइल देख लेगा, गलती से कोई ले आया होगा वरना यह समय तो था नहीं फ़ाइल-वाइल का! सोचकर वह अतिथियों के सत्कार में लग गया| 

सुबह का कार्यक्रम बहुत शांति से सम्पूर्ण हो गया| बिटिया का नाम अब आशी रख दिया गया था| यह सब करते हुए कब साँझ हो गई कुछ पता ही नहीं चला| रात की जन्मदिन की डिनर पार्टी के लिए मनु ने कुछ खास नहीं किया| जो उससे पूछा जाता वह एक कठपुतली की भाँति गर्दन हिला देता| माधो लगातार अनिकेत के साथ लगा रहा| अनिकेत की मम्मी ने शानदार तैयारी करवा दी थी| 

“बेटा मनु, होता है कभी ऐसा भी कि आदमी डिसीजन लेने में हिचकता है लेकिन उसे अपनी ड्यूटी तो करनी होती है| बस, यह तुम्हारी ड्यूटी है इसे ठीक से निभाना है| पार्टी में आने वाले सभी बड़े बिज़नस टायकून से तुम्हें और अनिकेत को मिलकर स्वागत करना है | ”अनिकेत की मम्मी केवल एक घरेलू स्त्री न होकर जैसे एक पूरी इंस्टीट्यूट थीं जिनसे न जाने क्या-क्या सीखा जा सकता था| 

मनु के लिए उनके मन में बहुत प्यार था और मनु के मन में उनके प्रति बहुत श्रद्धा! इसलिए जो भी वे कहतीं मनु के व परिवार की भलाई के लिए कहतीं और मनु बड़े आदर से उनका कहना मानने की कोशिश करता| कभी-कभी जब वह अधिक उद्विग्न होता, अनिकेत की मम्मी उसकी मानसिक स्थिति समझ जातीं और उसे बड़े प्यार से एक माँ की भाँति सहलाकर मना लेतीं| 

सब कुछ बहुत शानदार तरीके से सम्पन्न हो गया और घर के सुप्त वातावरण में जैसे एक सुखद बदलाव आ गया जिसकी अपेक्षा की जा रही थी और जो बहुत ज़रूरी था| बच्ची के उस उत्सव से सब बड़े प्रसन्न और आनंदित थे| दीना जी की अनुपस्थिति स्वाभाविक रूप से सबको खटक रही थी और कई बार उन्हें याद करके सबकी आँखें भीग भी गईं थीं| 

दो/तीन दिनों बाद माधो ने लगभग दौड़ते हुए आकर आज एक और लिफ़ाफ़ा मनु के हाथ में पकड़ा दिया| 

“अभी दिया गार्ड ने---”माधो ने मनु से कहा| 

मनु असमंजस में पड़ गया | अब यह कहाँ से और किसका होगा? सोचते हुए मनु ने लिफ़ाफ़े को उलट-पलटकर देखना शुरु किया| फिर वही, कोई पता नहीं लेकिन इस बार लिफ़ाफ़ा बिलकुल कोरा था| उस पर एक अक्षर भी लिखा हुआ नहीं था| न ही कोई मुहर थी, न पता, न कोई और ऐसी चीज़ जिससे पता लग सके कि कहाँ से आया है? कमाल है, मनु ने लिफ़ाफ़ा खोला| 

मनु सहगल व परिवार के नाम निमंत्रण-पत्र था जिस पर निमंत्रक का कोई नाम नहीं था| हाँ, माउंट आबू के किसी आश्रम का पता था जहाँ स्व.सेठ दीनानाथ के पूरे परिवार को आमंत्रित किया गया था| 

मनु और भी पशोपेश में पड़ गया, माउंट आबू से किसका निमंत्रण हो सकता है? वह इस बारे में बिलकुल अनभिज्ञ था| कौन होगा जो इस आश्रम के बारे में जानता होगा? निमंत्रण न केवल मनु का परिवार बल्कि अनिकेत के पिता मि.भट्टाचार्य परिवार के सभी सदस्यों, अनन्या की मम्मी व उन सभी लोगों के नाम था जो वहाँ उपस्थित थे| 

आमंत्रण-पत्र जितना सादा था, उतना ही महत्वपूर्ण भी लग रहा था| उसमें सर्वप्रथम एक यज्ञ का आयोजन था, उसके पश्चात् एक पुस्तक के लोकार्पण के कार्यक्रम के बारे में सूचना थी| मनु किसी को भी नहीं जानता था, वह अजीब स्थिति में आ गया क्या किया जाए? माउंट आबू कोई इतना भी पास नहीं था मुंबई से कि सबको बड़ी आसानी से ले जाया जाता और आखिर क्यों और किसके लिए? 

“मुझे कुछ याद है साहब, एक बार बहुत साल पहले मालिक आशी बेबी को लेकर गए तो थे, ऐसे ही कहीं| ”माधो की बात सुनकर मनु के कान खड़े हुए| 

“तुमने बताया क्यों नहीं---तुम साथ गए थे क्या? ”मनु ने चौंककर माधो से पूछा| 

“मैं कैसे बताता साहब, मुझे कहाँ याद है, बड़ी पुरानी बात है---”कहकर माधो वहाँ से जाने लगा| 

“अच्छा, अब क्या करें? कोई फ़ोन नं भी नहीं लिखा है इस निमंत्रण-पत्र पर| ”

“अरे तो क्या हुआ साहब, आश्रम का नाम तो है, जाना चाहिए| अच्छा काम है---और आपको तो पता है मालिक  कितना यज्ञ आदि करवाते रहते थे| क्या मालूम इसीलिए भेजा गया हो| वैसे भी जाने कब से आप सब लोग कहीं निकले भी तो नहीं हैं| ”माधो ने धीरे से कहा| अपने मालिक की बात करते हुए वह अक्सर ऐसे ही उदास हो जाया करता था| 

“चलो तो सोचते हैं, अनु को बताता हूँ और आँटी (अनिकेत की मम्मी) को बताकर उनसे भी सलाह ले लेते हैं| ” बड़े दिनों बाद  घर का वातावरण नॉर्मल सा लग रहा था जैसे उदासी के काले बादलों में से भोर के सूर्य का उजियारा उतरने की तैयारी में हो|