Andhera in Hindi Horror Stories by Neha jha books and stories PDF | अंधेरा

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अंधेरा



दीपेश हमेशा से ही अंधेरे से डरता था। बचपन में तो और भी ज्यादा डरता था, लेकिन उम्र के साथ-साथ उसने अपने इस डर पर काबू पा लिया था। कम से कम वो यही सोचता था।

पिछले तीन महीनों से वो अकेला रह रहा था। पुरानी हवेली जैसे दिखने वाले एक फ्लैट में, जो शहर के सबसे पुराने इलाके में था। किराया सस्ता था इसलिए लिया था। पैसों की दिक्कत थी। नौकरी छूट गई थी और नई नौकरी मिलने में वक्त लग रहा था।

उस दिन वो थका हुआ घर लौटा था। इंटरव्यू के चक्कर में सारा दिन निकल गया था। रात के दस बज चुके थे। अचानक बिजली चली गई।

"भेंचोद, अब ये क्या बकचोदी है?" दीपेश ने गुस्से में कहा और अपने फोन की फ्लैशलाइट जलाई।

बिल्डिंग पुरानी थी। ये आम बात थी कि बिजली चली जाए। लेकिन आज पता नहीं क्यों, उसे अजीब सा लग रहा था। फोन की रोशनी में वो बेडरूम की तरफ बढ़ा। दरवाजे पर पहुंचकर उसने रोशनी अंदर की तरफ डाली।

कमरे के कोने में कुछ हिला। उसने फिर से वहां रोशनी डाली, लेकिन वहां कुछ नहीं था।

"दिमाग खराब हो रहा है मेरा," उसने सोचा और अंदर चला गया।

मोमबत्ती जलाकर उसने फोन की लाइट बंद कर दी। मोमबत्ती की टिमटिमाती रोशनी में कमरा और भी डरावना लग रहा था। पुरानी दीवारें, जिनका पेंट उतर चुका था, परछाइयां दे रही थीं। लेकिन अब वो बच्चा नहीं था। डर कर क्या करेगा?

उसने कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गया। आंखें बंद कीं तो लगा जैसे कोई उसे देख रहा है। उसने आंखें खोलीं, लेकिन कमरे में वो अकेला ही था।

फिर से आंखें बंद कीं और सोने की कोशिश करने लगा। तभी उसे लगा जैसे कोई फुसफुसा रहा है। एकदम धीमी आवाज, लेकिन साफ सुनाई दे रही थी।

"दीपेश... दीपेश..."

उसने फिर से आंखें खोलीं और उठकर बैठ गया। "कौन है?"

कोई जवाब नहीं मिला। शायद उसका वहम था। अब उसे नींद नहीं आ रही थी। उसने मोबाइल उठाया और टाइम देखा। रात के 11:30 बज रहे थे। बिजली अब तक नहीं आई थी।

"कितनी देर और?" उसने सोचा।

फिर से वो फुसफुसाहट सुनाई दी।

"दीपेश... तुम्हें पता है मैं कौन हूं?"

इस बार आवाज़ साफ़ थी। वो चौंका और मोमबत्ती की रोशनी में चारों तरफ देखा। कमरे में कोई नहीं था।

"कौन बोल रहा है?" दीपेश की आवाज़ कांप रही थी।

फिर से सन्नाटा छा गया।

दीपेश ने मोमबत्ती उठाई और कमरे से बाहर आया। हॉल में गया और चारों तरफ देखा। कोई नहीं था। रसोई में गया, वहां भी कोई नहीं था। बाथरूम में झांका, वहां भी कोई नहीं था।

"मेरा दिमाग खराब हो रहा है," उसने फिर से खुद से कहा और वापस बेडरूम में आ गया।

उसने सोचा कि शायद वो थक गया है और इसलिए उसे ऐसा लग रहा है। वो फिर से लेट गया और आंखें बंद कर लीं।

तभी उसे लगा जैसे किसी ने उसके कान में फुसफुसाया - "तुम अकेले नहीं हो।"

दीपेश ने चौंककर आंखें खोलीं और देखा कि मोमबत्ती बुझ चुकी थी। कमरे में अंधेरा था।

उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने अपने मोबाइल की फ्लैशलाइट चालू की और उसकी रोशनी में देखा।

उसके सामने एक परछाई थी। एक इंसान की तरह, लेकिन बिना चेहरे की।

दीपेश चीखना चाहता था, लेकिन उसकी आवाज़ नहीं निकल रही थी। वो हिल भी नहीं पा रहा था।

परछाई धीरे-धीरे उसके पास आ रही थी।

"क्या मैं तुम्हें याद हूं?" परछाई ने पूछा।

दीपेश ने सिर हिलाया। "नहीं... मैं नहीं जानता तुम कौन हो।"

"तुम्हें याद होना चाहिए," परछाई बोली। "क्योंकि तुमने मुझे मारा था।"

दीपेश का दिल धक से रह गया। "क्या बकवास कर रहे हो? मैंने किसी को नहीं मारा!"

परछाई हंसी। एक ऐसी हंसी जो सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएं।

"तुम्हें याद नहीं है, लेकिन मुझे याद है," परछाई बोली। "पांच साल पहले, उस सड़क हादसे में। तुम शराब पीकर गाड़ी चला रहे थे और मैं सड़क पार कर रहा था।"

दीपेश की आंखों के सामने वो दृश्य घूम गया। एक रात, शराब के नशे में, एक आदमी सड़क पार कर रहा था और उसकी गाड़ी उसे टकरा गई थी। उसने गाड़ी नहीं रोकी थी। वो डर गया था और भाग गया था।

"नहीं... नहीं..." दीपेश ने कहा। "वो हादसा था!"

"हादसा?" परछाई ने कहा। "जिसके बाद तुम भाग गए? जिसकी कभी रिपोर्ट नहीं की?"

दीपेश काँप रहा था। "मैं... मैं डर गया था।"

"और मैं मर गया था," परछाई ने कहा। "मेरी पत्नी और बच्चों को कभी नहीं पता चला कि मुझे किसने मारा।"

दीपेश के आंसू निकल आए। "मुझे माफ कर दो... प्लीज़।"

परछाई उसके और पास आ गई। अब वो बिल्कुल उसके सामने थी।

"क्या तुम जानते हो कि मरने के बाद क्या होता है?" परछाई ने पूछा।

दीपेश ने सिर हिलाया।

"मरने के बाद अंधेरा होता है," परछाई ने कहा। "सिर्फ अंधेरा। और तुम उस अंधेरे से डरते हो, है ना?"

दीपेश ने फिर से सिर हिलाया।

"अब तुम्हें पता चलेगा कि वो अंधेरा कैसा होता है," परछाई ने कहा और धीरे-धीरे उसके शरीर में समाने लगी।

दीपेश चीखा, लेकिन उसकी आवाज़ कमरे की दीवारों के अंदर ही गूंजी और फिर खो गई।


अगले दिन, जब दीपेश के पड़ोसी ने उसे चेक करने के लिए दरवाजा खटखटाया, तो उसने देखा कि दरवाजा खुला था। वो अंदर गया और देखा कि दीपेश अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था, आंखें खुली थीं, लेकिन वो हिल नहीं रहा था।

डॉक्टरों ने बताया कि उसे ब्रेन स्ट्रोक आया था। अब वो जिंदा तो था, लेकिन हिल-डुल नहीं सकता था, बोल नहीं सकता था, बस देख सकता था। लॉक्ड-इन सिंड्रोम, जिसमें मरीज पूरी तरह से होश में होता है लेकिन अपने शरीर को हिला नहीं सकता।

दीपेश अब अंधेरे में था। अपने ही शरीर के अंदर कैद, बाहर की दुनिया को देखता हुआ, लेकिन कुछ कर नहीं सकता। और हर रात, जब लाइट्स बंद होती थीं, वो उस परछाई को अपने कमरे में घूमते हुए देखता था। उसके पास आकर फुसफुसाते हुए।

"अंधेरे में स्वागत है, दीपेश।"


महीनों बीत गए। दीपेश को एक नर्सिंग होम में रख दिया गया था। वहां के डॉक्टर और नर्सें उसकी बेचैनी को नोटिस करते थे, खासकर जब रात होती थी और कमरे की लाइट बंद की जाती थी।

"लगता है वो अंधेरे से डरता है," एक नर्स ने दूसरी से कहा।

"हां, जब भी लाइट बंद होती है, उसकी आंखों में डर साफ दिखता है।"

उन्हें क्या पता था कि दीपेश हर रात उस परछाई को देखता था, जो उसके कमरे में घूमती थी, उसके कानों में फुसफुसाती थी, उसे याद दिलाती थी कि उसने क्या किया था और अब वो कभी भी अंधेरे से बच नहीं सकता।

दीपेश के लिए, हर रात एक नया डर लेकर आती थी। हर दिन एक नई यातना। अंधेरा अब उसका साथी था, उसका सबसे बड़ा डर, उसकी सजा।


एक साल बीत गया। दीपेश के शरीर की हालत लगातार बिगड़ती जा रही थी। डॉक्टरों का कहना था कि उसका दिमाग अभी भी पूरी तरह से काम कर रहा था, लेकिन उसका शरीर जवाब दे रहा था।

"वो हमारी बातें सुन सकता है," डॉक्टर ने उसके चाचा से कहा, जो अब उसे देखने आते थे। "हम नहीं जानते कि वो क्या सोच रहा है, लेकिन वो सब कुछ समझ रहा है।"

लेकिन क्या वे समझ सकते थे कि दीपेश क्या देख रहा था? हर रात, वो परछाई उसके पास आती, उसे उस हादसे की याद दिलाती, और फिर उसके अंदर समा जाती। और हर सुबह, जब दीपेश की आंखें खुलतीं, वो फिर से उस कैद में होता - अपने ही शरीर में, अपने ही अंधेरे में।


जब दीपेश की मौत हुई, उसकी आंखों में आंसू थे। नर्स जो उस वक्त वहां थी, उसने कहा कि उसके चेहरे पर एक अजीब शांति थी, जैसे वो आखिरकार मुक्त हो गया हो।

लेकिन क्या वो वाकई मुक्त हुआ था?

क्योंकि अगली रात, जब नई नर्स ड्यूटी पर आई, उसने दीपेश के खाली कमरे में एक परछाई देखी, एक इंसान की तरह, लेकिन बिना चेहरे की। और उसने एक फुसफुसाहट सुनी।

"अंधेरे से कोई नहीं बच सकता..."

वो चीखते हुए कमरे से बाहर भागी, और फिर कभी अकेले उस कमरे में नहीं गई।

और अब, जब भी कोई उस कमरे में जाता है, उसे लगता है जैसे कोई उसे देख रहा है। और जब लाइट्स बंद होती हैं, तो कोई फुसफुसाता है।

"तुम्हें पता है मैं कौन हूं?"

क्योंकि दीपेश अब अंधेरा है। और वो अपने साथ और लोगों को भी अंधेरे में ले जाना चाहता है।