भाग 3: फ़ासला
ज़ोया के लबों पर आए हुए अल्फ़ाज़ सुनकर आरिफ़ का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। वह बेक़रारी से उसकी तरफ़ देखने लगा, उसके हर लफ़्ज़ को सुनने के लिए मुंतज़िर था। लेकिन ज़ोया की आँखों में एक अजीब सी उदासी थी।
"आरिफ़," उसने आहिस्ता आवाज़ में कहा, "मेरे घर वाले... वह मेरी शादी कहीं और तय कर रहे हैं।"
आरिफ़ के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। यह वह बात थी जो वह कभी सुनना नहीं चाहता था। उसकी दुनिया लम्हा भर में बिखर गई। वह ज़ोया की आँखों में देखता रहा, जैसे यक़ीन करने की कोशिश कर रहा हो कि यह सब झूठ है।
"क्या?" वह सिर्फ़ इतना कह सका, उसकी आवाज़ में दर्द और बेबसी थी।
ज़ोया की आँखों से अश्क बहने लगे। "हाँ, आरिफ़। मैं... मैं कुछ नहीं कर सकती।"
उस शब, आरिफ़ टूट गया। उसका वह खामोश इश्क़, जो उसने अपने दिल में इतने सालों से सँजो कर रखा था, आज बे-मकसद और बे-असर लग रहा था। वह अपनी क़िस्मत पर रोया, अपनी कम-हिम्मती पर अफ़सोस किया। अगर वह कभी अपने दिल की बात कह देता, तो शायद आज हालात कुछ और होते।
ज़ोया भी अंदर ही अंदर घुट रही थी। वह आरिफ़ से उल्फ़त रखती थी, लेकिन अपने घर वालों की मर्ज़ी के आगे लाचार थी। उसकी आँखों में आरिफ़ के लिए बे-पनाह मोहब्बत थी, लेकिन उसकी ज़बान पर मजबूरी का पहरा था।
वक़्त गुज़रता गया। ज़ोया की शादी हो गई, और आरिफ़ अपने ग़म में ग़र्क़ रहा। उसने लोगों से मेल-जोल कम कर दिया, अपनी दुनिया को अपने तक ही महदूद कर लिया। उसके दिल में ज़ोया की याद एक नासूर की तरह बन गई थी, जो हर पल उसे दर्द देती थी।
एक रोज़, आरिफ़ को ज़ोया का एक ख़त मिला। उसने लरज़ते हाथों से ख़त खोला। ज़ोया ने अपनी नई ज़िंदगी के बारे में लिखा था, अपनी मजबूरियों का ज़िक्र किया था, और आख़िर में लिखा था, "आरिफ़, मैं तुम्हें कभी नहीं भूल पाऊँगी। तुम मेरी ज़िंदगी का वह हिस्सा हो, जो हमेशा मेरे दिल में ज़िंदा रहेगा।"
ख़त पढ़कर आरिफ़ की आँखों से अश्क बहने लगे। उसने उस ख़त को अपने दिल से लगा लिया। ज़ोया अब किसी और की हो चुकी थी, लेकिन उसकी मोहब्बत आज भी आरिफ़ के दिल में एक लौ की तरह जल रही थी।
भाग का इख़्तिताम: क्या आरिफ़ ज़ोया को भुला पाएगा? क्या उनकी ना-मुकम्मल उल्फ़त कभी कोई नया मोड़ लेगी?
भाग 4: इंतिज़ार
ज़ोया की शादी के बाद, आरिफ़ की ज़िंदगी एक वीरानी बन गई थी। उसने अपनी उल्फ़त को अपने दिल में दफ़न कर दिया था और तन्हाई की चादर ओढ़ ली थी। वक़्त अपनी रफ़्तार से गुज़रता रहा, मौसम बदलते रहे, लेकिन आरिफ़ के दिल का मौसम कभी नहीं बदला। वह आज भी ज़ोया की यादों में खोया रहता था।
सालों बाद, आरिफ़ एक शादी की तक़रीब में गया। वहाँ उसकी मुलाक़ात अपने एक पुराने दोस्त से हुई। बातों बातों में ज़ोया का ज़िक्र छिड़ गया। दोस्त ने बताया कि ज़ोया अपनी शादी से खुश नहीं है। उसकी ज़िंदगी में वह प्यार और सुकून नहीं है, जिसकी वह हक़दार थी।
यह सुनकर आरिफ़ के दिल में एक उम्मीद की किरन जागी। क्या अब भी कोई गुंजाइश बाकी है? क्या उनकी ना-मुकम्मल उल्फ़त को एक नया मौक़ा मिल सकता है?
आरिफ़ ने ज़ोया के बारे में और जानकारी हासिल करने की कोशिश की। उसे पता चला कि ज़ोया अपने शौहर से अलग हो गई है और अब अपने बच्चों के साथ अपनी वालिदा के घर रहती है।
यह ख़बर सुनकर आरिफ़ का दिल बे-क़रार हो गया। वह ज़ोया से मिलना चाहता था, उससे अपनी मोहब्बत का इज़हार करना चाहता था, लेकिन वह डरता भी था। इतने सालों बाद, क्या ज़ोया उसे अपना पाएगी? क्या वह अब भी उससे उल्फ़त रखती होगी?
एक रोज़, आरिफ़ ने हिम्मत जुम्बिश में लाकर ज़ोया को फ़ोन किया। उसकी आवाज़ सुनकर ज़ोया हैरत-ज़दा रह गई। दोनों ने बहुत देर तक गुफ़्तगू की। पुरानी यादें ताज़ा हो गईं, और दिल के ग़म कम हो गए।
आरिफ़ ने ज़ोया से मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की। ज़ोया ने पहले तो हिचकिचाहट दिखाई, लेकिन फिर मान गई।
वह दिन आरिफ़ के लिए किसी ईद से कम नहीं था। वह ज़ोया से मिलने के लिए बे-ताब था। उसने अपने दिल में सारी बातें सँजो ली थीं, जो वह ज़ोया से कहना चाहता था।
जब वह ज़ोया के घर पहुँचा, तो उसकी आँखों में अश्क थे। ज़ोया दहलीज़ पर खड़ी उसकी तरफ़ देख रही थी। वह पहले से कहीं ज़्यादा हसीन लग रही थी।
दोनों एक दूसरे को देखते रहे, जैसे वक़्त थम गया हो। इतने सालों की दूरी लम्हा भर में ख़त्म हो गई। उनकी आँखों में वह प्यार आज भी मौजूद था, जो बचपन में पनपा था।
भाग का इख़्तिताम: क्या आरिफ़ और ज़ोया अपनी उल्फ़त को एक नया नाम दे पाएँगे? क्या उनकी ज़िंदगी में अब खुशियाँ लौट आएँगी?