From the first sight to the last breath in Hindi Love Stories by kalyan books and stories PDF | पहली नज़र से आख़िरी साँस तक

The Author
Featured Books
Categories
Share

पहली नज़र से आख़िरी साँस तक

मेरा नाम राम  है। उम्र है 18 साल। रंग गोरा, क़द 6 फ़ीट... और कभी मैं अपने आप को हीरो समझता था। जी हां, वही हीरो जो अपने कॉलेज में हर किसी पर रौब झाड़े, अपने दोस्तों के साथ मिलकर दूसरों को परेशान करे। किसी की भावनाओं की कद्र न करे, और पढ़ाई... बस नाम की चीज़ थी।

मेरी दुनिया बस मेरे इर्द-गिर्द घूमती थी। लगता था जैसे पूरी दुनिया मेरे इशारों पर चलती है। लेकिन शायद ऊपर वाला मेरी हरकतें देख रहा था... और उसका जवाब आने वाला था।

मैंने 10वीं में अच्छे नंबर लाए थे — 80%। सबको उम्मीद थी कि अब ये लड़का बहुत आगे जाएगा। मगर 12वीं में...? बस 63%। जैसे किसी ने मेरी ज़िंदगी की ज़मीन खींच ली हो। घर आया तो माँ-बाप का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। चार घंटे तक डांट पड़ी। हर एक शब्द दिल में चुभता गया।

उस दिन मैंने पहली बार महसूस किया... कि मैं बिल्कुल अकेला हूँ।

वो सारे दोस्त जो हँसी-ठिठोली में साथ देते थे, अब दूर थे। कोई साथ नहीं था। उस दिन के बाद से सब बदल गया।

अब मैं ग्रेजुएशन के लिए नए कॉलेज में दाखिल हुआ। नया माहौल, नए लोग... और मैं? अब मैं भी नया राम था। चुपचाप रहने वाला, सोचने वाला... और सबसे ज़्यादा महसूस करने वाला। किसी से दोस्ती नहीं करता, लेकिन हर किसी को समझने की कोशिश ज़रूर करता।

मैं जान गया था कि ज़िंदगी हर किसी को सबक देती है... बस फर्क इतना होता है कि कोई जल्दी समझ जाता है, कोई देर से।

"12वीं में जब मेरे सिर्फ़ 63% आए, तो माँ-बाप ने चार घंटे तक डाँट लगाई। उस दिन मेरी सारी हेकड़ी, सारा घमंड जैसे चकनाचूर हो गया। कोई दोस्त नहीं था जो मेरे साथ बैठकर कहता, 'चल यार, सब ठीक हो जाएगा।' मैं अकेला था।

कॉलेज नया था... ज़िंदगी भी कुछ नई थी। पर अब सब कुछ वैसा नहीं था जैसा पहले हुआ करता था।

मैं अब हॉस्टल में नहीं रहता। पिताजी ने साफ मना कर दिया — 'हॉस्टल में रहकर क्या किया? नंबर ही गिरा दिए!' उन्होंने एक पुरानी साइकिल दिलाई। अब मैं रोज़ धूप में, 8 किलोमीटर पैडल मारता हुआ कॉलेज जाता हूँ। और जब दोपहर में सब लड़के कैंटीन में हँसते हैं, मैं अकेले किसी कोने में बैठा होता हूँ।"

"भगवान भी वही दिखा रहे हैं..."

"कॉलेज में मेरे साथ रैगिंग हुई। किसी ने नाम नहीं पूछा। कोई मेरा दोस्त नहीं बना। जैसे सबको मेरे पुराने कर्मों का हिसाब पता हो। क्लास में सब ग्रुप्स में घुल-मिल गए, लेकिन मैं हमेशा पीछे की बेंच पर अकेला बैठा रहा।

कभी मैं दूसरों को डराया करता था, आज मैं खुद किसी की नज़रों से डरता हूँ। जब कोई पीछे से कहता है – 'अबे ये वही लड़का है जो पहले बहुत उड़ता था...' – तो जैसे दिल के अंदर कुछ चुभ जाता है।

और हाँ, अब मैं पढ़ाई में मन लगाता हूँ। किताबों में शांति मिलती है, शायद वहीं से खुद को दोबारा बना सकूँ।

मुझे समझ आ गया है...
ज़िंदगी में जो तुम दूसरों के साथ करते हो, वही तुम्हारे पास लौटकर आता है।"
"कॉलेज में तीसरे हफ़्ते की बात है। मेरी क्लास में एक लड़की थी — बर्षा। उम्र मेरी ही तरह 18, रंग ऐसा कि जैसे दूध में चाँद घुल गया हो। क्लास की सबसे सुंदर लड़की... लेकिन सबसे अलग भी।

वो ज़्यादा बात नहीं करती थी। लड़कों से तो बिलकुल नहीं। हमेशा लड़कियों के ग्रुप में, धीमे बोलने वाली, और कभी किसी की आँखों में आँखें डालकर बात न करने वाली। जैसे उसे ये दुनिया बहुत शोर करती लगती हो।"

"वो सबसे अलग थी..."

"मैंने सुना था कि उसके 75% मार्क्स आए थे 12वीं में, और उसने मेरिट के बेस पर कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल में जगह पाई थी। लेकिन ये नंबर उसकी ख़ूबसूरती या चाल-ढाल से कहीं मेल नहीं खाते थे... वो पढ़ाई में भी तेज़ थी, पर कभी किसी को नीचा दिखाते नहीं देखा उसे।


मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैं पहली बार उसे देखा था — बरशा। उम्र वही मेरी जैसी, कोई 18 साल की होगी। रंग बिल्कुल दूध जैसा साफ़, आँखें बड़ी-बड़ी और मासूम, और उस पूरे क्लास में सबसे ख़ूबसूरत। लेकिन अजीब बात ये थी कि वो किसी लड़के से बात नहीं करती थी। बस कुछ खास लड़कियों के साथ रहती थी। शायद उसे लड़कों से बात करना पसंद नहीं था — या शायद ज़रूरत ही नहीं समझती थी।

और मैं? उस वक्त अपनी जिंदगी के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहा था। घरवाले पहले ही 12वीं में कम नंबर आने की वजह से मुझसे नाराज़ थे। पापा ने गुस्से में कह दिया था कि अब हॉस्टल में नहीं रहना, इसलिए रोज़ 8 किलोमीटर धूप में साइकिल चला कर कॉलेज जाना पड़ता था। अंदर ही अंदर मैं टूट चुका था। कोई दोस्त नहीं था, कोई सहारा नहीं। और उस पर बरशा जैसी लड़की को देखकर बस यही लगता था — "कहाँ वो और कहाँ मैं।"

वैसे तो बचपन में एक लड़की मुझे बहुत पसंद थी, लेकिन अब उसके रवैये में इतना बदलाव आ चुका था कि वो एहसास भी दिल से मिटने लगा था। लेकिन जब मैंने बरशा को देखा... पता नहीं क्यों, दिल में एक हलचल सी होने लगी। शायद 7 साल बाद फिर से किसी के लिए दिल धड़कना शुरू हुआ था।

दिन बीतते गए। बरसात का मौसम गया, ठंड आई और फिर गर्मी। मौसम तो बदलते रहे, लेकिन मेरी ज़िंदगी वैसी की वैसी रही — अकेली, चुप और उदास। इस तरह डेढ़ साल बीत गए।

फिर एक दिन कॉलेज में फॉर्म भरने गया था। मेरी अटेंडेंस कम थी, तो HOD साहब साइन नहीं कर रहे थे। मैं उन्हें मना रहा था, तभी बरशा भी वहीं आई। उसे भी अटेंडेंस के कारण साइन नहीं मिला। सर ने दोनों को कहा, "लंच के बाद आना।"

हम दोनों ऑफिस के बाहर खामोशी से खड़े थे। तभी पहली बार उसने मुझसे बात की।

"तुम कॉलेज नहीं आते क्या?" उसने पूछा।

मैं थोड़ा घबराया, फिर कहा, "नहीं... थोड़ा काम था, इसीलिए नहीं आ पाया।"

कुछ पल बाद फिर वो बोली, "तुम हमेशा इतने चुप-चुप क्यों रहते हो? हमेशा अकेले, उदास बैठे रहते हो..."

मैंने धीमे से कहा, "ऐसे ही... दोस्त नहीं हैं ना, इसलिए।"

वो हैरान हो गई। "सच में तुम्हारा कोई दोस्त नहीं है?" उसने पूछा।

"हाँ," मैंने सिर झुका कर कहा।

तभी उसने एक ऐसा सवाल पूछा जिससे मेरी धड़कन तेज़ हो गई। "तुम... मेरे दोस्त बनोगे?"

मुझे लगा जैसे पूरी दुनिया रुक गई हो। दिल इतनी जोर से धड़क रहा था कि खुद को संभालना मुश्किल हो गया। मैंने धीरे से मुस्कुराकर कहा, "धन्यवाद... तुम्हारा दोस्त बनने के लिए।"

हमने नंबर एक्सचेंज किए। फिर उसने मेरी आँखों में देखकर कहा, "जब भी तुम अकेले महसूस करो, या उदास हो... मुझसे बात करना। लेकिन ये बात सिर्फ़ हमारे बीच रहेगी, ठीक?"

मैंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, "ठीक है।"

उसी समय सर ने हमें अंदर बुलाया, डाँटा और फिर एक आखिरी चेतावनी के साथ साइन कर दिया।

घर आया तो माँ ने खाना बुलाया, लेकिन मैंने मना कर दिया। शायद आज अंदर की भूख ख़ुशी के सामने हार गई थी।
सुबह का सूरज निकल आया था, लेकिन मेरे अंदर रात अब भी बाकी थी। मैंने जैसे-तैसे खुद को उठाया, ब्रश करते हुए मोबाइल देखा — बर्शा का मैसेज था, रात के ठीक 10 बजे का।

> "Tumhara mood ab thik hai?"



एक पल को लगा जैसे सपना देख रहा हूँ। वो लड़की, जिसे पूरी क्लास impress करने की कोशिश करती थी... वो अब मुझसे पूछ रही थी कि मैं ठीक हूँ या नहीं।

मैंने जल्दी से reply किया —

> "All good."



पाँच मिनट बाद उसका दूसरा मैसेज आया —

> "Aaj college aa rahe ho?"



मैं मुस्कराया।

> "Haan... ab toh koi wajah hi nahi bacha college na jaane ka."



बस, एक ही तकलीफ थी — वही रोज़ की bullying।

कॉलेज पहुंचा। क्लास में बैठा ही था कि बर्शा ने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा और आँखों से ही "Sab thik?" पूछा।

मैंने भी सिर हिलाकर हाँ कहा।

मेरे पास बैठा दोस्त धीरे से बोला,

> "Oye... Barsha ne tujhe ishara kiya kya?"



मैं हड़बड़ा गया —

> "Nahi yaar... shayad peeche kisi aur ko kar rahi hogi."



वो मुस्कराया —

> "Peeche hum hi toh baithe hain. Dimag thik hai?"



मैंने बात टाल दी,

> "Shayad tujhe kiya ho..."



वो चुप हो गया, लेकिन मेरे दिल में हलचल मच गई।

अब हमारी बातचीत दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। पहले 1-2 मिनट की चैट अब रोज़ाना 2 घंटे की हो गई थी। बर्शा जो कहती, मुझे वही लगता... और जो मैं सोचता, वो भी मान जाती।
हमारे बीच एक अनकहा बंधन बन रहा था।

वो मेरी बहुत care करने लगी थी — और मैं भी।
लेकिन कॉलेज में अब भी हम एक-दूसरे के लिए "अजनबी" ही थे।

कभी-कभी जब मैं कॉलेज नहीं आता, तो वो नाराज़ हो जाती।
फिर मुझे उसे मनाना पड़ता।

एक दिन उसने teasing में कहा —

> "Aaj fir kisi ne propose kiya mujhe..."
"Mana kar diya... par agar tum kahoge toh 'haan' bol dungi."



मैं हँसते हुए topic बदल देता। मेरे पास उस सवाल का कोई जवाब ही नहीं होता।

फिर आया वो दिन — जो शायद मेरी ज़िंदगी के सबसे भारी दिनों में से एक था।

हमारी क्लास में राहुल नाम का लड़का था। उसने बर्शा को propose कर दिया।
बर्शा ने सीधा कह दिया —

> "Mummy papa ne padhne bheja hai itni door, aashiqui karne nahi."



लेकिन राहुल ने इस बात को अपनी ego पर ले लिया।

अब वो कॉलेज में बर्शा के बारे में घटिया और झूठी बातें फैलाने लगा।
मेरे सामने भी उसने कुछ कहा।

मैंने शांति से समझाने की कोशिश की —

> "Aisa mat bol... tujhe aur ladkiyaan mil jayengi. Har kisi ke liye uski izzat zaroori hoti hai."



लेकिन उसने बेहूदगी की हद पार कर दी —

> "Teri kya behen lagti hai kya? Itna kyu jal raha hai?..."



और फिर —
गालियां दी।

मैंने गुस्से में मुट्ठियाँ भींच लीं।
उसके दोस्त हँसने लगे —

> "Lallu kahika! Aaj se yeh Barsha ka 'sautela bhai'!"



ढाई साल की तकलीफ, तन्हाई, frustration — सब उबलने लगे।

एक पल को लगा — तीनों का मुँह तोड़ दूं।
लेकिन फिर...
"अगर मैंने ऐसा किया, और बर्शा ने मुझसे नफरत कर ली तो?"

मैंने खुद को रोका।
लेकिन उनमें से एक ने सबके सामने मेरे गाल पर ज़ोर से थप्पड़ मार दिया।

पूरा कॉलेज देख रहा था।

बर्शा उस दिन क्लास में नहीं थी।

उस दिन मैंने पहली बार किसी के सामने अपने आप को इतना बेबस महसूस किया था। थप्पड़ खाकर भी चुप रह जाना, कोई कमज़ोरी नहीं थी... वो मेरा सबसे बड़ा सहनशीलता का इम्तिहान था।

कॉलेज के गार्डन में बैठा था, चारों तरफ शांति थी — लेकिन मेरे अंदर तूफान चल रहा था। न शर्म थी, न कोई अफ़सोस। बस एक अजीब-सी खालीपन थी। दिल से जैसे कोई चीज़ निकाल ली गई हो।

मैंने खुद से, भगवान से सवाल किया — "क्यों हो रहा है ये सब? क्या यही मेरी सज़ा है?"

तभी अंदर से एक आवाज़ आई — "जब तू दूसरों को रुलाता था, तब क्या तुझे ये ख्याल आया था कि उन्हें कैसा लगता होगा?"

उस पल ऐसा लगा जैसे खुद भगवान ने मेरी आत्मा को झिंझोड़ दिया हो।

मैं वहीं बैठा रहा... आंखों में आंसू नहीं थे, लेकिन मन रो रहा था। इतना टूटा हुआ महसूस कर रहा था कि जैसे किसी ने अंदर से तोड़कर मुझे खाली कर दिया हो। लेकिन फिर भी, मैंने खुद को संभाला। क्योंकि अब मैं पहले जैसा नहीं था।

मैं जानता था — अगर मैंने उस लड़के को मारा होता, तो शायद मुझे कुछ देर की तसल्ली मिलती। लेकिन मैं हमेशा के लिए बर्शा की नज़रों से गिर जाता।

उसने मुझे दोस्त कहा था... और मैं उस दोस्ती की कद्र करता था।

मैं टूटा जरूर था, लेकिन बिखरा नहीं था।

मैंने अपने आंसुओं को आंखों में ही रोक लिया और धीरे से खुद से कहा —
"जो खुद को संभाल ले, वही असली मजबूत होता है।"

तभी किसी ने धीरे से अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा...
तभी किसी ने धीरे से अपना हाथ मेरे कंधे पर रखा। मैंने धीरे से मुड़कर देखा... वो बर्शा थी।

उसकी आंखों में चिंता साफ झलक रही थी। शायद किसी दोस्त ने उसे बता दिया था कि मेरे साथ क्या हुआ था... या शायद वो खुद महसूस कर पा रही थी कि मैं ठीक नहीं हूँ।

"तुम यहाँ क्यों बैठे हो? क्लास क्यों नहीं आए?" उसने धीमे स्वर में पूछा।

मैंने उसकी आँखों में देखा — वो आँखें जो हमेशा चुप रहती थीं, आज बोल रही थीं।

मैंने जबाव नहीं दिया। बस एक फीकी-सी मुस्कान दी।

"मैं जानती हूँ, क्या हुआ है... मुझे सब पता चल गया है," उसने कहा, और वहीं बेंच पर मेरे बगल में बैठ गई।

"तुम्हें बुरा लगा ना?" उसने बहुत सादगी से पूछा।

मैंने सिर हिला दिया — "बुरा क्या... टूटा हूँ मैं। कभी सोचा नहीं था कि मेरे साथ भी ऐसा होगा।"

उसने मेरी ओर देखा, जैसे मेरी हर टूटी हुई भावना को समझ रही हो।
"कभी सोचा है... जो तू आज महसूस कर रहा है, वही किसी ज़माने में दूसरे लड़के तेरी वजह से महसूस करते होंगे?"

मैं चौंक गया। एक पल को लगा, जैसे उसने मेरी आत्मा को छू लिया हो।

"हाँ..." मैंने धीरे से कहा, "मैंने भी तो बहुतों को रुलाया था। उस वक्त मुझे लगता था मैं सब कुछ हूँ। पर आज... आज मैं कुछ नहीं हूँ।"

बर्शा ने मेरा हाथ थामा।
"जो इंसान अपनी गलती मान लेता है, वही सच्चा इंसान होता है। तुमने बदला लेना नहीं चुना... तुमने खुद को काबू में रखा, और यही तुम्हारी जीत है।"

मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में न कोई दया थी, न कोई घमंड। बस एक साफ-सुथरा अपनापन था।

"तुम अकेले नहीं हो," उसने धीरे से कहा।
"अब नहीं।"

उसके इन शब्दों ने मेरे अंदर की सारी दरारों को जैसे एक पल में भर दिया हो। मैंने खुद को फिर से जीते हुए पाया।

उस दिन, कॉलेज के उस गार्डन में, थप्पड़ से नहीं... बर्शा के शब्दों से मेरी असली पराजय खत्म हुई थी — और शायद वहीं से मेरी नई शुरुआत भी।
शाम ढल चुकी थी।
सड़कें सुनसान थीं, और मैं अकेले अपने साइकिल से घर की ओर लौट रहा था। चेहरे पर थप्पड़ का निशान अब तक जल रहा था, पर अंदर का ज़ख्म उससे कहीं ज्यादा गहरा था।

दरवाज़ा मैंने धीरे से खोला।
माँ किचन में थी, लेकिन जैसे ही मेरी आहट सुनी, वो बाहर आई।

उसने मेरी तरफ देखा — और एक पल को सब समझ गई।

> "बेटा... क्या हुआ?"
"चेहरा क्यों सूजा हुआ है?"



मैंने नजरें झुका लीं।
शब्द जैसे गले में अटक गए।
मैंने कोशिश की कुछ कहने की... पर गले से सिर्फ आँसू निकले।

माँ मेरे पास आई।
उसने मेरे चेहरे को अपने दोनों हाथों से थाम लिया।
आँखों में चिंता थी, और दिल में ममता।

> "मुझसे क्या छुपा रहा है बेटा?"
"कुछ तो टूटा है तेरे अंदर... बता मुझे क्या हुआ?"



बस... वहीं मैं टूट गया।

मैं माँ के कंधे से लग गया और फफक कर रो पड़ा।
दिल का सारा दर्द, गुस्सा, अपमान — सब बह गया।

> "माँ... मैं बहुत थक गया हूँ..."
"Roz roz ke taane... logon की गालियाँ... unka mazak..."
"Aaj sabke सामने thappad maara kisi ne..."



माँ ने मेरी पीठ सहलाई,
लेकिन उसकी आँखों में भी आँसू थे।

> "मेरा बच्चा... इतना सब कुछ अकेले सहता रहा तू?"
"मुझसे क्यों नहीं कहा?"



> "Main bas... nahi chahta tha aap pareshan ho maa..."



> "Tu mera beta hai... teri har तकलीफ अब मेरी है..."
"Ek thappad unhone tujhe maara, aur ek mere दिल पे पड़ा..."



मैं उसकी गोद में सिर रखकर बस रोता रहा।

> "Maa... mujhe strong banna tha, par aaj main toot gaya..."



> "Tu toot nahi gaya beta... tu bas thak gaya hai..."
"Aur thakne का हक तुझे है... तू लड़ रहा है, हर दिन..."
रात का दूसरा पहर था।

माँ के कंधे पर सर रखकर रो लेने के बाद
पहली बार ऐसा लगा कि सीने से कोई भारी पत्थर हट गया हो।

कमरे की बत्ती बुझा दी थी,
खिड़की से चाँद की हल्की रौशनी कमरे में फैल रही थी।

मैं तकिये पर सिर रखकर लेटा और
लंबी सांस ली...

> "शायद अब सब ठीक हो जाएगा..."



सालों के दर्द के बाद आज नींद आ रही थी।
गहरी, सुकून भरी, माँ की ममता से लिपटी हुई नींद।


---

लेकिन दूसरी तरफ...

कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल में एक कमरे की बत्ती अब भी जल रही थी।

Barsha अपने तकिये में मुँह छुपाए लेटी थी —
लेकिन उसकी आँखें खुली थीं।
भीतर कुछ बेचैन कर रहा था।

> "Aj usne mere liye thappad khaya..."
"Woh ladka... jo itna सीधा, masoom, aur chupchaap tha..."
"Jo na kisi se dosti karta tha na jhagda..."



उसे वो पल याद आने लगे, जब पहली बार उसने उस लड़के को देखा था —
धूप में साइकिल चलाता हुआ, अकेला,
क्लास में सबसे अलग बैठा हुआ।

> "Woh alag tha..."
"Iss duniya से, uske दर्द से... aur ab uske khामोशी se..."



Barsha का दिल अब धड़कने लगा था —
एक guilt, एक कसक, और साथ ही कुछ aur...

> "Kya usne mujhe dard se बचाने के लिए खुद को dard दिया?"



वो तकिये से उठी, और फोन उठाया।
रात के 1:47 बज रहे थे।

उसने मेरी चैट खोली... typing शुरू की... फिर मिटा दी।
फिर से लिखा... फिर रो दी।

> "Main kya kahun usse? Sorry?"
"Ya yeh kahun ki... tu sirf mera dost nahi hai ab..."



Barsha की आँखों से भी आँसू निकल पड़े।

> "Mujhe nahi pata mujhe kya ho raha hai... lekin ab mujhe uski परवाह है..."
"Bahut zyada..."




---

एक तरफ मैं गहरी नींद में था...
और दूसरी तरफ Barsha की नींद मुझसे दूर जा चुकी थी...

दिल की आवाज अब दोनों को सुनाई दे रही थी —
लेकिन अब सवाल ये था कि कौन पहले बोलता है... और कब?

उसने आँखे पोंछी... और खिड़की से बाहर चाँद को देखा।

Barsha अब तक बस सोचती थी...
आज उसने ठान लिया।

> "Bhaad mein jaye duniya..."



> "Jo mere baare mein jo sochna hai, sochta rahe."
"Lekin ab main aur nahi सह सकती..."



उसने धीरे से तकिये को पास खींचा,
मानो वो उसके सीने से लगा उस लड़के का नाम ले रही हो।

> "Main tere साथ रहूंगी..."
"Tujhe apna dard अब अकेले नहीं सहने दूंगी."
"Jis duniya se tu लड़ा, अब uss लड़ाई में main तेरे साथ हूं."



Uski aankhon में एक अजीब सी ठान थी — एक फैसला, जो दिल से लिया गया था।

उसे याद आया —
कभी-कभी मैं घर से lunch लाता था, सिर्फ इसलिए कि उसे hostel का खाना अच्छा नहीं लगता था।
कई बार पैसों की ज़रूरत में भी मैंने उसकी मदद की थी,
बिना किसी शर्त के।

और वो भी… हर बार समय पर लौटा देती थी,
कभी किसी treat के साथ,
कभी एक प्यारी सी मुस्कान के साथ।

> "Uske जैसा ladka toh is duniya mein mushkil se milta hai..."
"Jo bina kahe itni care karta hai."
"Agar main apne ego ko leke baithi rahi..."
"Toh na main achhe se जी पाऊंगी, na wo..."



उसने आँखें बंद की और एक गहरी सांस ली।

> "Subah hone de... Rahul..."
"Kal main tera hisaab karungi."



अब जब सब साफ था,
जब दिल ने खुद फैसला ले लिया था —
तो पहली बार Barsha को भी हल्का महसूस हुआ।

उसने मोबाइल साइलेंट किया, तकिये को गले लगाया,
और नींद के आगोश में चली गई…

पर इस बार… guilt के नहीं, प्यार के एहसास के साथ।