बजरंग विजय चालीसा- समीक्षा एवं पद्य 4
"बजरंग विजय चालीसा" नामक ग्रँथ हनुमानजी की प्रार्थना में चालीस छन्द और लगभग 8 दोहों व सोरठा में लिखा गया है। इसके रचयिता भगवान दास थे। जिन्होंने अंत मे ग्रँथ का रचना काल इस दोहै में कहा है-
होरी पूनै भौम संवत उन इस सौ साठ।
चालीशा बजरंग यह पूरण भयो सुपाठ।।
बाद में इसकी प्रतिलिपि तैयार करते समय तिथि और लेखक कवि का उल्लेख किया गया है-
समर विजय बजरंग के कौउ बरन न पावे पार।
कहें दास भगवान किमि अति मतिमन्द गंवार। (दोहा क्रमांक 8)
श्रुभग साठ की साल, चैत्र कृष्ण एकादसी।
वणिक धवाकर लाल, लिखी दास भगवान यह।।( चालीसा के अंत का सोरठा)
इस ग्रंथ की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह चालीसा हिंदी के छंद शास्त्र के सबसे कठिन छन्द में से एक किरवान छन्द में लिखा गया है , जो वीर रस के ग्रँथों में उपयोग किया जाता था। किरवान छन्द में चार-चार मात्राओं के चार हिस्से एक पंक्ति में आते हैं। पँक्ति के अंतिम शब्द से हर पंक्ति के अंत की तुक मिलती है। इस परकार यह दुर्लभ कठिन छन्द है। इसे धुन के साथ बोलना भी जटिल है । इसके अलावा इस पुस्तक में लगभग 11 है दोहै भी लिखे गए हैं । कुछ दोहे प्रार्थना में चालीसा के अंत में लिखे गए हैं। उनको अलग क्रमांक दिया गया है। संवत 1960 यानी 122 वर्ष पहले इस ग्रंथ की रचना की गई थी। उस समय काव्यशास्त्र में ब्रजभाषा का प्राधान्य था। इस ग्रंथ की भाषा ब्रज है। कुछ शब्द बुंदेली के भी मिल जाते हैं । कवि किस ग्राम सड़ रहने वाले थे, इसके बारे में ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है, वे हनुमान जी से प्रार्थ्ना करर्ते हैं कि सड़ गांव मे प्लेग न फैले, वे मूल चंद बुध लाल पर क्रुपा करनेकी भी स्तुति करते हैं । हां, नागरी प्रचारिणी सभा में जो अभिलेख रखा गया है, पूर्व में जो पोथियाँ गांव गांव में खोजी गई हैं उसमें भगवान दास नाम के कवि हो सकते हैं । अगर ऐसा ज्ञात होता है तो उनके बारे में अलग से नोट लिखा जाएगा ।फिलहाल यह दुर्लभ ग्रंथ हमको खोजने के बाद प्राप्त हुआ है। जिसमें हनुमान जी की स्तुति बहुत ही नए प्रकार से की गई है। मूल कथा गोस्वामी तुलसीदास जी के सुंदरकांड की तरह ही है लेकिन कई जगह अपने नए प्रयोग हैं जैसे लंका जलाते समय हनुमान जी से कुंभकरण की पत्नी का यह कहना कि मेरा पति सो रहा है उसे न जलाइए । लंका को हवन कुंड मानकर एक रूपक भी खड़ा किया है जिसमें पूछ को शुरुआत नर नारी को निशाचारों को समिधा मानकर हनुमान जी द्वारा यज्ञ करना बताया गया है । इस तरह तमाम अलंकारों, तमाम रस इसमे हें। मुख्य तौर पर वीर रस में लिखा गया यह ग्रंथ साहित्यिक मित्रों को भी, साहित्य प्रेमियों को भी अच्छा लगेगा और हनुमान जी के भक्तों को तो यह वरदान की तरह प्रतीत होता है। इस ग्रंथ के छंद भी संलग्न किए जा रहे हैं-
तब आय दशसीश, दौरो करि बहु रीश, गहो रैनचर ईश, सब मंत्रिन सुजान ॥
खेंच जोर से ढकेल, समुझायौ ठेल पेल स्वांस सीय की अपेल, ईश वामता महान ।।
देखे जुग षटभान, अरु प्रलय कृशान,शेष मुख के समान, ज्वाल ऐसी नहि आन ।।
गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान
॥ ३१।।
बल चल है न राज, भारी अनल दराज, अब दूर-चलौ भाज, है बलाय बड़ी जान ।।
तब कहो दशसीश, ब्रह्मा विष्णु यम ईश, यक्ष नाग सुर ईश, सब मेरे वस्य जान ॥
ईश कौन अरे बंग,मोहि सेवत पतंग, कोई जुरे नहि जंग , मो ते कौन बलवान ।।
गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान
॥ ३२।।
तब काल को बुलाय, कही जंतु मारहु धाय, ले समाज सजि जाय,
पों चो सन्मुख आन ।
गहि गाल मध्य ताय, धरो देख सब आय, कही विधि ने बुझाय, छोडि दीजे पाहि जान।
यौ तौ पर वश होय, आप सौ हैं भयो सोय, दियौ छोड़ हरि जोय, मान विधि की जुबान ।।
गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान
॥३३॥
लंक लौट पौट जार, बार कीनी छार, कूँदे समद मझार, निरशंक बलवान।
तह पूंछ को बुझाय, रूप सूक्षम बनाय, सिय पगतर आय, गिरे दण्ड के समान।।
मातु दीजिये निदेश, देखों पद अवधेश, जाय रावरौ, संदेश कहौं दीजे पहिचान ॥
गारे गरभ गुमान, नहि पावत परान, जारे ढेर जातुधान बजरंग हनुमान
।।३४।।
दीन्ह चूड़ामणि जोय, कहे बैन दीन होय, घरी पल छिन रोय, बीते युग परबान ॥
करी शक्र सुत शुद्ध, मम तात महा क्रुद्ध , सुधि लीजे कर क्रुद्ध, मारौं आरी वेग जातुधान ॥
जात महाधुन कीन, डारे गर्भ राक्षसीन,फटे रैनचर सीन, देके हंक लें उड़ान ॥
सब बैठे बलवान, तहाँ बुद्धि के निधान, देख दौर मिलेआन, बजरंग हनुमान ॥३५॥
चले कूद कपि बीर,आए जहाँ रघुबीर, कही जानकी की पीर, दीन्ही चूडामणि पान ।।
उठ मिले रघुनाथ, सुन भूमिजा की गाथ, अब मारों दशमाथ, कर बेगही प्रयान ॥
तब बोले रिक्षराज, रघुराज महाराज, कीन्हो पौन पूत काज, सो न कहो परै आन।
सिंधु लंघ जाय पार,आये वाटिका उजार, अक्ष मार लंक जार बजरंग हनुमान ।।३६।।
सुन रिक्ष पति बात, मिले राम सहभ्रात, प्राण प्यारे बात जात, तेरे कृत के समान ।।
अब प्रति उपकार, मोते पवन कुमार, नहि होवे बारबार, कही दास कंज भान ॥
कछू तीन लोक माहि, चीज दूसरी है नाहि, तेरे ऋणी हम आहिँ, करें सौं है नच खान ।
सिंधु लंघ जाय पार, आये वाटिका उजार, अक्ष मार लंक जार, बजरंग हनुमान।। ३७।।
गई मुद्रिका लै पार, मणि मोहि ल्याई वार, भये असुर संहार, तो प्रताप जग त्रान ।।
मरो बालक सो अक्ष, बांध ले गयो विपक्ष, तेल वोर जार पुच्छ, दीनों छोड जातुधान ॥
मेरौ कहं बल रंक , जरी मृतक सों लंक, मेटों सिंधु ने कलंक, कृपा रावरी सोजान ॥
सिंधु लंघ जाय पार, आये वाटिका उजार, अक्ष मार लंक जार, बजरंग हनुमान।।३८।।
सिय विपति विशाल, बिन कही भली द् याल,कछु पूछौ मति हाल, जन पुण्डरीक भान।
नाम पाहरु निराट, ध्यान रावरौ कपाट, प्राण जाहि केहि बाट, दीठ निज पद आन।
जरै देह विरहाग, जल श्र्वे बड़भाग , नैन निज हित लाग, तजें नींद खान पान।
सिंधु लंघ जाय पार, आये वाटिका उजार, अक्ष मार लंक जार, बजरंग हनुमान।। ॥३९॥
दोइ जोर जुग हाथ,धरों पाइन पै माथ, सो अनाथन के नाथ,देखो गत अभिमान ॥
अति हिय हरषाय ,गहि भूमि ते उठाय, लियो कंठहि लगाय, दियौ मस्तक पै पान ॥
नाय राम पद्माथ, जोर जानकी से हाथ, बजरंग जु की गाथ, गावैं दास भगवान ।।
सिंधु लंघ जाय पार, आये वाटिका उजार, अक्ष मार लंक जार, बजरंग हनुमान।। ॥४०॥
दोहा
आन सजीवन शैल जुत हरी शेष की पीर।
मार सदल अहि रावणहि ल्याय लखन रघुबीर ॥७॥
समर विजय बजरंग के, कोउ वरन न पावै पार।
कहे दास भगवान किमि अति मति मन्द गंवार।। ।।८।।
जो यह चालीसा पढ़हि नाम विजय बजरंग।
भौम वार सो शत्रु ते कबहुँ न हारई जंग।।९।।
स्वर्ग वास हरि भक्ति लखि, भगें शत्रु भय मान।
विजय विवेक विभूति नित लहहि दास मुदमान।।१०।।
होरी पूने भौम सम्वत उन्नइस सौ साठ।
चालीसा बजरंग यह पूरन भयो सुपाठ।।११।।
इति श्री बजरंग विजय चालीसा पूर्ण शुभ मस्तु।।
श्री हनुमन्तम लक्ष्मणम सिय रामार्पण मस्तु
सोरठा-
सुभग साठ की साल,चैत्र कृष्ण एकादसी।
वणिक धवाकर बाल, लिखी दास भगवान यह।।
दोहा-
जो यानको बांचै सुनै पाठ करे जो कोय।
मो प्रणाम तेहि शिर झुका और जोड़ कर कर दोय।
मुकाम सड़
दोहा
गुदा रोग मिट जाय हो, सुखी दास भगवान ।
दीन दुखी जन जानकर करहु कृपा हनुमान ॥१॥
मूल चन्द बुधलाल पै कृपा करिय कपिनाथ ॥
शत्रुन ते कीजे विजय धरिय माथ पै हाथ ।।२।।
महावीर बजरंग जू कृपा करू प्रभु सोय ।
रहे प्रजा सुख चैन में सड़ में प्लेग न होय ।।३।।
अनल-कोटि रवि लघु विकट, जा उर बस कपिराय।
दरिद पाप त्रय ताप रिपु ताके निकट न जाय ।।४।।
इति श्री ।।