“पानी मैं निकालती हूं, ” आंगन में लगे हैंड- पंप की हत्थी मैं ने मां के हाथ से ले ली।
मां रसोई की बाल्टी धो रही थीं।
शहर से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस औद्योगिक क्षेत्र में नगर महापालिका की जल- व्यवस्था अभी परिचालित नहीं हुई है तथा अपना सारा काम हम लोग इसी अकेले हैंडपंप से चलाते हैं।
रसोई की, स्नानघर की, शौचालय की निर्धारित बालटियों में पानी भरते हैं और आवश्यकतानुसार उन्हें जहां- तहां लिवा ले जाते हैं।
छत पर पानी के संग्रहन हेतु सीमेंट का एक बड़ा आधान है तथा रसोई, स्नानघर और शौचालय में उस आधान से सम्बद्ध युगत भी तैयार हैं किंतु भू-तल से पानी को उस आधान तक पहुंचाने की जिस निजी मोटर की आवश्यकता है उस की यंत्रकारी अभी अधूरी है। टोह लगाने की खातिर बाबूजी अपने कारखाने से पांच बार एक मोटर ला चुके हैं पर हर बार मोटर के रचनातंत्र का पुनर्योजन अनिवार्य लगता रहा है।
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त अपने कारखाने में बाबूजी एक ओर जहां अस्पताल के लिए लोहे की खाटें तैयार करवाते हैं, वहीं दूसरी ओर लोहे व बिजली की तारों के संयुक्त जोड़ से संयोजित यंत्रों के संग अपने प्रयोगगत प्रयास भी अपनी आशान्वित तन्मयता के साथ जारी रखते हैं। अपने हिस्से की पुश्तैनी ज़मीन बेच कर बाबूजी ने यह कारखाना दो वर्ष पहले खोला था।
“काबला क्या घर में है?” आंगन के दरवाज़े पर फूफा जी की आवाज़ व थाप हमेशा की तरह बहुत ऊंची रही।
टीन के बक्से व आलमारियां बनाने वाले फूफा जी का विशालकाय कारखाना हमारी गली के सड़क वाले छोर पर ही है तथा वह अक्सर हमारे घर पर हमें तकलीफ़ देने आ धमकते हैं।
“दरवाज़ा खोलने से पहले मुझे मेरा दुपट्टा देती जाना, ” मां फूफा जी के सम्मान में अपना सिर अवश्य ढकती हैं।
“काबला क्या घर पर नहीं?”
फूफा जी ने दरवाज़े पर शोर मचाना आरंभ कर दिया, “क्या आज मुंह - अंधेरे ही अपने मिस्त्रीखाने पर चला गया?”
“कितनी बार आप से कहा है, फूफा जी, बाबू जी को आप उन के सही नाम से पुकारा करें, ” दरवाज़ा खोलते ही मैं ने अपना एतराज़ जतलाया।
“लो, इस लड़की की बात करो, ” हाथ जोड़ रही मां के अभिवादन की प्राप्ति- सूचना फूफा जी ने सिर हिला कर दी, “यह तो बड़े- बूढ़ों की आवाज़ घोंटना चाहती है। भई, काबला हमारा लंगोटिया यार है……”
“बाबू जी का नाम श्री काबिल चंद है, ” मैं ने अपना प्रतिवाद जारी रखा, “और कारखाने की तरह वहां नया माल बनता है, मिस्त्रीखाने की तरह पुरानी चीज़ों की मरम्मत का काम नहीं होता…….”
“भई, क्या करें?” फूफा जी ज़ोर से हंसे, “हमारी मजबूरी भी तो समझो। जब भी वहां जाते हैं, सब तरफ़ काबले ही काबले और मिस्त्री ही मिस्त्री ही नज़र आते हैं। तैयार माल देखें तो जानें — माल पुराना है या नया……”
फूफा जी के हास्य में परपीड़नशील उपहास का पुट अधिक मुखर था। अकेले हाथ बाबूजी के विपरीत फूफाजी का हाथ बंटाने फूफा जी के पास तीन जवान बेटे हैं तथा जहां फूफाजी के कारखाने में पैंतीस मिस्त्री काम करते हैं, वहीं बाबूजी के कारखाने में केवल आठ। इस के अतिरिक्त फूफाजी को अपने कारखाने के उत्पादित माल के लिए तैयार तथा बनी- बनाई सांकलें व रांगे की कलई की हुई लोहे की पतली, चिकनी, निष्कोण चद्दरें मिल जाती हैं, जब कि बाबूजी को खाटों के लिए लचीली कमानी तथा पत्तीदार तीली तैयार करने में ही घंटों तक मोटे- झोटे, रूखे- खुरदुरे व टेढ़े- मेढ़े लोहे के टुकड़ों की पहले झुलाई, गढ़ाई, टंकाई करानी पड़ती है, तब कहीं जाकर वह उसे वांछित व मसृृण आकार दे पाते हैं।
“आप के लिए क्या लाऊं?” रसोई की बाल्टी रसोई की ओर ले जा रही मां ने विषय बदला।
“तुम्हारे हाथ का जमाया हुआ दही खाने आया हूं, ” फूफा जी चाटुकारी करने में भी पारंगत हैं, “न जाने क्या बात है जो इधर मेरे घर में एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, एक साथ चार- चार औरतें दिन भर रसोई में बर्तन टनटनाती रहती हैं और फिर भी मेरी मन- मर्ज़ी और तबीयत का दही नहीं जमा पातीं। और एक तुम हो जो अपना दफ़्तर निपटाने के लिए दिन में नौ घंटे बाहर रहने के बाबजूद मीठा दही जमा लेती हो…….”
“आप बैठक में चलिए, ” मां हंसी, “मैं दही ले कर वहीं आती हूं…….”
“केशू कहां है?” फूफा जी ने
बैठक की ओर कदम बढ़ाए।
“पड़ोस में गया है, ” मैं उन के आगे- आगे चल रही थी।
“लो, करो बात। जहां पड़ोस अपने मतलब और अपनी बराबरी का न हो, वहां कतई नहीं जाना चाहिए।”
“धीरे बोलिए, ” मैं ज़मीन में गड़ गयी, “वहां सब सुनाई देता है।”
पड़ोस का घर हम से लगा हुआ है। बैठक तो उन के मुख्य कमरे के इतनी निकटस्थ है कि बैठक की प्रत्येक असामान्य सरसराहट व फुसफुसाहट उन की श्रवण- सीमा के आवाह- क्षेत्र में सम्मिलित हो ही जाती है।
“पर मैं सही सोच रहा हूं, ” फूफाजी ने अपनी आवाज़ थोड़ी धीमी कर ली, “ वे लोग हमारे बराबर कहीं नहीं ठहरते। हम से बहुत नीचे हैं।”
“क्यों? उन में क्या खराबी है?” मैं ने तुरंत अपना विरोध प्रकट किया, “घरवाला सरकारी स्कूल में पढ़ाता है। घरवाली उदारचेता है। बड़ा लड़का कालेज में पढ़ता है । दूसरे दोनों बच्चे स्कूल जाते हैं। फ़ुटपाथ पर बैठ कर उन में से कोई भी भीख नहीं मांगता है…….”
“तो क्या वह लड़का कालेज भी जाता है?” फूफा जी बैठक के तख्त पर पसर लिए।
“क्यों? रमेश कालेज क्यों नहीं जा सकता?” क्रोध से मैं आग-बबूला हो गयी।
“ओह!” फूफाजी ने अचरज प्रकट किया, “तुम उस का नाम भी जानती हो?”
“हां, मैं थोड़ी झेंप गयी, “मैं तो उन तीनों बच्चों के नाम जानती हूं। रमेश से छोटी लक्ष्मी है और लक्ष्मी से छोटा, राकेश।”
“लीजिए, दही लीजिए, ” मां दही ले आयीं।
“काबले ने सस्ती ज़मीन के चक्कर में इस उजाड़ में यह जो मकान बनाया है, यह उसे बहुत मंहगा पड़ेगा, ” फूफाजी ने अपने चेहरे पर खोटी व दिखावटी चिंता ओढ़ ली, “मुझे डर है, यहां उसे लेने के देने पड़ जांएगे। बच्चों को खराब सोहबत मिलेगी और हाथ- पांव निकालते ही वे हाथ से निकल जाएंगे। इन्हें हाथ में रखो, उषा। नहीं रखोगी तो तुम्हें और काबले को हाथ मलना पड़ सकता है।”
“रसोई में धुली भिंडियां रखी हैं, ” मां ने मुझे बैठक से उठा दिया, “उन्हें पोंछना है। मगर ध्यान से। भिंडी के अनीदार रोंए कई बार हाथ में चुभ जाया करते हैं…..”
भिंडी पोंछ लेने के बाद मैं दोस्तोव्स्की का पहला उपन्यास, ‘पुुउर फ़ोक’ पढ़ने लगी। फूफा जी और मां के पास दोबारा बैठक में न गयी।
“आज क्या कार्यक्रम है?” सुबह अपने कारखाने पर जाने से पहले बाबूजी ने रोज़ की तरह उस दिन भी मुझ से लाड़- भरे स्वर में पूछा था।
“मां कहती हैं, आप की तीन कमीज़ों के कालर पलटने हैं। सो आज पड़ोस में जाऊंगी, ” मैं ने कहा था।
हमारे घर में कपड़ा सीने की मशीन नहीं है तथा पड़ोसिन मुझे अपनी मशीन पर काम कर लेने देती है।
“न, ” बाबूजी ने कठोर स्वर में कहा था, “तुम पड़ोस में बिल्कुल नहीं जाओगी। घर में बैठ कर अपना ‘पुअर फ़ोक’ खत्म करोगी। आज शाम मैं पुस्तकालय जा भी रहा हूं। तुम्हारी यह किताब खत्म हुई होगी तो दूसरी लाने का सुयोग रहेगा। मैं चाहता हूं, दोस्तोव्स्की खत्म करने के बाद तुम तोल्स्तोय शुरू कर दो……..”
“मगर आप की कमीज़ें?”
“मेरी कमीज़ें उषा ठीक करेगी।तुम नहीं……”
“क्या यह सही रहेगा? हर काम मां के ज़िम्मे सौंपना ठीक होगा?”
“सृष्टि का प्रत्येक प्राणी जीवन के एक विशेष व पृथक प्रयोजन से सम्बंध रखता है। किसी के जीवन का प्रयोजन सीमित व संकुचित होता है तो किसी का व्यापक व विस्तृत। तुम्हें अपनी अंतःशक्ति केवल अपने वैयक्तिक प्रयोजन को चरितार्थ करने में प्रयोग करनी चाहिए न कि हर दूसरे- तीसरे निरर्थक अथवा अप्रासंगिक काम करने के लिए…..”
“मुझे आप का कोई भी काम निरर्थक अथवा अप्रासंगिक नहीं लगता, ” मशीन के काम के बहाने रमेश के घर पर उस के संग अच्छा समय बिताने की इच्छा भी मेरे अंदर प्रबल रही थी।
“नहीं, ” बाबूजी ने दृढ़ता से अपना सिर हिलाया था, “तुम्हें हर उस काम को निरर्थक और अप्रासंगिक मानना ही चाहिए जो तुम्हें तुम्हारे जीवन प्रयोजन से दूर ले जाए। मैं चाहता हूं तुम एक ऐसी छलांग लगाओ जो तुम्हें जीवन- वृत्त के उस वृत्तांश में पहुंचा दे जहां के विशिष्ट निवासी अपने जीवन को विस्तार देने में सक्षम रहते हैं……..”
“यदि मेरी छलांग छोटी रही तो?”
“तुम्हारी छलांग छोटी नहीं हो सकती। मैं जानता हूं सीढ़ी पर तुम्हारे पैर अपना स्थान अवश्य ग्रहण करेंगे…….”
“अपना स्थान? क्या वहां मेरा कोई स्थान निश्चित है?”
“हां, ” बाबूजी ने अपने हाथ हवा में लहराए थे, “वहां ऊपर, बहुत ऊपर मुझे तुम्हारा स्थान स्पष्ट दिखाई दे रहा है…….”
“सच?” उल्लसित हो कर मैं हंस पड़ी थी।
“बिल्कुल सच, ” बाबूजी ने मेरी पीठ ठोंकी थी, “अब अपनी किताब ज़रूर खत्म कर लेना।”
“ भिंडी पोंछ दी क्या?” फूफा जी के जाते ही मां मेरे पास चली आईं।
“हां, ” हाथ का उपन्यास छोड़ कर मैं ने टेबल फ़ैन मां की ओर घुमा दिया, “भिंडी की थाली और छुरी मैं यहीं ला देती हूं। आप भिंडी यहीं बैठ कर काट लो। रसोई में बहुत गर्मी है……..”
“ठीक है, ” मां टेबल फ़ैन के सामने रखे मेरे बिस्तर पर बैठ गयीं।
“फूफा जी ने आज हद कर दी, ” मां के हाथ में थाली व छुरी पकड़ाते समय मैं ने कहा, “ बैठक की खिड़की के सामने खड़े होकर बाबूजी के बारे में, हमारे बारे में, पड़ोसिओं के बारे में इतना उलटा- सीधा और गलत- सल्त बोले हैं कि बस……..पड़ोसी भी सोचते होंगे हमारे रिश्तेदार कितने घटिया हैं…….बाबूजी को मैं आज सब बताऊंगी……”
“नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं करना, ” मां ने भिंडिओं के छोटे- छोटे टुकड़े नहीं किए। कटाव के नाम पर प्रत्येक इकाई को एकल काट ही दी, “पहले ही बेचारे अकेले कंधों पर दस आदमिओं का बोझ लादे हैं, तिस पर ये करारी बातें सुनेंगे तो उन का हौसला टूट जाएगा…….”
मां सच कह रही थीं। बाबूजी अति कोमल भी हैं और दुर्बोध भी!
धुंधले से धुंधला आक्षेप भी उन का संतुलन बिगाड़ देता है। और वह यदि परास्त भाव से अभिभूत होकर विषादग्रस्त नहीं होते तो अपना स्पष्टीकरण देते समय अपने विरोधी पर आक्रामक शब्दों की ऐसी झड़ी लगा देते हैं कि वह विरोधी फिर उन का आजीवन शत्रु बन जाता है।
प्रत्येक स्थिति मां के लिए कष्टकर व असह्य रहती है।
“पर फूफाजी अपने-आप को समझते क्या हैं?” फूफा जी पर आया मेरा क्रोध शांत न हुआ, “क्या जेब में रुपए रहने से ही कोई दूसरों से ऊंचा हो जाता है? चरित्रबल व आचरण कोई महत्त्व नहीं रखते? स्वभाव और आचार- व्यवहार कुछ नहीं होते?”
“चलो, छोड़ो, ” मां ने मुझे शांत करने का प्रयास किया, “जो वह समझते- बूझते हैं, वह उन्हें मुबारक और जो हम समझते- बूझते हैं, वह हमें मुबारक।”
“हम क्या समझते- बूझते हैं, मां?”
“यही कि अपने भाग्य में आयी कड़ी मेहनत- मज़दूरी से हम घबराएंगे नहीं। जिंदगी की धक्कम- धक्का का डट कर मुकाबला करेंगे। अपने लिए, अपने बच्चों के लिए रास्ता निकालेंगे। नया मार्ग बनाएंगे……”
“उस मार्ग पर पहुंच कर फिर हम भी फूफाजी की तरह अपने से कम अमीर लोगों को नीची निगाह से देखेंगे? अपने पड़ोसियों से नफ़रत करने लगेंगे?”
“अभी क्या कहा जा सकता है? हमारी हाथा- बांंही तो अभी बीच अवस्था में है। पर तुम उन पड़ोसियों पर क्यों बार- बार पलट आती हो? तुम्हारे फूफाजी ने उन के बारे में जो कहा है, वह एकदम गलत भी नहीं है। हमारी तुलना में वे निश्चित रूप से बहुत नीचे हैं…….”
“फूफाजी उनकी निंदा क्या कर गए आप भी उन्हें गलत आंकने लगीं?” लाख न चाहते हुए भी मैं ताव खा गयी, “उन्हें फूफाजी की नज़र से परखेंगी तो गलत फ़ैसला तो देंगी ही……..”
“तुम उनकी इतनी तरफदारी क्यों कर रही हो?” अपना हाथ रोक कर मां मेरी ओर देखने लगीं, “क्या कोई खास बात है?”
“हां, खास बात है, ” निस्संकोच हो कर मां से मैं सब कुछ कह सकती हूं, “रमेश मुझे बहुत अच्छा लगता है।”
“मुझ से ऐसा कह दिया तो कोई बात नहीं, ” मां गंभीर हो गयीं, “मगर किसी दूसरे से ऐसा न कहना। अपने बाबू जी से भी नहीं। वह तुम्हें गलत समझ लेंगे।”
“गलत क्या समझेंगे?”
“शायद वह सोचने लगें, तुम रमेश से प्यार करती हो…….”
“कभी कभी मुझे भी ऐसा लगता है, मैं रमेश से प्यार ही करती हूं, ” मेरा चेहरा लज्जारुण हो चला।
“तुम अभी बहुत छोटी हो, ” भिंडियों की थाली एक ओर धकेल कर मां मेरे समीप, बहुत समीप खिसक आयीं, “तुम्हारा विवेक अभी कच्चा है। तुम अभी जानती नहीं प्यार क्या होता है। तुम्हें ज़रूर गलतफ़हमी हुई है। रमेश से तुम कैसे प्यार कर सकती हो? जीवन में किसी ऊंचे लक्ष्य को प्राप्त करने की उस में कोई ललक नहीं, कोई चिंगारी नहीं……”
“आप के अनुमान मुझे हैरान कर रहे हैं, ” मैं अड़ गयी, “आप और बाबूजी यदि मेरे और केशू के बारे में ऊंची परिकल्पनाएं रखें तो सब उचित और उपयुक्त है और यदि कोई दूसरा अपने……”
“कोई दूसरा?” मां उत्तेजित हो गयीं, “कोई दूसरा कौन? हमारे ये पड़ोसी? जिन मां-बाप के पास कोई साधन नहीं? कोई ताकत नहीं? कोई कोशिश नहीं? जिन बच्चों के पास कोई उपाय नहीं? कोई हिम्मत नहीं? कोई ओज नहीं?”
“अपनी व केशू की महिमा और आप और बाबूजी के आत्मबखान सुन- सुन कर मैं तंग आ गयी हूं, ” 5llमैं ज़ोर- ज़ोर से रोने लगी, “मेरा तो यहां दम घुटता है…….मैं यहां से भाग जाऊंगी।”
“यही बातें तुम ने किसी और लड़की के मुंह से सुनी होतीं तो बताओ तुम क्या कहतीं?” मां नरम पड़ गयीं, “तुम्हें कैसा लगता? असल में अपनी दसवीं की परीक्षा के बाद की इन लंबी छुट्टियों में तुम्हारा अपनी पढ़ाई से, अपनी सहेलियों से, अपनी अध्यापिकायों से और अपने स्कूल से जो संपर्क टूटा है तो तुम भूल गयी हो होनहार लड़कियां अपने मां-बाप के बारे कैैसे सोचती हैं और उन से किस तरह बात करती हैं और अजनबियों के साथ किस तरह पेश आती हैं और उन्हें कितनी दूरी पर रखती हैं…….”
मेरे रोने की आवाज़ शायद पड़ोस में खेल रहे केशू तक जा पहुंची थी और वह पड़ोस से लौट आया।
“क्या हुआ?” केशू ने आते ही पूछा।
“आशा के बोर्ड का परिणाम आज कल में आने वाला है, ” मां ने केशू के सम्मुख मेरी प्रतिष्ठा बनाए रखी, “आशा घबरा रही है। यदि इसे पचानवे प्रतिशत से कम नंबर मिले तो इस के स्कूल वाले इसे प्रतिभाशाली छात्राओं की अपनी विशिष्ट कक्षा में शामिल न होने देंगे…….”
“लूडो खेलोगी?” केशू ने मेरी गर्दन गुदगुदायी।
मेरी रुलाई वहीं रुक ली और हम दोनों बैठक में चले आए।
घर के दूसरे कमरों की तुलना में बैठक ठंडी है। उस के पर्दे बाहर की चमचमाती व तरेरती धूप की चौंध व तिलमिली को रोकने में सक्षम हैं तथा उस की पंखा भी छत वाला है। आजकल छुट्टियों में केशू और मैं अपना अधिकतम समय यहीं बैठक ही में बिताते हैं।
आराम- कुर्सियों और तख्त के बीच वाले हिस्से में रखे गोल मेज़ को दीवार के साथ एक कोने में टिका कर फ़र्श पर चटाई बिछा लेते हैं। जिस पर कभी हमारी लूडो लगती है तो कभी हमारी कैरम जमती है और कभी- कभी मेरे आग्रह पर शब्द बनाने वाली स्पेल- ओ- फ़न भी खुल जाती है। हालांकि सातवीं कक्षा में पढ़ रहे केशू को शब्द बनाने और सीखने मे तनिक रुचि नहीं, जब कि मुझे जहां कहीं भी अक्षर दिखाई दे जाते हैं, मैं वहीं पर उन्हें काग़ज़ से उठा कर निगलने लगती हूं।
केशू ने आगे बढ़ कर जैसे ही लूडो खोली और जैसे ही लूडो की तरंग- भरी मौज में अगले दो घंटे कैसे निकल गए हमें कोई खबर ही न रही।
“लो, खाना खा लो, ” मां हमारी थालियां वहीं बैठक में ले आयीं।
भरवां भिंडी और परांठों से उठ रही भुने, गर्म मसालों व देसी घी की सुगंध हमारे मुंह में पानी ले आयी और हम दोनों लूडो छोड़ कर तुरंत अपनी- अपनी थाली पर टूट पड़े।
मां टेलिफ़ोन के दफ़्तर में काम करती हैं, जहां उन के काम के घंटे अनियमित व दीर्घकालीन रहते हैं। फलतः नियमित रूप से ताज़ा व गर्म खाना उपलब्ध न रहने के कारण जब भी हमें सुअवसर हाथ लगता है हमारी खुराक पेट-भर मात्रा से कहीं अधिक हो जाती है।
उस दिन भी ऐसा ही हुआ।
थाली में रखे भोजन को समाप्त कर लेने के बाद भी हम दोनों को रसोई में जा कर मां से और खाना परोसने के लिए कहना पड़ा।
खाना खाते ही केशू का उनींदापन उस पर हावी हो गया और वह वहीं तख्त पर सो गया। और मैं अपने उपन्यास लिए लिए चटाई पर लेट ली
“इतनी धूप में जाओगी?” मां अपने कमरे में तैयार हो रहीं थीं।
मां ने मेरी बात का उत्तर न दिया।
“मैंने जो वह सब कहा, ” साड़ी पहन रही मां का हाथ रोक कर मैं ने अपने हाथ में लेना चाहा, “वह सब झूठ था।मैं केवल आप लोग से प्यार करती हूं। किसी और से नहीं…….”
“मेरा हाथ छोड़ो। मुझे देर हो रही है……”
“आप बाबूजी से कुछ कहेंगी तो नहीं?” मेरी आंखों में आंसू भर आए।
“नहीं कहूंगी, ” मां अकस्मात हंसने लगीं।
बाबूजी और मां मेरे दिल में सांझा मर्म- स्थान रखते हैं, फिर भी बाबूजी की तुलना में मां की मोर्चाबंदी मेरे लिए भेद्य रहती है। मां को घाव लगा सकती हूं तो मां का घाव भरना भी जानती हूं।
“गली के बाहर यदि आपको पांच नंबर बस न मिले तो ग्यारह नंबर वाले चौराहे तक आप रिक्शा ज़रूर ले लेना, ” मैं ने मां को अपने अंक में भर लिया, “आज धूप बहुत तेज़ है।”
“जून का महीना है, ” मां ने मेरा माथा चूमा और मेरे अंक से विलग हो कर बोलीं, “हां, धूप तो तेज़ होगी ही!”
तैयार होकर जैसे ही मां दफ़्तर के लिए निकलीं, मैं उन्हें देखने छत पर चली आयी।
गली में घर होने के कारण सड़क की सरगरमी केवल छत से ही दिखाई देती है।
रमेश मुझे छत पर देख कर तत्क्षण अपनी छत पर आ गया।
“आज तुम हमारे घर पर आ रही हो न?” रमेश अपनी छत से बोला, “मां ने बताया, तुम्हें मशीन का कोई काम है।”
“नहीं, मैं नहीं आ पाऊंगी, ” रमेश की ओर देख कर मैं पहले की तरह मुस्करायी नहीं, “मुझे दूसरा काम है।”
“फूफाजी काम दे गए हैं?” रमेश ने मुझे हंसाना चाहा।
“नहीं, मेरा अपना काम है, ” मैं गंभीर बनी रही।
“फूफा से काम नहीं लिया, फूफा की अकड़-भौं ले ली?” रमेश ने दोबारा मुझे हंसाने की चेष्टा की।
“नहीं, यह अकड़-भौं भी मेरी अपनी है, ” मैं ने कहा। रमेश के पर कट गए।
“क्या यही बताने छत पर आयी थी?”
“छत पर मैं मां को देखने आयी हूं, ” मैं ने रमेश की ओर पीठ कर ली।
मेरी आंखें सड़क पर स्थिर हो लीं और कुहनियां छत की चौहद्दी दीवार पर।
गली के सड़क वाले छोर पर बना फूफाजी का कारखाना गली से सड़क पर पग धर रहे लोगों को उनकी गति के अनुपात से उन्हें कुछ पलों तक हमारी छत से ओझल रखता है तथा मां को सड़क की सरगरमी में सम्मिलित होते हुए मैं दो मिनट बाद ही देख पायी।
बस नंबर पांच हमारी गली के सड़क वाले छोर पर ही रुकती है तथा मां को उन के दफ़्तर वाले चौक तक छोड़ती है। परंतु वह बस समय की पाबंद नहीं है तथा उसका मिलना केवल एक सुखद संयोग रहता है।
पैदल सेना के किसी सतत सिपाही की मुद्रा व ठवन लिए मां सड़क पर साथ चल रहे कई पैदल- यात्रियों को आसानी से पिछेल कर आगे चौराहे वाली सड़क की दिशा से आ रही ग्यारह नंबर बस पकड़ने के लिए आगे बढ़ रही थीं।
छत से दिखाई दे रही सड़क के शुरू के सिरे से ले कर सड़क के अतिंम छोर तक मेरी आंखों ने मां का पीछा किया। जैसे ही वह मेरी आंखों से ओझल हुईं मेरी रुलाई छूट गयी।जी- भर रो लेने के बाद जब मैं ने पड़ोस की छत पर नज़र दौड़ाई तो रमेश मुझे कहीं नज़र न आया।
वह कब छत से नीचे उतर लिया था, मुझे कोई सुरागरसानी न रही थी।