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अजब बात लगती है मुझे भारत में कि सब अंतरराष्ट्रीय सेमिनार करवा अच्छे अंक की जुगाड में हैं। इस हेतु कोई भी विदेश पलट पकड़ लाते हैं। भले ही वह वहां रेस्टोरेंट, टैक्सी या बुक कीपिंग आदि करता हो। घरेलू भारतीय स्त्री तो बहुत अधिक लेखिका बन रही यहां भी और वहां भी, जिसे कोई होनहार इंजीनियर युवा विवाह कर विदेश ले गया। मोटे दहेज को यहां भारत में माता पिता का सूद भरने छोड़कर। बस प्रवासी भारतीय चाहिए और सेमिनार हो गई अंतराष्ट्रीय। भले ही वह खुद घबरा रहा हो कि क्या बोलना है? विषय तो मुझे ही स्पष्ट नहीं। और हो भी जाए तो जो स्वनाम धन्य लेखक है वह ही नहीं जानते तो मैं क्या बोलूंगा (गी) ? वो तो मौसी की भाभी की ननद की शादी में आए थे तो पड़ोस के हिंदी प्राध्यापक को खबर लग गई और आनन फानन में अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी के मंच पर ले जाकर बिठा दिया।
जिनको घर में कभी बेटे, बहुएं, रिश्तेदार, पड़ोसी नहीं पूछते वह भी यहां पूजा जा रहा।बस विदेश से आए हो यही काफी है।
धन्य हो हिंदी विभाग और धन्य हो उसके अपढ़ प्राध्यापक। जिन्हें कितनी ही नई शिक्षानीति, नियम ले आओ उन्हें जरा भी फर्क नहीं पड़ता। वह वैसे ही कोर्स को अधूरा छोड़ने वाले, उच्च शिक्षा के स्तर को उठाने के सरकारी दावों के विपरीत कार्य करने वाले और अपने विद्यार्थी जीवन के ज्ञान से ही पूरी नौकरी निकाल ले जाने वाले ही रहेंगे।
तो पंजीयन और संस्था प्रधान की अध्यक्षता में "प्रवासी हिंदी जगत की चुनौतियों" पर सत्र प्रारंभ। उनसे पूछो कि भाषा और साहित्य कभी प्रवासी नहीं होता बल्कि व्यक्ति या लेखक होता है। प्रवासी साहित्य में भारतीय संस्कृति जैसे घिसे पिटे दो दशक पुराने विषयों से हिंदी के प्राध्यापक आज तक बाहर नहीं आ पाए। दूसरे वह अपनी ज्ञान शून्यता और बेवकूफी को बड़ी भारी सफलता और मानते हैं।
सिर पकड़कर बैठ गए जब एक मित्र ने गोष्ठी को अंतराष्ट्रीय बनाने के चक्कर में दिल्ली विश्विद्यालय से शोध कर रही विदेशी युवती को ही मुख्य अतिथि बना दिया। वह मेरे पास बैठी और पूछ रही थी कि "क्या बोलना होगा सर? " क्योंकि अध्यक्षता मैं ही कर रहा था , मैंने कहा कि " तुम्हारे हिंदी जगत और साहित्य को लेकर जो अनुभव है वह बता देना।" सभागार पूर्णतः भरा हुआ था और अमेरिकन बाला टूटी फूटी हिंदी और आधी अंग्रेजी में अपने अनुभव पीएचडी के ही बता रही थी। कैसे, कहां _कहां जाकर उसने शोध की तैयारी की?हॉल में बैठा हिंदी प्राध्यापक जगत मंत्र मुग्ध सा सुन रहा था कि " देखो, हमारी हिंदी कितनी सक्षम है कि विदेशी तक हिंदी बोलते हैं।" यही हमारी सोच और अवधारणा अंग्रेजों के प्रति भी थी और इसी को पहचानकर विदेशी मूल खासकर अमेरिका, फ्रांस, चीन के मूल निवासी हिंदी भाषा तेजी से सीख रहे और भारत में अपना व्यापार, कंपनियां जमा चतुराई से घुस रहे। बहुत जल्द हम मानसिक और उपभोक्ता गुलामी में होंगे।
यह डिमांड और हालात देखकर कई प्रवासी भारतीय कविता लेखन में उतर आए। कुछ भी उल्टी सीधी चार पंक्तियां लिखी और पोस्ट की दस बारह लाइक आए हो गए लेखक...... नहीं नहीं, प्रवासी साहित्यकार ।
इसे देख जो वास्तविक प्रवासी लेखक हैं वह कुढ़ रहे की यह देखो बन गए "साहित्यकार" हमने यहां दो दशक बिता दिए तब जाकर चार पन्ने काले करना , ढंग से आया है। और यह? न भाषा की समझ , न शिल्प, बिंब और प्रतीकों की समझ खुद ही ऑनलाइन कार्यक्रम कर करके बनी हुई हैं स्वयंभू अध्यक्ष। ऐसा भी कोई दिन आएगा जब एक रसोइए, पत्रकार, एक घरेलू आशु कवयित्री की बगल में बैठी हुई होंगी अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी में जानी मानी लेखिका और अपने जज्बातों को दबाकर, इन शून्य साहित्य की समझ वाले जीवों की तारीफ , महत्वपूर्ण रचनाकार जैसे शब्द कह रही होंगी।
सच में हिंदी जगत का जितना अधिक नुकसान इन हिंदी के प्राध्यापकों ने किया है उतना किसी और ने नहीं। तभी हिंदी भाषा अपने ही देश और लोगों में उपेक्षा का शिकार हो रही है।
इतना तरस आता है कि हम कब काम चलाना और जुगाड बिठाना छोड़ेंगे? हम कब सेमिनार कराना मजबूरी की जगह एक अनुष्ठान, एक पर्व मानेंगे? हम कुछ सकारात्मक योगदान दे सकें?
पर नहीं। फिलहाल यह थमने की जगह बढ़ता ही जा रहा है।सार्थकता तो क्या होगी पर इसके कुछ अनूठे, अद्वितीय लाभ हुए हैं। अब हर प्रवासी भारतीय कुछ न कुछ लिख रहा है।भले ही बेसिर पैर का सही। इससे उसके घर में, विदेशों में, पुरुषों को और मुक्ति मिल गई है। स्त्री जब सर्जन करती है तो बड़ी ही रचनात्मक हो जाती है। फिर वह यह चीज ऐसी क्यों रखी, ऐसा मत करो, वैसा मत करो, इससे बात क्यों की, यह तुम्हारी क्या लगती है?आदि आदि करना छोड़ देती है। एकल परिवार तो होता ही है अधिकांश प्रवासी
लोगों का। ऐसा कोई नहीं दिखा जो विवाह के बाद , पिछले पचास साल में, अपने माता पिता को भी विदेश ले गया हो।हां, ससुराल पक्ष से साले, साली से लेकर कजिन तक को विदेश में कार्य, पढ़ाई और किसी भी काम से ले जा चुका होता है। इसीलिए समझदार और जागरूक माता पिता विवाह पूर्व लड़की और उसके घर वालो को अच्छे से, देखभाल करके चुनते थे। परंतु जबसे स्त्री पुरुष के बराबर आने लगी तब से लड़के महाशय खुद ही उच्च शिक्षा अथवा नौकरी के दौरान खुद ही लड़की पसंद कर विवाह हेतु चुनने लगे। होशियार, भारतीय नारी इसी लिए प्रारंभ से ही विभिन्न क्रीम, लोशन आदि से अपने को संवारती है। जिस तरह कांटे में मछली फंसाई जाती है वैसे ही लड़का आता और फिर बाद में मछली का जो होता वही इन लड़कों का होता।
पड़ोस के शर्मा दम्पत्ति बड़ी सी कोठी में दो काम वाली बाई के सहारे दिन काट रहे हैं। वैसे पंद्रह वर्ष तो हो ही गए। अपने प्रवासी पुत्रों का विवाह धूमधाम से किया फिर उसके बाद वही हुआ।चिड़िया आई और पुत्र को ले गई। ले जाओ पर पीछे अकेले माता पिता क्या करेंगे? उनके सपने, अरमान , परिवार की गहना गहमी सब कुछ खत्म।पहले पहले साल में एक बार और अब दो तीन साल में एक बार विदेश हो आते हैं। वापस आते हैं और फिर वही सुबह शाम पार्क की सैर और सब्जी तरकारी लेते हुए दिन काट रहे। कभी लंबे टिक जाएं बेटे के पास तो बहुएं ऐसा व्यवहार करती हैं कि उनको वापस भारत के अपना मोहल्ला, बस्ती ही अच्छे लगने लगती है। बच्चों की, घर की देखभाल से लेकर खाना , नाश्ता बनाने तक हर काम उनसे करवाया जाता या फिर कुछ और क्लेश । हर घर की कहानी यही। माता पिता बिचारे लिहाज में चुप रहते हैं कि बेटे की गृहस्थी न टूटे। पर उसका प्रवासी बहु पर रत्ती भर भी असर नहीं होता।बहु यह भूल जाती है विवाह पूर्व वह क्या और किन हालातों में थी? किस तरह भटिंडा, नोएडा, गुड़गांव, फरीदाबाद, हरिद्वार की गलियों कूचों में खाक छानती थी। मम्मी सोचती थीं इस नकचडी, मूडी की शादी कैसे होगी जिसे दोस्तों और बाहर घूमने से ही फुरसत नहीं!! मम्मी वैसे भी न जाने कितना और कौनसा बदला पुरुषों से लेना चाहती हैं जो अपनी लड़की को कोई भी घर का काम नहीं सिखाती। जरूरत पड़ने पर कम से कम खाना तो बना ले। पर नहीं मेगी और बाजार से खाना ऑर्डर करने के अलावा उन्हें कुछ नहीं आता।पता नहीं क्यों इक्कीसवीं सदी की अधिकतर स्त्रियां यही सोच रखती की हमने जो खाना बनाना, बच्चे पालना सीखा अपनी मम्मी से वह हम अपनी लड़की को नहीं सिखाएंगी। वह सीखती भी नहीं फिर शादी चाहे देश में हो या प्रवासी से। शुक्र है अभी यह दौर नहीं आया कि हम अपनी बेटी की शादी भी नहीं करेंगे उसे उसके हाल पर मस्त रहने देंगे। तो ऐसी लड़कियों पिछले बीस वर्षों से, वह शिवजी को जल चढा चढ़ा कर आखिर में अक्ल के अंधे और गांठ के पूरे घर वर पा जाती हैं । शिवजी भी तो चौबीस घंटे एक ही रट " ऐसा वर दिला दो कि मैं राज करूं " सुनते सुनते और ऊपर से ढेरों ठंडा पानी उल्टे जाने से तंग आ जाते हैं। विवाह के बाद लड़का जाने और उसके परिवार।
तो प्रवासी जगत की स्त्रियों को यह फायदे हैं कि कोई खतरा नहीं की कभी लड़के के मामा मामी आ रहे तो कभी बुआ फूफा, चाचा चाची तो कभी जेठ जेठानी, जीजाजी ! न , कोई दिक्कत नहीं। तो यह जिंदगी चलती उनकी।
लेकिन एक कटु सच यह भी है कि जो बंदा अपनी पढ़ाई और तिकड़म से भारत से विदेश तक पहुंचा है, वह भी तो आज के ही जमाने और हवा पानी का है। कोई गाय तो है नहीं। तो कुछ उनमें से अपनी पत्नी से पूरा कार्य लेते बल्कि उसे दबाकर, धमकाकर भी रखते। लड़की घर के सारे कार्य मुफ्त में करती जिनके लिए विदेशी बाई कम से कम दो लाख प्रति माह लेती। तो वह पैसा उसकी एनआरआई बीवी बचा रही। जो उसे कभी नहीं मिलेगा। फिर जिस महत्वपूर्ण चीज के लिए शादी की जाती है परिवार बढ़ाना और उससे बढ़कर यौन जरूरतें, उसमें वह लड़की बराबर योगदान देती है। ऊपर से व्यंग्य कहें या सच्चाई की वह विदेश में अपना सुख दुख अपने परिवार से कह भी नहीं सकती। तो यह ईश्वर का संतुलन है कि वह हर एक को बराबरी का मौका देता है अच्छी बात का भी और.....
पर यह दो वर्षों की मुश्किल है उसके बाद तो वह लड़की सब समझ जाती है और फिर वह जो रूपांतरण करती है उससे पुरुष कोई भी हो, उसे कहीं पनाह नहीं मिलती। फिर वह कविता लिखती है, हजारों कविताएं। एक आलोचक कहते हैं कविता इसलिए प्रारंभ से लिखी जाती है कि नए लोग उसके कोई नियम, कायदे, छंद, अलंकार, बिंब जाने बिना कुछ भी लिख देते हैं। इसीलिए उन्हें दो चार महीने और एक दो किताब के बाद सब भूल जाते हैं। पता नहीं क्यों हर स्त्री की कविता में मां, बच्चे, देश, प्रकृति के अलावा कोई अन्य विषय ही नहीं होता। ऊपर से कोरोना के बाद से तो ऑनलाइन कार्यक्रम ऐसे चले की आप प्रवासी जगत में काव्य धारा की बाढ़ देख सकते हैं। हर हफ्ते के काव्य गोष्ठियों के पोस्टर में दमकते , चमकते चेहरे जिन पर लिखा है "जी मैंने कुछ नहीं पढ़ा है बस लिखा है, बेशुमार, जो मन में आया लिख दिया।" ऐसे लोगों की रचनाएं देश की अच्छी पत्रिकाओं के कुशल और घाघ संपादकों द्वारा सौ बार रिजेक्ट होती हैं, फिर भी यह सुधार नहीं करते।पुरुष लेखक का तो हाल पूछो ही मत। वह तो प्रेमचंद से कम नहीं समझते खुद को। एक बार ऐसे ही मंच पर पूछ लिया मैंने की निर्मला पुतुल, निर्मला भुराड़िया, निर्मला जैन और निर्मल वर्मा में किस विधा का अंतर है? पूरा ऑनलाइन मंच पर सन्नाटा छा गया क्योंकि किसी को नहीं पता यह कौन हैं? वह सब तो अपने मोबाइल फोन और लैपटॉप पर नई कविताएं लिए तैयार हो रहे थे।
हंसी और आती है जब आप देखते हैं अपने से उम्र में छोटी दिख रही स्त्री को दूसरी कवयित्री दीदी कहकर संबोधित करती है। स्त्री कभी बड़ी नहीं होना चाहती। प्रवासी लेखक होने के लिए महज विदेश में बैठकर लिखना नहीं होता है बल्कि कम से कम पांच साल हिंदी जगत के ईमानदार आलोचकों और लेखकों के सानिध्य में कड़ी मेहनत करना होगा। तब जाकर कुंदन सा तपकर आप साहित्य जगत में पहली सीढ़ी पर कदम रखेंगे।यह जरूरी भी है तभी हिन्दी साहित्य जगत समृद्ध होगा।वरना सब भ्रम है, मन बहलाव है, शौक है बस।
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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक, व्यंग्यकार और मोटिवेशनल स्पीकर, अजमेर, राजस्थान
मो 7737407061, 8279272900)